कचरा फैंकने की मशक्कत
सुबह 4.30 बजे उठकर निकलने की तैयारियां कीं। मधु एवं भानु ने रात में ही पूड़ियां बना ली थीं। सब्जियां सुबह उठकर तैयार कीं। सारी तैयारियां हो जाने के बाद सुबह 6.47 बजे मैं और विजय कचरा फैंकने गए। रोम, फ्लोरेंस तथा वेनेजिया में तीनों ही सर्विस अपार्टमेंट्स के मालिकों ने हमें यह सख्त हिदायत दी थी कि अपार्टमेंट छोड़ने से पहले हम कचरा अवश्य ही बाहर फैंक दें।
हम जान गए थे कि यहाँ भारत की तरह नहीं है कि जहाँ चाहो कचरा फैंक दो। कचरे को कचरे के नियत स्थान पर ही फैंकना होता है। वेनेजिया में प्रातः 6.30 बजे एक सफाई कर्मचारी अपनी ट्रॉलियां लेकर आता है जो प्रातः 7.30 बजे तक उपलब्ध रहता है। हमने नहर के किनारे उसे कर्मचारी को ढूंढ लिया।
जब हमने उससे गारबेज-कंटेनर के बारे में पूछा तो उसने एक कौने में खड़ी ट्रॉली की ओर संकेत किया। उस कर्मचारी के कपड़े भारत के कलक्टरों से भी अच्छे लग रहे थे और उसकी आंखों में लगभग वैसा ही भाव था जैसा कल नाव में सब्जी बेचने वाली औरत की आंखों में देखने को मिला था! पता नहीं उसकी आंखों के अजीब से भाव को देखकर मुझे कुछ कठिनाई सी हो रही थी!
जब कचरा फैंककर लौटे तो सर्विस अपार्टमेंट का रास्ता भूल गए किंतु अधिक नहीं ढूंढना पड़ा। 7 बजकर 03 मिनट तक हम वापस अपार्टमेंट में लौट आए और 7 बजकर 06 मिनट पर हमने अपार्टमेंट छोड़ दिया।
13 किलोमीटर के 3200 रुपए
इस समय बरसात बंद थी। गूगल सर्च की सहायता से हम 7.23 पर टैक्सी स्टैण्ड पहुँच गए। यहाँ बहुत सी टैक्सियां खड़ी थीं। एक टैक्सी ने हमें 7.46 पर एयरपोर्ट के बाहर उतार दिया। केवल 13 किलोमीटर के लिए 3200 रुपए का भुगतान करते हुए हमें अच्छा नहीं लग रहा था किंतु और कोई उपाय भी तो नहीं था!
पीने का पानी नहीं!
विजय ने भारत में ही फ्लाइट के जो टिकट बुक करवाए थे उनका बारकोड स्कैन करके एक वेंडिंग मशीन से हमें बोर्डिंग पास मिल गए। हमें भय था कि एयरपोर्ट पर बहुत भीड़ होगी किंतु यहाँ भीड़ नहीं के बराबर थी। इसका कारण संभवतः यह था कि यह एक स्थानीय एयरपोर्ट है जहाँ से केवल इटली के विभिन्न शहरों के लिए फ्लाइट्स मिलती है।
हम यहाँ से रोम पहुँचकर ही दिल्ली के लिए इण्टरनेशनल फ्लाइट पकड़ सकते थे। हमने बोर्डिंग-पास प्रिण्ट करके नाश्ता किया, इतने में ही चैक-इन काउण्टर खुल गया। हमने अपना सामान इस काउंटर पर जमा करवाया। काउंटर पर बैठी महिला कर्मचारी ने हमें हिदायत दी कि हम किसी भी तरह का लिक्विड अपने हैण्डबैग में नहीं ले जाएं। इसलिए हमने पानी की सारी बोतलें चैक-इन से पहले खाली कर दीं। हमारा प्लेन 11.20 पर था। जब तक हम हैंगर के पास वाले दरवाजे के पास पहुँचे तब तक 9.30 ही बजे थे। कुछ देर बाद जब प्यास लगी तो हमने इधर-उधर पानी की तलाश की किंतु एयरपोर्ट के भीतर पीने का पानी उपलब्ध नहीं था।
भारत के पालम इण्टरनेशनल एयरपोर्ट, मलेशिया के कुआलालम्पुर एयरपोर्ट और जकार्ता एयरपोर्ट के भीतर हम पीने का पानी अपनी बोतलों में भर चुके थे किंतु यहाँ यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी।
अंत में हमें 2.5 यूरो अर्थात् भारतीय मुद्रा में 200 रुपए की पानी की एक लीटर की बोतल खरीदनी पड़ी। रोम जाने वाला प्लेन 25 मिनट लेट हो गया। इसलिए 10 बजे की बजाय 12.25 पर रोम पहुँचा। हमारी अगली फ्लाइट 2.10 पर थी। यहाँ भी भीड़ बहुत कम थी। दिल्ली एयरपोर्ट जैसा बुरा हाल नहीं था।
संभवतः यहाँ से बहुत से पर्यटक सड़क मार्ग से यूरोप के दूसरे देशों को निकल जाते होंगे। हमें यहाँ सामान चैक-इन नहीं कराना था इसलिए हम समय पर ही प्लेन तक पहुँच गए। प्लेन में शाम 4 बजे (इटैलियन समय) हमें लंच मिला। इसमें पास्ता और बॉइल्ड राइस शािमल थे। पास्ता में से बदबू आ रही थी और राइस कच्चे थे। हममें से किसी से यह खाना नहीं खाया गया। इस खराब भोजन के लिए हमसे प्लेन के टिकट के साथ जाने कितना अधिक भुगतान लिया गया था!
हमने शाम आठ बजे (इटेलियन टाइम) घर से लाई गईं कल रात की पूड़ियां खाईं जो प्लेन के पास्ता और राइस से बहुत ज्यादा अच्छी थीं। 24 घण्टे पहले बनी पूड़ियां और 15 घण्टे पहले बनी सब्जियां अब तक खाने के योग्य थीं किंतु विमान में दिया गया गर्म खाना बदबू दे रहा था!
इटैलियन समय के अनुसार रात 11 बजे विमान दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुँच गया। इस समय भारत की घड़ियों में रात्रि के ढाई बजे थे। भारत से रोम 5 हजार 950 किलोमीटर दूर है किंतु कुछ ही दिन पूर्व भारत पर पाकिस्तान की ओर से हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों के विरुद्ध एयर-ऑपरेशन किया था जिसके कारण पाकिस्तान ने भारत की ओर से आने वाली सभी फ्लाइट्स पर रोक लगा दी थी। इस कारण हमारा विमान अंकारा होते हुए हिन्द महासागर, अरब सागर, अहमदाबाद, उदयपुर और जयपुर के ऊपर उड़ते हुए 7 हजार 400 किलोमीटर की दूरी पार करके दिल्ली पहुँचा था।
इस कारण साढ़े सात घण्टे की बजाय 9 घण्टे का समय लगा था। इमीग्रेशन पर चैक-आउट करने तथा लगेज-बेल्ट से अपना सामान प्राप्त करने में लगभग एक घण्टा लग गया। प्रातः 3.30 बजे हम एयरपोर्ट से बाहर आए। आजकल दिल्ली एयरपोर्ट पर टैक्सी पकड़ने के लिए लगभग आधा-पौन किलोमीटर चलना पड़ता है। यदि आप विमान से लेकर टैक्सी तक की बात करें तो यह सफर लगभग डेढ़-पौने दो किलोमीटर का हो जाता है।
अब भारतीय सिम ने काम करना आरम्भ कर दिया था। इसलिए विजय ने सैलफोन पर ऊबर की टैक्सी बुक की। हमें टैक्सी पकड़ने के लिए काफी दूर तक चलना पड़ा। टैक्सी का ड्राइवर एक हरियाणवी जवान था। उसने कोई प्रयास नहीं किया कि वह हमें देखे, उसे ढूंढने की सारी जिम्मेदारी हम पर ही थी। अंततः ड्राइवर हमें मिला, उसने हमें विलम्ब के लिए उलाहना दिया तथा टैक्सी का पिछला दरवाजा खोलकर खड़ा हो गया।
मैंने उससे कहा- ‘सामान टैक्सी के भीतर जमाओ।’
ड्राइवर ने बहुत तेज आवाज में जवाब दिया- ‘ये मेरा काम नहीं है। अपने आप रखो सामान।’
मैंने कहा- ‘सामान तो टैक्सी ड्राइवर ही जमाता है, हम तो तुम्हें उठाकर दे सकते हैं।’
वह बोला- ‘मैं तेरा नौकर नहीं हूँ। गाड़ी का मालिक हूँ मैं!’
अजीब बदतमीज आदमी था। उसने तो बदतमीजी के मामले में रोम वाला टैक्सी ड्राइवर भी पीछे छोड़ दिया था। विजय ने नाराज होकर कहा- ‘हमें तेरी टैक्सी में नहीं जाना है, मैं बुकिंग कैंसिल कर रहा हूँ।’
वह बोला- ‘इसी में तुम सबकी भलाई है।’ वह जोर से दरवाजा बंद करके अपनी टैक्सी लेकर चला गया। आसपास खड़े ड्राइवर चुपचाप तमाशा देखते रहे। भारत में आते ही कितने कड़वे शब्दों से स्वागत हुआ था! विजय ने टैक्सी की बुकिंग कैंसिल करके ऊबर के एप पर ड्राइवर की शिकायत लॉज की तथा तत्काल दूसरी टैक्सी बुक की।
हमने दूसरी टैक्सी वाले को रास्ते में बताया कि किस प्रकार पहली टैक्सी वाले ने हमसे बदतमीजी की तो वह बोला- ‘अजी ये रोज का काम हो लिया। कोई मेव भाई होगा। उनकी बड़ी कम्पलेन आ रही है। आपसे तो कड़वा ही बोला है, ये तो मारपीट भी कर लें तो कोई बड़ी बात थोड़े ही है।’
हमने इस बदतमीजी का कारण पूछा तो वह बोला- ‘ये कोई ड्राइवर थोड़े ना हैं। इन्हें तो ये गाड़ी शाद्दी में मिली है, दहेज में। इब कोई रोजगार तो है ना। लड़की इसलिए मिल गई कि इनके बाप-दादों की ज्जमीनों के भाव हो गए करोड़ों में। लड़की के बाप ने दहेज में ये गाड्डी दे दी। इब के करेगा! टैक्सी में ई तो लगायगा!’
तो यह थी मेरे भारत महान् की महान् नंगी सच्चाई! अजीब सी बेरोजगारी है यहाँ, लोगों की जेबों में पैसा तो है किंतु बेरोजगारी और बदतमीजी भी प्रचुर मात्रा में है! लोग काम ढूंढते हैं किंतु काम के लिए आवश्यक कौशल प्राप्त नहीं करते! यहाँ तक कि ग्राहक से व्यवहार करने का सामान्य तरीका भी नहीं सीखते। जब टैक्सी घर के सामने जाकर रुकी तब तक पौ फटने में कुछ ही देर रह गई थी।
इस समय सवा चार बज रहे थे। घर पहुँचते ही सब सो गए। सुबह आंख खुली तो भारत की घड़ियों में सुबह के पौने सात बज रहे थे। इटली में तो इस समय रात के सवा तीन ही बज रहे होंगे किंतु शरीर की घड़ी संभवतः अपने देश की घड़ियों को पहचान गई थी।
सारा श्रेय मधु एवं भानु को!
यह विदेश यात्रा इसलिए संभव हो सकी थी क्योंकि हमें यात्रा के दौरान भोजन सम्बन्धी कोई कष्ट नहीं हुआ था। इस सफलता का सारा श्रेय मधु और भानु को जाता है। यदि हम पिज्जा और पास्ता के भरोसे इटली गए होते तो हमें यह यात्रा बीच में ही छोड़कर आनी पड़ती। हम पिज्जा और पास्ता तो खा सकते थे किंतु जिन दुकानों में भेड़, बकरी और सूअर के मांस पकते और बिकते थे, वहाँ से कुछ भी लेकर हम कैसे खा सकते थे! भोजन स्वयं बनाने के कारण हम यात्रा के व्यय को भी नियंत्रण में रख सके थे।
हस्ती मिट रही है हमारी!
कुछ धूर्त किस्म के लोग शब्दों का आडम्बर खड़ा करके ऐसी मिथ्या और सारहीन बातें तैयार करते हैं जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता किंतु वे बातें उस देश के चालाक राजनीतिज्ञों द्वारा जनता में पवित्र मंत्रों की तरह फैलाई जाती हैं तथा कुछ ही दिनों में वे गलत बातें राष्ट्रीय अस्मिता और जातीय अभिमान की प्रतीक बनकर दैवीय उपलब्धि बन जाती हैं और देश की जनता आज्ञाकारिणी भेड़ों की तरह उन पवित्र मंत्रों को प्रतिदिन दोहराती है। ऐसा ही एक मंत्र है- ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा!’
भारत की आजादी से पहले डॉ. इकबाल ने लिखा था- ‘यूनान मिस्र रोम सब मिट गए जहाँ से, है बाकी अब तक नामओ निशाँ हमारा! कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर ए जहाँ हमारा!’
कितनी झूठी और मक्कारी भरी बात है यह! भारत की जनता इस गीत को गाते समय गर्व से अपना सीना फुला लेती है, हैरत होती है ऐसे लोगों को देखकर!
हम अपनी आंखों से देख आए हैं कि यूनान, रोम और मिस्र आज भी वहीं खड़े हैं, जहाँ वे थे। यदि संसार में सबसे ज्यादा कोई देश मिटा है तो वह भारत है जिसके 18 टुकड़े हो गए- 1. ईरान, 2. अफगानिस्तान, 3. पाकिस्तान, 4. भारत, 5. नेपाल, 6. भूटान, 7. तिब्बत, 8. बांगलादेश, 9. बर्मा, 10. थाइलैण्ड, 11. श्रीलंका, 12. इण्डोनेशिया, 13. मलेशिया, 14. ब्रुनेई, 15. मेडागास्कर, 16. वियतनाम, 17. कम्बोडिया और 18. मालदीव।
कुछ इतिहासकार तो इनकी संख्या 24 बताते हैं। इनमें से 7 टुकड़े तो अंग्रेजों ने ही भारत से तोड़कर अलग किए। ये देश भारत से टूट-टूट कर अलग हुए, कभी राजनीतिक कारणों से, कभी भौगोलिक कारणों से तो कभी सांस्कृतिक कारणों से।
ये देश भारत के हिस्से उस काल में थे जब पूरी दुनिया पाँच बड़ी सभ्यताओं में विभक्त थी- 1. रोमन साम्राज्य, 2. मिस्र साम्राज्य, 3. भारतीय उपमहाद्वीप के हिन्दू राज्य, 4. चीन का हान साम्राज्य, 5. शेष दुनिया।
ऊँट भले ही सुईं की नोक में प्रवेश कर जाए!
इटली के शहरों में पर्यटकों की भारी भीड़ लगी रहने के कारण यहाँ के नागरिकों के जीवन में स्थाई व्यवधान उत्पन्न हो गया है। प्रत्येक वस्तु महंगी हो गई है। भीड़ के कारण नागरिकों का अपने घरों एवं गलियों से बाहर निकलना कठिन हो गया है। इसलिए बहुत से नागरिक अपने पुराने घरों को छोड़कर बाहरी कॉलोनियों में शिफ्ट हो गए हैं तथा कुछ नागरिक उन शहरों में चले गए हैं जहाँ पर्यटकों की आवाजाही नहीं होती।
इटलीवासियों के देखकर समझ में आता है कि पर्यटन एवं पूंजीवाद एक सीमा तक ही किसी देश के लिए अनुकूल हो सकते हैं। बीमा पर जोर देना, अत्यधिक पर्यटन को बढ़ावा देना, करों में वृद्धि करना, सरकारी सेवाओं के शुल्क बढ़ाना, नागरिकों के जीवन में कानूनों तथा सरकारी नियमों का हस्तक्षेप बढ़ाना पूंजीवादी व्यवस्था के ‘साइड इफैक्ट्स’ हैं।
भारत इस समय इसी दिशा में बढ़ रहा है। गरीबी में जीना मानवता के प्रति अपराध है किंतु गरीब के लिए जिंदगी जीने के अवसर कम करना प्रकृति और ईश्वर दोनों के प्रति अपराध है। देश की अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें न तो किसी को गरीबी में जीना पड़े और न किसी गरीब को अपने जीवन से निराश होना पड़े।
मानव जीवन को सुख, आनंद, उमंग और उत्साह से भरने के लिए पैसा ही एकमात्र आवश्यकता नहीं है। सांस्कृतिक उदारता भी बहुत कम धन में, राष्ट्र के लोगों के जीवन को सुखी बना सकती है। महंगी शराब, महंगे पिज्जा और तरह-तरह के मांस एवं अण्डों के भोजन गरीबों को जीवन जीने की सुविधाओं से दूर करते हैं।
जबकि शुद्ध शाकाहारी सात्विक भोजन, सादा कपड़े, कम धन में भी जीवन को सुखी बना सकते हैं। सामुदायिक सेवाओं में वृद्धि करने से आम आदमी कम धन में जीवन व्यतीत करने में सफल हो सकते हैं। एक बार टॉयलेट जाने के लिए 80 से 160 रुपए वसूलने वाले देश में कोई भी गरीब आदमी जीवित कैसे रह सकता है!
कम धन अर्जित करने के लिए झूठ, चोरी, मक्कारी, फरेब का सहारा नहीं लेना पड़ता और यह सब किए बिना अधिक धन कैसे अर्जित किया जा सकता है! एकाकी परिवारों को अपनी दैनंदिनी पर अधिक धन व्यय करना पड़ता है जबकि संयुक्त परिवार कम पैसों में जीवन जीने की सुविधा देते हैं। ईसा मसीह ने शायद यही सब बातें सोचकर कहा होगा कि ऊँट भले ही सुईं की नोक में प्रवेश कर जाए किंतु कोई अमीर व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता!
अंत में फ्लोरेंस के एक चर्च के पैनल में बने दृश्य का स्मरण करना चाहूंगा जिसमें एक धनी-सामंत का पुत्र ईसाई संत होकर भिक्षु का जीवन जीने की इच्छा व्यक्त करता है। वह भिखारी बन जाता है और जब उसकी मृत्यु होती है तो स्वर्ग से देवदूत उसे लेने के लिए आते हैं। इस संत को रोम के कैथोलिक समाज में ईसा मसीह जैसा ही आदर दिया जाता है।
भारत में भी महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी के आदर्श हमारे सामने हैं जहाँ ये राजकुमार भिक्षुओं का जीवन जिए और समाज को आडम्बर-रहित, विलासिता-रहित जीवन जीने के उपदेश देते रहे। भारतीय संस्कृति के महानायक राम और कृष्ण इसलिए कालजयी बन पाए क्योंकि एक ने 14 वर्ष तक वनों में निवास करके वनवासियों के लिए संघर्ष किया और दूसरे ने अपने जीवन का प्रारम्भिक हिस्सा गायों की सेवा करने के लिए ग्वाले के रूप में बिताया। सोने के पालनों में पलने वाले लोग किसी भी देश में, किसी भी संस्कृति में नायक नहीं बन सके!
ईसाई धर्म का मूल भी सादगी एवं आडम्बर रहित जीवन जीने में है किंतु इटली सहित यूरोप के कुछ देशों ने पूंजीवाद का विस्तार किया और साम्राज्यवाद को पूंजीवाद के औजार के रूप में प्रयुक्त किया। इस कारण सदियों से आधी दुनिया शोषण, अत्याचार और निर्धनता की शिकार रही है।
यदि यूरोपीय देश भारत से धन छीनकर नहीं ले गए होते तथा सादगी से रहे होते तो आज भारत में गरीबी नहीं होती और यूरोप-वासियों को अपने बेटे-पोतों से अलग-थलग एकाकी जीवन नहीं जीना पड़ता। भारत में अहिंसा, शाकाहार, सादगी, उच्च विचार, स्वदेशी आदि पर जोर दिए जाने का अर्थ पूंजीवाद से दूर जाना है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
सादगी और सरलता पर खड़ी है भारतीय संस्कृति!
भारतीय जीवन में सादगी कितनी गहराई से प्रतिष्ठित है, इसके ढेरों उदाहरण भारत के बड़े नेताओं के आचरण में देखी जा सकती है। मदन मोहन मालवीय, लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, जॉर्ज फर्नाण्डीस आदि के जीवन भारतीय सादगी के महानतम् उदाहरण हैं।
मदनमोहन मालीवय कपड़े धोने से लेकर भोजन बनाने तक, अपना सारा काम स्वयं करते थे। लाल बहादुर शास्त्री, नेहरू का दिया हुआ पुराना कोट पहन कर ताशकंद गए थे जिसका कॉलर फटा हुआ था। जॉर्ज फर्नाण्डीस अपने कपड़े स्वयं धोते थे और उन पर कभी इस्तरी नहीं करते थे। एक बार दिल्ली के एक बहुमंजिला इमारत में बम विस्फोट हुआ। उस फ्लैट में भारत के पूर्व-प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा रहते थे। उस समय अपराह्न के तीन बजे थे। 82 वर्ष के नंदा इसलिए जीवित बच गए क्योंकि वे स्नानघर में बैठे हुए कपड़े धो रहे थे!
आप चाय वापस ले जाइए!
पुराने नेताओं की सादगी आज भी हमारे सार्वजनिक जीवन से नष्ट नहीं हुई है। इसका उदाहरण अरुण जेटली के जीवन में हुई एक घटना में देखा जा सकता है। जब वे भारत के वित्तमंत्री थे, तब उन्होंने किसी एयरपोर्ट पर चाय मंगवाई, जब उन्होंने उस चाय का दाम पूछा तो अरुण जेटली को उसके इतने अधिक दाम सुनकर आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि-‘नहीं मैं इतनी महंगी चाय नहीं पी सकता, आप वापस ले जाइए!’
यदि आज हुआ होता वह ईसाई संत!
भारतीय सादगी के ठीक उलट, इटली में दो सौ रुपए लीटर के भाव से पानी तो खरीद कर पीना ही पड़ता है, लघुशंका से निवृत्त होने के लिए भी एक बार में एक व्यक्ति को अस्सी से एक सौ साठ रुपए तक देने पड़ते हैं। यदि रोम का वह राजकुमार जो ईसाई संत होकर भिखारी का जीवन जीता था, आज रोम में पैदा हुआ होता तो उसे पानी पीने और लघुशंका जाने की सुविधा तक उपलब्ध नहीं होती! हमने कैसी दुनिया का निर्माण किया है!
वी कान्ट डू, एज द रोमन्स डू!
पूरी दुनिया में एक कहावत कही जाती है- ‘व्हैन इन रोम, डू एज द रोमन्स डू!’ यह कहावत रोमन सभ्यता की उच्चता और उनके दंभ को प्रदर्शित करती है। संभवतः इस कहावत का निर्माण उस समय हुआ होगा जब यूरोपवासियों ने प्राचीन भारत और उसके निवासियों को नहीं देखा होगा। रोमन लोगों के इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति में मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा कि एक भारतीय, रोम में जाकर वैसा बर्ताव करे जैसा कि रोम के लोग करते हैं।
यह केवल दंभोक्ति प्रतीत होती है। रोम की बजाय भारतीयों के हृदय अधिक उदार हैं। रोम में बूढ़ी आबादी विशेषकर वृद्ध औरतें अधिक दिखाई देती हैं जो इस बात की गवाही देती हैं कि उन्हें गृहस्थी बसाने की अपेक्षा स्वेच्छारी और एकाकी जिंदगी अधिक पसंद है। ऐसा समाज संसार के लिए आदर्श कैसे हो सकता है जिसमें बच्चों की किलकारियों के लिए स्थान नहीं हो! यही कारण है कि आज इटली के मूल लोगों की जनसंख्या गिर रही है। वहाँ दूसरे देशों के लोग आकर बस रहे हैं।
हमारे अनुभव केवल हमारे हैं!
इस पुस्तक में लिखे गए अनुभव नितांत हमारे हैं। निश्चित रूप से अन्य पर्यटकों को हमसे बिल्कुल अलग अनुभव होते होंगे, अच्छे भी और बुरे भी! अतः यह तो नहीं कहा जा सकता कि पोप का देश बिल्कुल वैसा ही है, जैसा हमें दिखाई दिया किंतु जैसा हमें दिखाई दिया, वैसा पूरी ईमानदारी के साथ लिख दिया गया है, बिना किसी राग-द्वेष अथवा पूर्वाग्रह के!