पिछली कथा में हमने चंद्रवंशी राजा संवरण की चर्चा की थी। राजा संवरण हस्तिनापुर को बसाने वाले राजा हस्ति का पौत्र था और राजा अजमीढ़ का पुत्र था। राजा अजमीढ़ का उल्लेख बहुत से पुराणों में हुआ है। किसी समय ईरान से लेकर ग्रीस तक मेड साम्राज्य विस्तृत था। संभवतः इसका कुछ सम्बन्ध राजा अजमीढ़ से रहा हो!
अजमीढ़ के पुत्र राजा संवरण की पत्नी ताप्ती, सूर्यपुत्री थी। उसकी कोख से कुरु नामक एक तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। चंद्रवंशी राजाओं की परम्परा में कुरु बत्तीसवां राजा था। राजा कुरु की कथा मुख्यतः वामन पुराण में मिलती है। महाभारत एवं अन्य ग्रंथों में राजा कुरु तथा उसके द्वारा बसाए गए कुरुक्षेत्र का उल्लेख बार-बार हुआ है।
राजा कुरु अत्यंत प्रतापी राजा हुआ। उसका राज्य भारत के गंगा-यमुना के उपजाऊ प्रदेशों से लेकर ईरान, मिस्र, लीबिया तथा ग्रीस तक विस्तृत माना जाता है। कुरु राज्य में मिलाए जाने से पहले इस विशाल भूप्रदेश में मेड नामक राज्य हुआ करता था।
पुराणों में उल्लेख है कि कुरु ने अपने ससुर अत्यागस से, ईरान से लेकर यूनान तक का विशाल भूभाग प्राप्त किया था। राजा कुरु ने अपने राज्य का नाम अपने पिता अजमीड़ के नाम पर अजमीढ़ रखा था।
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श्रीमद्भागवत एवं विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्माजी की वंशावली में राजा अजमीढ़ की पीढ़ी में राजा कुरु के नाम से सम्पूर्ण कुरुक्षेत्र जाना जाता है। कुरु के नाम से ही पुरुवंश एवं पौरव वंश आगे चलकर कुरु वंश कहलाया।
पुराणों के अनुसार राजा कुरु ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब राजा कुरु बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहा था, तब देवराज इन्द्र ने राजा से इस परिश्रम का कारण पूछा।
इस पर कुरु ने कहा- ‘मैं यहाँ पर एक धर्मक्षेत्र बना रहा हूँ। जो भी व्यक्ति यहाँ युद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त होगा, वह सीधे ही पुण्यलोकों में जायेगा।’
देवराज इन्द्र को राजा कुरु की बात बड़ी हास्यास्पद अनुभव हुई और देवराज राजा कुरु का परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गए किंतु राजा कुरु बार-बार कुरु क्षेत्र की भूमि में हल चलाता रहा।
देवराज इन्द्र ने स्वर्ग के देवताओं को राजा कुरु द्वारा कुरुक्षेत्र में हल चलाए जाने की बात बताई। इस पर कुछ देवताओं ने इन्द्र को परामर्श दिया कि- ‘यदि संभव हो तो राजा कुरु को अपने अनुकूल करने का प्रयास करिए। अन्यथा यदि प्रजा यज्ञ किए बिना ही और हमारा यज्ञभाग दिए बिना ही स्वर्गलोक में प्रवेश करने लगेगी, तब हमारा क्या होगा!’
देवताओं की सलाह मानकर देवराज इन्द्र ने पुनः राजा कुरु के पास जाकर कहा- ‘हे नरेन्द्र! आप व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हैं। आप हल चलाना बंद कीजिए। मैं आपको वदरान देता हूँ कि यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य इस क्षेत्र में निराहार रहकर अथवा युद्ध करते हुए यहाँ मृत्यु को प्राप्त होगा तो वह स्वर्ग का अधिकारी होगा।’
राजा कुरु ने देवराज की यह बात मान ली तथा हल चलाना बंद कर दिया। पुराणों में इसी स्थान को ‘समंत-पंचक’ एवं ‘प्रजापति की उत्तरवेदी’ कहा गया है। वामन पुराण के अनुसार राजा कुरु ने कुरुक्षेत्र में ‘ब्रह्मसरोवर’ की स्थापना की थी।
कुछ ग्रंथों के अनुसार राजा कुरु ने इन्द्र से यह वरदान मांगा था कि कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा जाए तथा यहाँ के सरोवरों में स्नान करने वाला मनुष्य अथवा कुरुक्षेत्र में प्राण त्यागने वाला मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त करे। कुछ पुराणों के अनुसार राजा कुरु ने द्वैतवन में हल चलाकर कुरुक्षेत्र में मानव बस्तियां बसाईं। इससे स्पष्ट है कि राजा कुरु से पहले यह पूरा क्षेत्र वीरान एवं अनुपजाऊ था। राजा कुरु ने इस क्षेत्र को कृषि योग्य बनाकर वहाँ मानव बस्तियां बसाईं।
ऋग्वेद में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। कुरुश्रवण का शाब्दिक अर्थ है- ‘कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।’ इस उल्लेख से यह अनुमान होता है कि ऋग्वेद काल में भी कुरुक्षेत्र एक धार्मिक एवं पुण्यस्थल माना जाता था जहाँ ऋषियों द्वारा ज्ञानोपदेश का आयोजन किया जाता था।
अथर्ववेद में एक कौरव्यपति की चर्चा हुई है जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। यह कौरवपति संभवतः कोई कुरुवंशी राजा था।
ब्राह्मण-ग्रन्थों में कुरुक्षेत्र का उल्लेख अत्यंत पवित्र तीर्थ-स्थल के रूप में हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि एक बार देवताओं ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया। मैत्रायणी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक सत्र का सम्पादन किया था। महाभारत में कुरुक्षेत्र की महत्ता का उल्लेख हुआ है तथा कहा गया है कि सरस्वती के दक्षिण एवं दृषद्वती के उत्तर की भूमि कुरुक्षेत्र में थी और जो लोग उसमें निवास करते थे, मानो स्वर्ग में रहते थे।
वामन पुराण में कुरुक्षेत्र को ब्रह्मावर्त कहा गया है। वामन पुराण के अनुसार सरस्वती एवं दृषद्वती के बीच का देश कुरु-जांगल था। मनुस्मृति के लेखक मनु ने उस देश को ब्रह्मावर्त कहा है जिसे ब्रह्माजी ने सरस्वती एवं दृषद्वती नामक पवित्र नदियों के मध्य में बनाया था जबकि ब्रह्मर्षिदेश वह था जो पवित्रता में थोड़ा कम था। इस उक्ति से लगता है कि उत्तर वैदिक काल में आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वाेत्तम देश था जिसके भीतर कुरुक्षेत्र स्थित था।
ब्राह्मण ग्रंथों के रचना काल में सरस्वती कुरुक्षेत्र से होकर बहती थी। जहाँ सरस्वती मरुभूमि में अन्तर्हित होती थी, उसे ‘विनशन’ कहते थे और वह भी एक प्रसिद्ध तीर्थ था। कौरवों एवं पाण्डवों का युद्ध कुरुक्षेत्र में ज्योतिकुण्ड के निकट हुआ था। भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा गया है। वायु पुराण एवं कूर्म पुराण में लिखा है कि श्राद्ध करने के लिए कुरुजांगलः एक योग्य देश है।
सातवीं शताब्दी ईस्वी में ह्वेनसांग ने कुरुक्षेत्र का उल्लेख हर्ष की राजधानी स्थाण्वीश्वर के रूप में किया है जिसे बाद में थानेसर कहा जाने लगा। ह्वेनसांग ने इसे धार्मिक एवं पुण्य भूमि बताया है। महाभारत के वन पर्व एवं वामन पुराण में कुरुक्षेत्र का विस्तार पाँच योजन व्यास में बताया गया है।
आधुनिक वैज्ञानिकों का मानना है कि वर्तमान समय में कुरुक्षेत्र में जो बड़े-बड़े सरोवर दिखाई पड़ते हैं, वस्तुतः वे लुप्त हो चुकी सरस्वती के ही अवशेष हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता