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पिछली कथा में हमने स्वर्ग की अप्सरा गंगा द्वारा आठ वसुओं को जन्म देने तथा आठवां पुत्र शांतनु को देकर फिर से स्वर्ग लौट जाने की कथा कही थी। गंगा का आठवां पुत्र वस्तुतः आठवां वसु था जो महर्षि वशिष्ठ के श्राप के कारण धरती पर ही रह गया था। उसका नाम देवव्रत रखा गया। महाराज शांतनु उस बालक को अपने महल में ले आए। उस बालक में देवों के समान अद्भुत तेज एवं अतुल्य पराक्रम था।
गंगा के जाने के लौट जाने के बाद शांतनु ने 36 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुये एक सुन्दर युवती दिखाई दी। उसका रूप लावण्य किसी अप्सरा के समान था और उसके अंग-प्रत्यंग से कमल की सुगन्ध निकल रही थी। महाराज शांतनु ने उस कन्या को निकट बुलाकर उससे पूछा- ‘हे देवि! तुम कौन हो?’
उस कन्या ने कहा- ‘महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद कन्या हूँ।’
सत्यवती का उत्तर सुनकर महाराज शांतनु चकित रह गए। निषाद कन्या होकर इतना रूप वैभव, जिसकी समता कोई आर्यकन्या एवं देवकन्या भी नहीं कर सकती थी। महाराज को लगा कि यह भी अवश्य ही गंगा के समान स्वर्ग की अप्सरा होगी। इस कथा को आगे बढ़ाने से पहले हमें सत्यवती के अतीत के सम्बन्ध में कुछ चर्चा करनी होगी।
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कुछ पुराणों में आई एक कथा के अनुसार एक मछली ने राजा सुधन्वा का अंश अपने शरीर में धारण किया जिससे वह गर्भवती हो गई। एक दिन एक मछुआरा मछली पकड़ रहा था, तब उसके जाल में वह मछली फंस गई। मछुआरे ने उस मछली का पेट चीरा तो उसमें से एक बालक तथा एक बालिका निकले। मछुआरे ने बालिका तो अपने पास रख ली तथा बालक राजा सुधन्वा को सौंप दिया। वह बालक आगे चलकर मत्स्यराज के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा बालिका का नाम सत्यवती रखा गया।
वस्तुतः सत्यवती के पौराणिक आख्यान से हम अनुमान लगा सकते हैं कि सत्यवती राजा सुधन्वा एवं किसी धीमर-पुत्री की संतान रही होगी जिसका पालन-पोषण एक निषाद ने किया था। सत्यवती अत्यंत रूपसी कन्या थी किंतु उसकी देह में से मछली की गंध आती थी। समय अपने पर वह एक रूपवती युवती में बदल गई। एक दिन मुनि पराशर ने सत्यवती को नदी में नाव चलाते हुए देखा तो वे उस पर आसक्त हो गए। मुनि पराशर ने सत्यवती के समक्ष प्रणय निवेदन किया।
इस पर सत्यवती ने कहा- मैं कुंवारी लड़की हूँ, इस कारण मेरा आपके साथ रमण करना उचित नहीं है।’
इस पर पराशर ने कहा- ‘तुम्हें मेरे साथ रमण करते हुए कोई नहीं देख सकेगा तथा तुम्हारे कौमार्य में भी कोई अंतर नहीं आएगा।’
सत्यवती ने कहा- मेरे शरीर से मछली जैसी गंध आती है, इसलिए आप मेरे साथ रमण नहीं कर सकेंगे।’
पराशर मुनि ने कहा- ‘मेरे आशीर्वाद से तुम्हारे शरीर से मछली की गंध आनी बंद हो जाएगी तथा तुम्हारे शरीर से दिव्य गंध आने लगेगी।’
पराशर की बात सुनकर सत्यवती पराशर मुनि के साथ रमण करने के लिए सहमत हो गई। पराशर मुनि ने अपनी तपस्या के बल पर सत्यवती के शरीर से आ रही मछली की गंध को समाप्त करके उसे दिव्य सुगंध में बदल दिया तथा अपने और सत्यवती के चारों ओर घनघोर कोहरा उत्पन्न कर दिया जिसमें सत्यवती एवं पराशर छिप गए। उनके प्रणय के परिणाम स्वरूप सत्यवती गर्भवती हो गई तथा उसने एक बालक को जन्म दिया। पुत्र को जन्म देने के बाद पराशर के आशीर्वाद से सत्यवती पुनः कुंवारी कन्या में बदल गई।
इसके बाद सत्यवती तो अपने पिता के पास चली गई और पराशर ऋषि उस पुत्र को अपने साथ लेकर वन में तपस्या करने चले गए। पराशर तथा सत्यवती के पुत्र का नाम द्वैपायन रखा गया। द्वैपायन ने धूप में खड़े रहकर घनघोर तपस्या की जिसके कारण उसकी त्वचा का रंग काला हो गया। इसलिए उसे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। इसी कृष्ण द्वैपायन ने वेदों को संहिता बद्ध किया था, पुराणों को लिपिबद्ध किया था तथा महाभारत एवं भागवत पुराण की रचना की थी। इस कारण उन्हें वेदव्यास कहा जाने लगा। हिन्दू धर्म में उन्हें भगवान कहकर उनका आदर किया जाता है। वेदव्यास ने सत्यवती को वचन दिया था कि- ‘जब कभी भी तू विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।’
अब राजा शांतनु उसी सत्यवती के रूप-यौवन पर रीझ गए थे। उन्होंने सत्यवती से तो कुछ नहीं कहा किंतु वे सत्यवती के पिता के पास पहुँचे और उसके समक्ष सत्यवती से विवाह करने की इच्छा प्रकट की।
इस पर निषाद बोला- ‘राजन्! मुझे अपनी कन्या का विवाह आपके साथ करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।’
शांतनु ने निषाद को बताया- ‘उनका पहले से ही एक पुत्र है। उसका नाम देवव्रत है और वही राज्य का अधिकारी है।’
निषाद ने कहा- ‘यदि आप मेरी पुत्री सत्यवती से विवाह करना चाहते हैं तो आपको मेरी शर्त स्वीकार करनी होगी।’ यह सुनकर शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये।
जब राजकुमार देवव्रत ने अपने पिता को उद्विग्न एवं चिंतातुर देखा तो उसने अपने पिता के मंत्रियों से कहा कि वे महाराज की चिंता का पता लगाएं। मन्त्रियों ने महाराज से उनकी उद्विग्नता एवं चिंता का कारण पूछा। इस पर महाराज शांतनु ने मंत्रियों को अपनी उद्विग्नता एवं चिता का कारण बता दिया। मंत्रियों ने उसकी सूचना राजकुमार देवव्रत को दे दी।
देवव्रत मन्त्रियों को अपने साथ लेकर निषाद के घर गया और निषाद से कहा- ‘हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के पेट से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा।’
इस पर निषाद ने कहा- ‘आप तो इस वचन का पालन कर लेंगे किंतु आपकी संतानों ने सत्यवती के पुत्रों को राजसिंहासन पर बैठाने से मना कर दिया तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?’
इस पर देवव्रत ने निषाद के समक्ष दूसरी प्रतिज्ञा की- ‘आपकी पुत्री के अधिकारों की रक्षा करने के लिए मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा तथा हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा करूंगा।’
राजकुमार की इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा- ‘हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है। मैं अपनी पुत्री का विवाह आपके पिता के साथ करने के लिए तैयार हूँ।’
जब राजा शांतनु ने भीष्म के प्रण के बारे में सुना तो उन्होंने देवव्रत से कहा- ‘तुम इस प्रतिज्ञा को त्याग दो। मैं सत्यवती से विवाह नहीं करूंगा।’
देवव्रत ने कहा- ‘अब तो मैं प्रतिज्ञा ले चुका हूँ।’
इस पर महाराज शांतनु ने कहा- ‘वत्स! तुमने पितृभक्ति के वशीभूत होकर भीषण प्रतिज्ञा की है, इस प्रतिज्ञा के कारण आज से तुम भीष्म के नाम से प्रसिद्ध होओगे। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी मृत्यु तुम्हारी इच्छा से होगी।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता