23 अप्रेल को हमें जावा द्वीप से विदाई लेने का दिन था। आज भी मैं प्रातः 6 बजे चाय पीने होटल की लॉबी में आया तो मुस्कुराहट से भरी वही लड़की, कल वाले स्थान पर खड़ी हुई अतिथियों का चाय पर स्वागत कर रही थी। आज हमें जकार्ता से नई दिल्ली के लिए हवाई जहाज पकड़ना था। मैं दीपा को अपने साथ ले आया था। उसने दीपा से हाथ मिलाया।
मैं दीपा को उसके पास छोड़कर चाय के लिए बढ़ गया। इसी बीच विजय भी वहीं आ गया। हमने रिसेप्शन काउंटर पर खड़े युवक से एयरपोर्ट के लिए होटल की तरफ से उपलब्ध कराई जाने वाली फ्री कैब सर्विस के बारे में पूछा। उसने बताया कि दो सर्विस हैं- प्रातः सात बजे और प्रातः आठ बजे। आप जिसमें जाना चाहें, उसे अभी बुक करा लें। इस समय साढ़े छः बज चुके थे। हमने सात बजे वाली कैब बुक कर ली। केवल पैंतीस मिनट में हम सब तैयार होकर नीचे आ गए। कैब हमारी ही प्रतीक्षा कर रही थी। होटल पॉप से जकार्ता एयरपोर्ट केवल दो किलोमीटर दूर है। उसने लगभग 7.20 पर हमें इण्टरनेशनल टर्मिनल पर छोड़ दिया।
जकार्ता एयर पोर्ट पर
हमारी फ्लाइट 11.30 बजे थी। यह ‘इण्डोनेशिया एयर एशिया’ की इण्टरनेशनल फ्लाइट थी जो हमें कुआलालम्पुर छोड़ने वाली थी और वहाँ से हमें नई दिल्ली के लिए दूसरी फ्लाइट लेनी थी। एयर पोर्ट पर पहुंचकर हमने सबसे पहला काम करेंसी बदलने का किया। हमारी जेब में रखी इण्डोनेशियाई करंसी आगे कुछ काम नहीं आने वाली थी। हमने एक काउण्टर पर इण्डोनेशियाई करंसी देकर डॉलर ले लिए क्योंकि यदि हम भारतीय मुद्रा प्राप्त करने का प्रयास करते तो हमें अधिक शुल्क देना पड़ता। डॉलर को भारत में आसान दरों पर भारतीय रुपए में बदला जा सकता है। करंसी एक्सचेंज की यह प्रक्रिया अपनाने से काफी बचत होती है। हमने एयरपोर्ट पर बोर्डिंग करने से पहले ही बाहर वेटिंग रूम में नाश्ता करने का विचार किया क्योंकि यदि हम अंदर जाने की प्रक्रिया आरम्भ कर देते तो उसमें कम से कम दो घण्टे लगने थे। मधु और भानु ने अभी सुबह की चाय भी नहीं पी थी और न ही दीपा ने दूध पिया था।
जकार्ता एयर पोर्ट
यह एक बहुत बड़ा एयर पोर्ट है, काफी साफ-सुथरा और आधुनिक कम्प्यटराईज्ड उपकरणों से सुसज्जित। जकार्ता में वायु-सेवाएं ई.1928 से आरम्भ हो गई थीं। पुराना एयरपोर्ट छोटा होने के कारण ई.1985 में नया एयरपोर्ट बनाया गया। इसे सुकार्णो हात्ता इण्टरनेशनल एयरपोर्ट कहा जाता है। यह संसार का सातवां सर्वाधिक एयर कनैक्टिविटी वाला एयरपोर्ट है तथा जकार्ता-सिंगापुर एयर रूट से जुड़ा हुआ है जो कि संसार के सर्वाधिक व्यस्त एयर-रूट में से एक है। इस एयरपोर्ट से प्रतिवर्ष 3.70 लाख हवाई उड़ानें होती हैं जिनमें 5.87 करोड़ यात्री विश्व भर की यात्रा करते हैं तथा 3.42 लाख मैट्रिक टन कार्गो ढोया जाता है। नाश्ता करने और चाय पीने के बाद हमने बोर्डिंग औपचारिकताएं आरंभ कीं जिनमें लगभग 2 घण्टे लग गए। कुछ समय टर्मिनल पर विश्राम करने को भी मिल गया। ठीक 11.30 बजे हमारी फ्लाइट ने जकार्ता की धरती छोड़ दी। यह हमारी न केवल जकार्ता से अपिुत जावा से और इण्डोनेशिया से भी विदाई थी। जब हम कुआलालम्पुर एयर पोर्ट पर उतरे तो हमारी घड़ियों में दोपहर के ढाई बजे थे। कुआलालम्पुर का समय जकार्ता से एक घण्टा आगे होने के कारण हमें इस यात्रा में वास्तव में तीन नहीं अपितु दो घण्टे ही लगे थे। कुलालालम्पुर एयरपोर्ट भी जकार्ता एयरपोर्ट की तरह चमचमाता हुआ और शानदार है। यहाँ से अगली फ्लाईट मलेशियाई समय के अनुसार सायं 7.00 बजे मिलनी थी। इसलिए हमने यह समय एयरपोर्ट देखने में व्यतीत किया।
सारा नजारा उलट गया
हमने यहाँ कुछ फल लेने का निश्चय किया किंतु भाव सुनकर फल खरीदने का उत्साह जाता रहा। अब तक हम 1 भारतीय रुपए में 200 इण्डोनेशियन रुपए की दर से रुपया इस्तेमाल करने के अभ्यस्त हो गये थे किंतु यहाँ हमें 15 भारतीय रुपयों के बदले 1 मलेशियन रुपए की दर से खरीदरारी करनी थी जिसे रिंग्गिट कहते हैं। कुआलालम्पुर एयरपोर्ट पर सामान्य आकार का एक भारतीय सेब छः रिंग्गिट या डेढ़ डॉलर या नब्बे भारतीय रुपए का था जबकि भारत में हमें यह 20 से 25 भारतीय रुपए में मिलता है। इसकी अपेक्षा चाय काफी सस्ती थी। एक कप चाय हमें 75 भारतीय रुपए में मिल गई। यहाँ चारों तरफ एक अजीब सी गंध फैली हुई थी। हमने अनुमान लगाया कि यह अवश्य ही मछलियों और झींगों के उबाले जाने से निकलती होगी। इसलिए चाय हलक के नीचे बड़ी कठिनाई से नीचे उतर पाई।
दीपा की भूख
देखते ही देखते शाम के 7 बज गए और हमें नई दिल्ली के लिए फ्लाईट मिल गई। हवाई जहाज फिर से समुद्रों के ऊपर उड़ान भरने लगा। यह 10.30 बजे दिल्ली पहुंचने वाली थी किंतु इस उड़ान में वास्तव में हमें साढ़े पांच घण्टे लगने वाले थे। एक घण्टे बाद दीपा रोने लगी। लगभग एक घण्टे तक उसे लड्डू, मठरी, खाखरे, बिस्कुट आदि से बहलाने का प्रयास किया गया। भानु ने उसे मिल्क पाउडर से दूध बनाकर दिया किंतु वह चुप नहीं हुई। अंत में विजय ने एयरहोस्टेस से उबले हुए चावल का एक डिब्बा लेने का निर्णय किया। चावल देखकर दीपा खुश हो गई।
इधर दीपा चावल खाती जा रही थी और उधर अंधेरे आकाश में, हमारा हवाई जहाज धरती से लगभग तीस हजार फुट ऊपर, एक हजार किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से समुद्रों के ऊपर उड़ा जा रहा था। जाने कितने समुद्र, जाने कितने द्वीप, जाने कितने देश और जाने कितने लोग जो हमें दिखाई नहीं दे रहे थे किंतु वे सब थे और उनके ऊपर से होकर हवाई जहाज पूरे वेग से उड़ रहा था। मैंने विचार किया, इन अंधेरों, इन समुद्रों और इन दूरियों के बीच तरह-तरह की संस्कृतियां हँसती-मुस्कुराती हैं। मुझे याद आ रहे थे तेजी से पीछे छूटते बाली द्वीप के वे निर्धन हिन्दू जिनके पास गाय नहीं है, गंगाजी नहीं हैं, दूध-घी की नदियां नहीं हैं। गेहूं नहीं है, फिर भी वे इन सब चीजों से प्रेम करते हैं क्योंकि वे स्वयं को हिन्दू मानने और कहने में गर्व की अनुभूति करते हैं और इस अनुभूति को जीवित रखने के लिए हजारों साल से संघर्ष कर रहे हैं किंतु दुनिया की किसी भी संस्कृति को उनकी इस अनुभूति की किंचिंत परवाह नहीं है, यहाँ तक कि गाय, गंगा और गेहूं के देश में रहने वाले भारत को भी नहीं।
हम बाली द्वीप के हिन्दुओं को अजायबघर में रखी वस्तुओं की नुमाइश की तरह देखने जाते हैं और अपने देश में आकर फिर से अपनी ही जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं। कौन जाने बाली के हिन्दू कब तक इस संघर्ष को जीवित रख सकेंगे! मैंने यह प्रश्न स्वयं से इसलिए भी किया कि जब हजारों साल तक हिन्दू धर्म की छांव में रहने वाले जावा के हिन्दू, इस्लाम को अपनाकर श्रीकृष्ण की प्रतिमा के ‘घटत कच’ होने का अनुमान लगाते हैं तब हमें यह पता लग जाता है कि उन्हें बाली द्वीप के हिन्दुओं से कितनी सहानुभूति है।