Thursday, November 21, 2024
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9. लवणासुर ने राजा मांधाता को दिव्य त्रिशूल से नष्ट कर दिया!

राजा मांधाता की कथा वायुपुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भागवत पुराण, मत्स्य पुराण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में मिलती है। इन कथाओं के अनुसार ईक्ष्वाकुवंशी राजा युवनाश्व सतयुग का अंतिम राजा था।

विष्णु पुराण के अनुसार अयोध्या नरेश युवनाश्व निःसंतान था। च्यवन ऋषि की सलाह पर राजा युवनाश्व ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। जब यज्ञ सम्पन्न हुआ, तब तक बहुत रात्रि व्यतीत हो चुकी थी। अतः समस्त ऋषिगण यज्ञ से अभिमंत्रित जल को एक घड़े में रख कर सो गये। रात्रि में राजा युवनाश्व को प्यास लगी और उन्होंने घड़े में से जल लेकर पी लिया। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि इस घड़े में अभिमंत्रित जल है। जब ऋषियों की आंख खुली तो उन्होंने देखा कि घड़ा पूर्णतः रिक्त है तथा उसमें अभिमंत्रित जल नहीं है।

ऋषियों ने वहाँ उपस्थित समस्त लोगों से जल के बारे में पूछा। इस पर राजा युवनाश्व ने बताया कि वह जल मैंने पी लिया! ऋषियों ने राजा से कहा कि अब उन्हीं की कोख से एक बालक जन्म लेगा।

जब इस घटना को एक सौ साल बीत गए, तब अश्विनीकुमारों ने राजा युवनाश्व की बायीं कोख फाड़कर एक बालक को बाहर निकाला। इस अवसर पर स्वर्ग के अन्य देवता भी उपस्थिति हुए। देवताओं ने कहा कि यह तो एक पुरुष से उत्पन्न बालक है, यह क्या पिएगा? इस पर देवराज इंद्र ने अपनी तर्जनी अंगुली बालक के मुंह में डालकर- माम् अयं धाता। अर्थात् यह मुझे ही पीयेगा। इस कारण बालक का नाम मांधाता पड़ गया।

देवराज इन्द्र की अंगुली पीते-तीते वह बालक तेरह हाथ जितना बड़ा हो गया। इस दिव्य बालक ने चिंतनमात्र से धनुर्वेद सहित समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इंद्र ने उसका राज्याभिषेक किया।

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राजा मांधाता ने अपने धर्म से तीनों लोकों को नाप लिया। एक बार जब राजा मांधाता के राज्य में बारह वर्ष तक वर्षा नहीं हुई तो राजा ने देवराज इन्द्र से वर्षा करने के लिए कहा किंतु देवराज इन्द्र ने राजा मान्धाता के तप-बल की परीक्षा करने के लिए धरती पर वर्षा नहीं की। इस पर राजा मांधाता ने इंद्र के सामने ही धरती पर वर्षा करके अपनी प्रजा के प्राणों की रक्षा की।

राजा मांधाता ने अंगार, मरूत, असित, गय तथा बृहद्रथ आदि अनेक राजाओं को परास्त करके अपने राज्य का विस्तार किया। उसका राज्य इतना बड़ा हो गया कि सूर्याेदय होने से लेकर सूर्यास्त होने तक सूर्य भगवान जितने प्रदेश में गमन करते थे, उतना प्रदेश राजा मांधाता के अधीन था। राजा मांधाता ने सौ अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करके दस योजन लंबे और एक योजन ऊंचे रोहित नामक सोने के मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणों को दान दिए।

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राजा मांधाता ने दीर्घकाल तक धर्मपूर्वक राज्य करने के उपरांत भगवान श्री हरि विष्णु के दर्शनों के निमित्त घनघोर तपस्या की। भगवान विष्णु ने इंद्र का रूप धारण करके तथा मरुतों को अपने साथ लेकर, राजा मांधाता को दर्शन दिए। राजा ने कहा कि मैं अब राज्य त्यागकर वन में जाना चाहता हूँ। इस पर भगवान विष्णु ने राजा मांधाता को क्षत्रियोचित कर्म का निर्वाह करते रहने का उपदेश दिया तथा मरुतों सहित अंतर्धान हो गए।

ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार मांधाता राजा भगवान श्री हरि विष्णु के मनुष्य-अवतार थे। कुछ पुराणों में आई कथाओं के अनुसार वे महाराज युवनाश्व और महारानी गौरी के पुत्र थे। यदुवंशी नरेश शशबिंदु की राजकन्या बिंदुमती राजा मांधाता की रानी थीं जिसे चैत्ररथी भी कहते थे। रानी बिंदुमती से मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न हुईं। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा मांधाता की पचास पुत्रियों का विवाह सौभरि नामक ऋषि से हुआ था। सौभरि ऋषि ने अपने योगबल से अपनी पत्नियों के निवास के लिए स्फटिक के महल बनवाए तथा उन महलों में सब प्रकार के सुख-संसाधन उपलब्ध करवाए। सौभरि ऋषि अपने योग बल से अपनी समस्त पत्नियों के साथ कुछ न कुछ दिन अवश्य व्यतीत करते थे। इन राजकन्याओं से सौभरि ऋषि को 150 संतानें प्राप्त हुईं।

एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा मांधाता संपूर्ण पृथ्वी को जीतकर स्वर्ग भी जीतना चाहते थे। राजा के इस विचार से देवराज इंद्र सहित समस्त देवता चिंतित हुए। उन्होंने राजा मांधाता को आधे स्वर्ग का राज्य देना चाहा परन्तु उन्होंने आधे देवलोक का राज्य स्वीकार नहीं किया। वे संपूर्ण इंद्रलोक के राजा बनने के इच्छुक थे।

देवराज इंद्र ने कहा- ‘हे राजन! अभी तो सम्पूर्ण पृथ्वी भी आपके अधीन नहीं है, मधुवन का राजा लवणासुर आपका आदेश नहीं मानता और आप सम्पूर्ण देवलोक पर आधिपत्य मांग रहे हैं!’

देवराज का यह उपालम्भ सुनकर राजा मांधाता लज्जित होकर मृत्युलोक में लौट आए। उन्होंने दैत्यराज लवणासुर के पास दूत भेजकर कहलवाया कि या तो लवणासुर राजा मान्धाता की अधीनता स्वीकार करे अन्यथा युद्ध के लिए तैयार रहे। लवणासुर ने राजा मांधाता के दूत का भक्षण कर लिया। इस पर दोनों ओर की सेनाओं में भीषण युद्ध आरम्भ हो गया।

लवणासुर के पास उसके पिता दैत्यराज मधु द्वारा दिया गया एक दिव्य त्रिशूल था जो मधु को भगवान शिव से प्राप्त हुआ था। राजा मांधाता को इस दिव्य त्रिशूल की जानकारी नहीं थी, इसलिए उसने बिना सोचे-समझे लवणासुर पर आक्रमण कर दिया और वह धोखे से मार दिया गया। लवणासुर ने अपने त्रिशूल से न केवल राजा मांधाता को अपितु उसकी सम्पूर्ण सेना को भी भस्म कर दिया। इस प्रकार देवराज इन्द्र ने युक्ति से काम लेकर राजा मांधाता को नष्ट करवा दिया जो सम्पूर्ण देवलोक पर आधिपत्य करने का आकांक्षी था।

पुराणों में ऐसी बहुत सी कथाएं हैं जिनमें यह बताया गया है कि जिस किसी भी मनुष्य ने सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने का प्रयास किया अथवा स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने का उद्यम किया, उसका शीघ्र ही सर्वनाश हो गया। राजा मांधाता के काल की सबसे बड़ी घटना यह है कि उसके शासन काल में ही धरती पर सतयुग समाप्त होकर त्रेता युग आरम्भ हुआ था।

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