तीन वर्ष लगातार भागते-भागते खुर्रम थक गया। उसका स्वास्थ्य गिर गया। उसके विश्वस्त आदमी मर गये और सेना भी छीज कर अत्यल्प हो गयी। यहाँ तक कि वह अब दक्खिनियों की दया पर ही निर्भर रह गया। अतः उसने जहाँगीर को चिट्ठी भिजवाई कि मुझे अपने किये पर अफसोस है। मुझे मुआफ किया जाये।
इस पर जहाँगीर ने खुर्रम को लिखा कि यदि तू अपने बेटे दारा शिकोह तथा औरंगजेब को मेरी सेवा में भेज दे और रोहतासगढ़ व आसेर के किले समर्पित कर दे तो तेरे सब अपराध क्षमा कर दिये जायेंगे तथा तुझे बालाघाट का क्षेत्र दे दिया जायेगा।
खुर्रम ने रोहतासगढ़ तथा आसेर के किले बादशाह को समर्पित कर दिये और अपने दोनों बेटे तथा दस लाख रुपये का नजराना जहाँगीर की सेवा में भेज दिये।
खुर्रम के समर्पण कर देने से वे सब कारण ही समाप्त हो गये जिनके कारण अब्दुर्रहीम को बंदी बनाया गया था। अतः जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम को अपने दरबार में पेश करने का आदेश दिया।
जब अब्दुर्रहीम जहाँगीर के सामने पेश हुआ तो उसके मन की अवस्था बड़ी विचित्र हो गयी। यह वही दरबारे आम था जिसमें कभी वह सिंह की तरह गर्दन उठा कर प्रवेश करता था। यह वही दरबार था जिसमें जब अब्दुर्रहीम बोलता था तो हवा में सहस्रों गुलाबों की सुगंध व्याप्त हो जाती थी। यह वही दरबार था जिसके वायुमण्डल में हजारों लोग हाथ उठा-उठा कर अब्दुर्रहीम की जय-जयकार बोलते थे किंतु आज वे सारे दृश्य विलुप्त हो चुके थे।
अकबर के युग के बहुत से पुराने दृश्य चित्रों की भांति रहीम के नेत्र पटल पर उभर आये। राजा टोडर मल, तानसेन, बीरबल, अबुल फजल, फैजी और भी जाने कितने-कितने लोग उसे स्मरण हो आये। जाने कहाँ गया वह अकबर जो उस पर मेहरबानियाँ लुटा कर स्वयं को धन्य समझता था।
रहीम की बूढ़ी देह में सिहरन सी हुई। पाषाण हृदय समय ने वह समूचा युग ही निगल लिया था। अब्दुर्रहीम का समस्त वैभव कठोर समय के हाथों पराभव में बदल गया था।
पुरानी स्मृतियां और आज की स्थिति इस प्रकार आपस में गड्ड-मड्ड हुई कि रहीम के बूढ़े नेत्रों से जल की अविरल धारा बहने लगी। उसकी गर्दन झुक गयी। आत्मग्लानि का भाव उसकी चेतना पर छा गया। उसका मन हुआ कि धरती फट जाये तो वह उसमें समा जाये। अब किस सुख की आशा में वह यहाँ आया है! क्यों नहीं उसने दरबार में आने से मना कर दिया!
शोक और ग्लानिबोध से ग्रस्त अब्दुर्रहीम बादशाह के सामने पहुँच कर धरती पर गिर गया और फूट-फूट कर रोने लगा। यह वही बादशाह था जिसके वैभव और साम्राज्य में वृद्धि के लिये अब्दुर्रहीम ने अपना समूचा जीवन और अपनी तीन पीढ़ियाँ नष्ट कर दी थीं। यह वही बादशाह था, रहीम जिसका शिक्षक रहा था। यह वही बादशाह था जिसके बेटों ने रहीम के बेटों और पोतों के प्राण हर लिये थे। यह वही बादशाह था जिसके शहजादों खुर्रम और परवेज ने रहीम को अपराधी घोषित करके छोटे आदमियों के हाथों अपमानित करवाया था।
बहुत देर तक अब्दुर्रहीम धरती पर पड़ा हुआ रोता रहा। पूरा दरबार सकते में था। यहाँ तक कि गुलामों के पंखों से निकलने वाली हवा में भी सरसराहट न रही। इधर तो अब्दुर्रहीम अपनी दुर्दशा पर रोता था और उधर जहाँगीर सोचता था कि इसने मेरे प्रति जो अपराध किये हैं, उसी की ग्लानि से उपजे दुःख के कारण यह रोता है।
जहाँगीर का पाषाण हृदय पसीज उठा। उसने अब्दुर्रहीम से कहा- ‘अब तक जो कुछ हुआ है, वह दैव संयोग से हुआ है। न मेरे वश में कुछ था और न तेरे वश में। तू अधिक सोच-संताप न कर।’
अब्दुर्रहीम इस पर भी धरती से नहीं उठा। जहाँगीर के संकेत पर बख्शियों ने उसे उचित जगह पर ले जाकर खड़ा किया। खानखाना को फिर से पुराना ओहदा, पदवी, अख्तियार और खिलअत देकर उसका बहुत मान-सम्मान किया गया।
उसी दिन रहीम ने एक अंगूठी बनवाई जिस पर यह लेख लिखवाया- ”जहाँगीर की महरबानी ने खुदा की मदद से, मुझको जिन्दगी और खानखानी दुबारे दी है।”
अपने हाथ में अंगूठी पहनते हुए रहीम ने आकाश की ओर दृष्टि उठाकर कहा-
”जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल।
तौ काहे कर पर धर्यौ, गोवर्धन गोपाल। ”[1]
[1] हे ईश्वर जब तुझे ब्रज को इसी तरह दुखी करना था तो क्यों तूने गोवर्धन उठा कर इसकी रक्षा की?