ई.1451 में दिल्ली का सुल्तान अल्लाउद्दीन आलमशाह सैयद दिल्ली छोड़कर बदायूं चला गया तथा लाहौर एवं सरहिंद के सूबेदार बहलोल लोदी ने दिल्ली के तख्त पर अधिकार कर लिया। इसके साथ ही दिल्ली से सैयद वंश की सदा के लिए विदाई हो गई तथा दुर्दांत लोदी दिल्ली के राजनीतिक मंच पर भूमिका निभाने आ गए।
लोदियों को अफगान तथा पठान भी कहा जाता था। ये लोग उस पर्वतीय प्रदेश के निवासी थे जो भारत तथा ईरान के बीच में मुल्तान तथा पेशावर से लेकर पश्चिम में सुलेमान पर्वत तथा गजनी तक फैला हुआ है। यहाँ के लोग लम्बे कद, गोरे रंग तथा बलिष्ठ शरीर के होेते थे। कठिन जीवन जीने के कारण ये लोग बड़े लड़ाका तथा दुःसाहसी प्रवृत्ति के होते थे तथा कई कबीलों में विभक्त थे।
इनमें से कुछ कबीले इज्राइल के लोगों की संतान माने जाते हैं किंतु वे स्वयं को यहूदी न मानकर मुसलमान ही मानते हैं। इन कबीलों में किसी विशेष कबीले की प्रमुखता नहीं थी। पशुपालन तथा घोड़ों का व्यापार इन कबीलों का मुख्य व्यवसाय था।
इनकी आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी इसलिए ये अपने धनी पड़ौसियों को लूटते थे। बहुत से अफगान जीवन यापन करने के लिए तुर्क सुल्तानों की सेना में भर्ती हो जाते थे। भारत के तुर्क सुल्तान उन्हें अपनी सेना में तो भर्ती करते थे किंतु हेय दृष्टि से देखे जाने के कारण उन्हें शासन में उच्च पद नहीं देते थे।
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भारत में प्रथम अफगान साम्राज्य की स्थापना बहलोल लोदी ने की थी। बहलोल के पिता का नाम मलिक काला था जो दौराबा का शासक था। जब बहलोल अपनी माता के गर्भ में था तब एक दिन घर की छत गिर पड़ी और उसकी माता छत के नीचे दबकर मर गई। मलिक काला ने तुरन्त अपनी स्त्री का पेट चिरवा कर बच्चे को बाहर निकलवा लिया। बच्चे का नाम बहलोल रखा गया।
कुछ समय बाद एक युद्ध में मलिक काला की भी मृत्यु हो गई। इस प्रकार बहलोल बचपन में ही माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो गया। उसका पालन-पोषण उसके चाचा सुल्तानशाह ने किया जो सरहिन्द का गर्वनर था। बहलोल की प्रतिभा से प्रभावित होकर सुल्तानशाह ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार सुल्तानशाह की मृत्यु के उपरान्त बहलोल सरहिन्द का गवर्नर बन गया। उसने स्वयं को दिल्ली साम्राज्य से स्वतन्त्र घोषित कर दिया।
सैयद वंश के सुल्तानों के समय में बहलोल लोदी की शक्ति में बहुत वृद्धि हुई। सुल्तान अल्लाउद्दीन आलमशाह के शासनकाल में प्रधानमन्त्री हमीद खाँ ने बहलोल लोदी को दिल्ली का तख्त लेने के लिए आमन्त्रित किया। इस प्रकार ई.1451 में बहलोल लोदी दिल्ली का सुल्तान बन गया। बहलोल लोदी वीर तथा साहसी सुल्तान था। दिल्ली के तख्त पर बैठते ही उसने अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए मन्त्री हमीद खाँ को कारागार में डाल दिया। बहलोल ने शासन के प्रमुख पदों पर अपने विश्वस्त अफगान अधिकारियों को नियुक्त किया।
बहलोल लोदी ने अपने अधीनस्थ सरहिंद तथा लाहौर के क्षेत्र भी पुनः दिल्ली सल्तनत में मिला लिए तथा इस क्षेत्र में किलों की रक्षा के लिए योग्य अफगान सेनापतियों को नियुक्त किया। दिल्ली के निकटस्थ प्रान्तों तथा जिलों में भी उसने अत्यन्त विश्वासपात्र अफगानों को नियुक्त किया। इस प्रकार शासन के प्रमुख पदों पर तुर्कों की जगह अफगान छा गए।
दिल्ली में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद बहलोल लोदी ने पंजाब को संगठित और सुव्यवस्थित किया। इसके बाद बहलोल ने जौनपुर के शर्की शासक पर आक्रमण किया। बहलोल को जौनपुर के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा किंतु अंत में उसने जौनपुर पर अधिकार कर लिया और अपने पुत्र बारबकशाह को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया।
बहलोल लोदी दिल्ली सल्तनत के साधारण अमीर की हैसियत से ऊपर उठकर सुल्तान बना था, इसलिए उसने सुल्तान बनने के बाद भी अन्य अमीरों से बराबरी का व्यवहार किया। वह अक्सर कहा करता था कि मैं भी दिल्ली सल्तनत के अन्य अमीरों में से एक हूँ। वैसे भी अफगानी अमीरों में सुल्तान को स्वामी नहीं समझा जाता था।
जब कोई अफगान अमीर सुल्तान बहलोल लोदी से नाराज हो जाता था तो सुल्तान अपनी तलवार तथा पगड़ी निकाल कर उस अमीर के सामने रख देता था और कहता था कि यदि आपको मैं अयोग्य लगता हूँ तो आप मेरे स्थान पर किसी दूसरे अमीर को सुल्तान चुन लें। सुल्तान की यह बात सुनकर असंतुष्ट अमीरों का क्रोध कम हो जाता था।
जौनपुर पर प्रभुत्व स्थापित कर लेने से बहलोल लोदी की शक्ति बहुत बढ़ गई। उसने कालपी, धौलपुर तथा अन्य स्थानों पर भी अधिकार कर लिया। बहलोल ने ग्वालियर के विद्रोही हिन्दू राजा पर आक्रमण कर दिया और उसे कर देने के लिए बाध्य किया। ग्वालियर से लौटने के बाद ई.1489 में बहलोल लोदी ज्वर से पीड़ित हो गया तथा उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार वह ई.1451 से ई.1489 तक अर्थात् 38 वर्ष तक दिल्ली पर शासन कर सका।
तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार बहलोल लोदी वीर तथा साहसी सेनानायक था। वह दिल्ली में लोदी वंश की सत्ता का संस्थापक था। उसका व्यक्तिगत जीवन बहुत अच्छा था। वह विश्वसनीय, स्वामिभक्त, उदार तथा दयालु व्यक्ति था। इस्लाम में उसकी बड़ी निष्ठा थी। वह दम्भ तथा आडम्बर से दूर रहता था। उसे सज-धज तथा ठाठ-बाट का शौक नहीं था। वह कभी किसी भिक्षुक को निराश नहीं करता था।
यद्यपि बहलोल स्वयं विद्वान् नहीं था परन्तु विद्वानों का आदर करता था और उन्हें प्रश्रय देता था। वह न्यायप्रिय शासक था। उसने दिल्ली सल्तनत के खोये हुए गौरव को एक बार फिर बढ़ाया तथा प्रांतीय शासकों को अपने अधीन करके उत्तरी भारत में राजनीतिक एकता स्थापित की।
बहलोल लोदी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सिकन्दर लोदी दिल्ली का सुल्तान हुआ। उसके बचपन का नाम निजाम खाँ था। सिकन्दर लोदी की माता एक सुनार स्त्री थी। सिकंदर लोदी का बचपन अपने पिता के साथ प्रायः दिल्ली में ही बीता था। वह रूपवान् तथा साहसी युवक था। अपने पिता के जीवन काल में वह अनेक उच्च पदों पर काम कर चुका था।
सिकंदर लोदी सरहिन्द के शासक के रूप में प्रांतीय शासन का, अपने पिता की अनुपस्थिति में राजधानी में रहकर केन्द्रीय शासन का तथा युद्ध के मैदान में रहकर सैन्य नेतृत्व का अनुभव प्राप्त कर चुका था। ई.1489 में बहलोल लोदी की मृत्यु के बाद अमीरों तथा सरदारों ने निजाम खाँ को सिकन्दर खाँ के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता