ब्रिटिश साम्राज्यवाद के इतिहास में 1848 ई. से 1856 ई. का काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। 1848 ई. में लॉर्ड हेनरी हार्डिंग के जाने के बाद लॉर्ड डलहौजी गवर्नर जनरल बनकर भारत आया और 1856 ई. तक इस पद पर रहा। लॉर्ड डलहौजी घोर साम्राज्यवादी था। उसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अंधाधुंध विस्तार किया। अपने आठ वर्ष के कार्यकाल में वह साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण करता रहा। उसे देशी राज्यों से तनिक भी सहानुभूति नहीं थी तथा भारतीय नरेशों एवं नवाबों से अत्यंत चिढ़ थी। इसलिये वह भारतीय राज्यों का अस्तित्त्व समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता था। उसके शासन काल में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की विस्मयकारी वृद्धि हुई तथा अनेक भारतीय राज्यों का अस्तित्त्व समाप्त हो गया। थॉम्पसन और गैरेट ने लिखा है- ‘डलहौजी के समय कम्पनी किसी भी बहाने राज्यों को हड़पने के ज्वार की लहर में थी।’
लॉर्ड डलहौजी के पूर्ववर्ती गवर्नर जनरलों ने देशी राज्यों पर अधिक-से-अधिक प्रभाव स्थापित करने की नीति अपनाई किंतु डलहौजी ने देशी राज्यों के प्रति भिन्न प्रकार की नीति अपनाई। डलहौजी के पूर्ववर्ती गवर्नर जनरलों ने साम्राज्य विस्तार उसी स्थिति में किया जब कोई विशेष सैनिक अथवा राजनैतिक आवश्यकता उत्पन्न हुई किन्तु डलहौजी ने हर-सम्भव उपाय से साम्राज्य विस्तार को अपना लक्ष्य बना लिया। डलहौजी की नीति की चर्चा करते हुए इतिहासकार इन्स ने लिखा है- ‘उसके पूर्ववर्ती गवर्नर जनरलों ने इस सामान्य सिद्धान्त का अनुसरण किया था कि जहाँ तक सम्भव हो, संयोजन (देशी राज्यों के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय) से बचा जाये, डलहौजी ने संयोजन करने के इस सिद्धान्त का अनुसरण किया कि जिस प्रकार भी हो सके राज्य विस्तार को उचित सिद्ध करके पूरा किया जाये।’
डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति के कारण
डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति के कई कारण थे-
(1.) डलहौजी का माना था कि भारतीय सहयोगियों से भारत में ब्रिटिश विजय को सरल बनाने का काम लिया जा चुका है, अब उनसे पिण्ड छुड़ा लेना लाभप्रद रहेगा।
(2.) इस समय तक देशी राज्यों पर कम्पनी की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी थी कि कम्पनी केवल धमकी देकर अपनी कोई भी बात मनवा सकती थी।
(3.) कम्पनी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शासित क्षेत्र, देशी राज्यों के क्षेत्र से छोटा था। डलहौजी इस अनुपात को बदलना चाहता था।
(4.) डलहौजी की मान्यता थी कि भारतीय शासक सर्वथा अयोग्य हैं और उनमें शासन करने की क्षमता नहीं है।
(5.) डलहौजी का कहना था कि ब्रिटिश प्रशासन, देशी नरेशों के प्रशासन से कहीं अधिक अच्छा है। उसने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकते हैं।
(6.) डलहौजी कम्पनी की आय में वृद्धि करना चाहता था किंतु उसकी धारणा थी कि भारत के देशी राज्यों में ब्रिटिश माल का निर्यात कम होने का मूल कारण उन राज्यों में भारतीय शासकों का कुप्रशासन है।
(7.) इस समय इंग्लैण्ड में उदारवादी विचारधारा का प्रभाव था। उदारवादियों की मान्यता थी कि भारतीय शासकों को मनमाने ढंग से शासन करने देने से राज्यों में भ्रष्टाचार तथा अव्यवस्था फैल रही है। जब तक इन राज्यों का शासन ब्रिटिश सरकार नहीं सम्भालेगी, तब तक भारत में न्याय और व्यवस्था स्थापित नहीं होगी।
(8.) डलहौजी कुछ सुधार योजनाएँ आरम्भ करना चाहता था जिनके लिए उसे धन की आवश्यकता थी।
(9.) इस समय यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति चल रही थी। ब्रिटेन के उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी और कच्चा माल भारतीय राज्यों से सरलता से मिल सकता था।
(10.) डलहौजी की महत्त्वाकांक्षा उसे साम्राज्य विस्तार के लिये प्रेरित कर रही थी। भारत में नियुक्ति के समय उसकी आयु केवल 36 वर्ष थी। उससे पूर्व कोई भी व्यक्ति इतनी कम आयु में गवर्नर जनरल नहीं बना था। इसलिये वह अत्यधिक महत्त्वकांक्षी था तथा भारत में साम्राज्य विस्तार करके इंग्लैण्ड में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता था।
साम्राज्य विस्तार के साधन
डलहौजी ने भारत में आते ही घोषणा की- ‘भारत के समस्त देशी राज्यों के अस्तित्त्व की समाप्ति कुछ समय की बात है।’ उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साम्राज्य का विस्तार करने के लिये चार प्रकार के साधन अपनाए-
(1.) युद्ध में परास्त करके: डलहौजी ने देशी राज्यों को युद्ध के मैदान में परास्त करके कम्पनी के राज्य का विस्तार करने की योजना बनाई। पंजाब और दक्षिणी बर्मा को युद्धों में परास्त करके ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया।
(2.) कर्ज की बकाया राशि की वसूली के नाम पर: डलहौजी ने राज्यों पर बकाया कर्ज की वसूली करने के लिये उनके क्षेत्रों को जब्त करना आरम्भ किया। हैदराबाद राज्य के बरार क्षेत्र को इसी प्रकार हड़पा गया।
(3.) शासक पर कुशासन का आरोप लगाकर: डलहौजी ने उन कमजोर राज्यों का अपहरण करने की नीति बनाई जिन पर कुशासन के आरोप लगाये जा सकते थे। अवध राज्य का अपहरण इसी आरोप में किया गया।
(4.) उत्तराधिकारी के लिये गोद लेने की प्रथा अमान्य करके: डलहौजी ने देशी राज्यों को हड़पने के लिये उत्तराधिकार अपहरण का सिद्धांत (Doctrine of lapse) का निर्माण किया। इसे व्यपगत का सिद्धांत भी कहते हैं। सतारा, नागपुर एवं झांसी के राज्य इसी सिद्धांत के आधार पर अपहृत किये गये।
गोद-निषेध नीति
भारत में प्राचीन काल से ही प्रत्येक हिन्दू को, औरस पुत्र न होने की स्थिति में किसी भी परिवार के बच्चे को गोद लेने का अधिकार था। दत्तक पुत्र को अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में ऐसे समस्त अधिकार प्राप्त हो जाते थे जो औरस पुत्र को प्राप्त होते थे। मध्यकाल में मुस्लिम सुल्तानों, मुगल बादशाहों और मराठों ने इस प्रथा को चालू रहने दिया। मुगल बादशाह तथा मराठे, किसी राजा के द्वारा दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित किये जाने पर उत्तराधिकारी से अधिक नजराना लेते थे परन्तु दत्तक पुत्र के अधिकारों को अस्वीकार नहीं करते थे। डलहौजी ने दत्तक पुत्र के उत्तराधिकार को अस्वीकार करके, देशी राज्यों को हड़पने का निर्णय लिया।
गोद लेने की परम्परा में कम्पनी की नीतियों में परिवर्तन
ईस्ट इण्डिया कम्पनी आरम्भ से ही, गोद लेने की प्रथा को स्वीकार करती रही थी। 1825 ई. में कम्पनी सरकार ने घोषित किया कि प्रत्येक शासक को हिन्दू कानून के अनुसार पुत्र गोद लेने का अधिकार है और कम्पनी सरकार इस अधिकार को स्वीकार करने के लिए बाध्य है। 1826 ई. से 1848 ई. की अवधि में पन्द्रह भारतीय शासकों द्वारा गोद लिये गये पुत्रों को राज्य का वैधानिक उत्तराधिकारी स्वीकार किया गया। 1831 ई. के बाद कम्पनी सरकार की नीति में परिवर्तन आने लगा। आरम्भ में कहा गया कि अधीनस्थ शासकों को उत्तराधिकारी गोद लेने से पूर्व कम्पनी सरकार की स्वीकृति लेनी चाहिये। फिर यह कहा गया कि कम्पनी को परिस्थितियों के आधार पर भारतीय शासक की गोद लेने की प्रार्थना को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का अधिकार है। 1834 ई. में कम्पनी के संचालक मण्डल ने इस विषय पर नीति तय करते हुए कहा कि- ‘यह साधारण नियम नहीं होना चाहिये। यह मान्यता हमारी विशेष कृपा के रूप में ही होनी चाहिये, सामान्य परिस्थितियों में नहीं।’
1848 ई. तक, गोद लेने के सम्बन्ध में कम्पनी सरकार की नीति अधिक स्पष्ट नहीं रही। अनेक अवसरों पर कम्पनी ने भारतीय शासकों द्वारा गोद लिये गये लड़कों के उत्तराधिकार को पूर्णतः स्वीकार कर लिया जबकि कुछ अवसरों पर उसने विरोध भी किया। कुछ अवसर ऐसे भी आये, जबकि शासक किसी बच्चे को गोद लेने के पहले ही मर गया और उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा ने किसी को गोद लिया और कम्पनी ने उसके उत्तराधिकार को भी मान्यता प्रदान कर दी। उदाहरणार्थ, 1827 ई. में ग्वालियर के शासक दौलतराव सिन्धिया की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था और वह किसी बच्चे को गोद नहीं ले पाया। उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा बैजाबाई ने जनकोजी को गोद लिया। कम्पनी ने उसके उत्तराधिकार को मान्यता प्रदान की। 1843 ई. में जनकोजी की मृत्यु हो गई। उसके भी कोई पुत्र नहीं था। उसकी मृत्यु के बाद दौलतराव सिंधिया की विधवा ने जयाजीराव को गोद लिया। इस बार भी कम्पनी ने उसके उत्तराधिकार को मान्यता प्रदान की।
दूसरी तरफ कुछ ऐसे उदाहरण भी थे जबकि कम्पनी सरकार ने गोद लेने के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। उदाहरणार्थ, 1835 ई. में झाँसी के राजा रामचन्द्र की मुत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था। मरने से पूर्व उसने एक लड़के को गोद लिया परन्तु इसके लिए उसने कम्पनी सरकार से स्वीकृति नहीं ली। उसकी मृत्यु के बाद दत्तक पुत्र के उत्तराधिकार को नहीं माना गया और मृत राजा के चाचा रघुनाथराव को उत्तराधिकार की मान्यता दी गई। 1841 ई. में जब कोलाबा के शासक राघोजी ने कम्पनी सरकार से, बच्चा गोद लेने की स्वीकृति माँगी तो उसे मना कर दिया गया और उसकी मृत्यु के बाद उसके राज्य को कम्पनी क्षेत्र में मिला लिया गया। इस प्रकार मांडवी के छोटे-से राज्य को भी अँग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था। स्पष्ट है कि डलहौजी के पूर्व, गोद लेने के अधिकार के बारे में कम्पनी सरकार किसी सुनिश्चित नीति का अनुसरण नहीं कर रही थी।
व्यपगत का सिद्धांत (Doctrine of lapse)
डलहौजी ने गोद लेने की प्रथा के बारे में अधिक उग्र नीति का सहारा लिया। उसने घोषणा की कि यदि कोई शासक किसी बालक या व्यक्ति को गोद लेता है तो ब्रिटिश सरकार को उसके उत्तराधिकारी को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने की पूरी स्वतंत्रता है। यदि कम्पनी उसका उत्तराधिकार स्वीकार नहीं करती है तो कम्पनी उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला सकती है। डलहौजी का कहना था कि सामान्य नागरिक द्वारा गोद लिया गया पुत्र अपने पिता की व्यक्तिगत सम्पत्ति का उत्तराधिकारी हो सकता है किन्तु किसी शासक द्वारा गोद लिया गया पुत्र राज्य पर शासन करने का स्वाभाविक अधिकारी नहीं हो सकता। दत्तक पुत्र उसी स्थिति में राज्य का शासक हो सकता है जबकि भारत की सर्वोपरि सत्ता की हैसियत से ब्रिटिश सरकार उसे राज्य का उत्तराधिकारी स्वीकार कर ले।
डलहौजी ने इस नीति को घोषित तो कर दिया किंतु उसने प्रत्येक देशी राज्य के साथ अलग नीति लागू की। इसलिये उसकी नीति को अवसरवादी कहा जाता है, क्योंकि उसने इस नीति के लिये जिन आधारों को तैयार किया था, वे अस्पष्ट थे और उनके बारे में अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार कम्पनी में निहित था। उसका मुख्य आधार स्वयं उसी के द्वारा किया गया, देशी राज्यों का वर्गीकरण था। उसने समस्त भारतीय हिन्दू राज्यों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया-
(1.) स्वतंत्र: स्वतंत्र राज्यों की श्रेणी में उन देशी राज्यों को रखा गया जो भारत में कम्पनी की सत्ता की स्थापना के समय अस्तित्त्व में थे और जिन्हें आन्तरिक प्रभुसत्ता प्राप्त थी तथा जिनके साथ सन्धियाँ करते समय कम्पनी ने उनकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार किया था।
(2.) आश्रित: आश्रित श्रेणी के अन्तर्गत उन राज्यों को रखा गया, जो आरम्भ से ही किसी-न-किसी सत्ता के अधीन थे और जो कम्पनी के साथ सन्धि करने के पूर्व मुगल बादशाह अथवा पेशवा को खिराज देते थे। झाँसी का राज्य, कम्पनी से संधि करने से पहले पेशवा के अधीन था, इसलिये उसे आश्रित राज्य की श्रेणी में रखा गया।
(3.) अधीन: इस श्रेणी के अन्तर्गत उन राज्यों को रखा गया, जिनका निर्माण कम्पनी ने किया था अथवा कम्पनी की सहायता से जिन्हें पुनः संगठित किया गया था। मैसूर का पुनर्गठित हिन्दू राज्य इसी प्रकार का था।
जब इंग्लैण्ड में डलहौजी की गोद-निषेध नीति की आलोचना होने लगी तो उसने स्पष्ट किया कि उसका निश्चय, समस्त राज्यों पर इस नीति को लागू करने का नहीं है। पहली श्रेणी के स्वतंत्र शासकों को गोद लेने का अधिकार है और गवर्नर जनरल इस अधिकार को मान्यता प्रदान करता रहेगा। दूसरी श्रेणी के राज्यों को गोद लेने से पूर्व कम्पनी सरकार की स्वीकृति लेनी होगी, जो अस्वीकार भी की जा सकती है। तीसरी श्रेणी के राज्यों को गोद लेने का अधिकार नहीं होगा और उनके राज्य कम्पनी राज्य में सम्मिलित कर लिये जायेंगे।
वस्तुतः डलहौजी का यह वर्गीकरण अस्पष्ट तथा जटिल था। किस राज्य को किस श्रेणी में रखा जाये, इसका निर्णय गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर करता था। यह सारी व्यवस्था भारत के देशी राज्यों को हड़पने के लिए एक बहाना मात्र थी। राजस्थान के करौली राज्य को हड़पने के लिए डलहौजी ने उसे दूसरी श्रेणी में रखा परन्तु कम्पनी के संचालक मण्डल ने उसे पहली श्रेणी के अन्तर्गत माना, जिससे करौली राज्य बच गया। इससे स्पष्ट है कि यह वर्गीकरण डलहौजी ने राज्यों को हड़पने की नीति के औचित्य को सिद्ध करने के लिए ही बनाया था।
गोद निषेध नीति के अन्तर्गत विलीन किये गये राज्य
गोद निषेध नीति के अन्तर्गत जिन राज्यों को कम्पनी के राज्य में सम्मिलित किया गया, वे इस प्रकार से थे-
सतारा
पेशवा बाजीराव (द्वितीय) के पतन के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने सतारा का छोटा सा राज्य शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दिया था। 1839 ई. में कम्पनी सरकार ने प्रतापसिंह को अपदस्थ करके उसके भाई अप्पा साहब को सतारा का शासक बनाया। 1848 ई. में अप्पा साहब की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था परन्तु उसने अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व वेंकटराव नामक लड़के को गोद लिया। जब डलहौजी के समक्ष वेंकटराव के उत्तराधिकार को मान्यता देने का प्रकरण रखा गया तो डलहौजी ने उसके उत्तराधिकार को अमान्य करते हुए 1848 ई. में सतारा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। 1818 ई. में सतारा के साथ अँग्रेजों ने जो सन्धि की थी, उसमें सतारा के शासक की ‘स्वतंत्र सार्वभौमिकता’ और इस स्थिति को निरन्तर बनाये रखना स्वीकार किया था। इस दृष्टि से सतारा प्रथम श्रेणी का राज्य था परन्तु डलहौजी ने उसे एक आश्रित राज्य मानकर उसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। डलहौजी के इस कदम की इंग्लैण्ड में काफी निन्दा हुई परन्तु डलहौजी कम्पनी की आय में वृद्धि करना चाहता था। इससे कम्पनी की सुरक्षा-व्यवस्था भी मजबूत हो सकती थी और बम्बई-कलकत्ता के मध्य का राजमार्ग भी खोला जा सकता था। सेना के आवागमन की व्यवस्था की दृष्टि से भी सतारा का क्षेत्र उपयोगी था। इन्हीं बातों से प्रेरित होकर डलहौजी ने सतारा को हड़प लिया था।
जैतपुर
बुन्देलखण्ड में 165 वर्गमील क्षेत्रफल वाला जैतपुर नामक छोटा राज्य था। जैतपुर के शासक ने गवर्नर जनरल से, उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति देने की प्रार्थना की। डलहौजी ने उसे स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया और शासक की मृत्यु के बाद 1849 ई. में जैतपुर को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।
सम्बलपुर
बंगाल की दक्षिण-पश्चिम सीमा पर सम्बलपुर का छोटा राज्य था। यहाँ के शासक नारायणसिंह के कोई पुत्र नहीं था और न ही उसने किसी बच्चे को गोद लिया। 1849 ई. में नारायणसिंह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा रानी ने स्वयं शासन चलाने की स्वीकृति माँगी परन्तु डलहौजी ने उसके अधिकार को मान्यता नहीं दी और सम्बलपुर को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।
बाघट
पंजाब की सीमा में बाघट नामक छोटा पहाड़ी राज्य था। 1849 ई. में बाघट के शासक विजयसिंह की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था और न ही उसने किसी लड़के को गोद लिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई उम्मेदसिंह ने अपना उत्तराधिकार प्रस्तुत किया परन्तु डलहौजी ने उसके उत्तराधिकार को अमान्य करते हुए, बाघट को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। डलहौजी के उत्तराधिकारी केनिंग ने डलहौजी के निर्णय को रद्द करके बाघट का राज्य उम्मेदसिंह के पुत्र को सौंप दिया।
उदयपुर
मध्य प्रदेश की सीमा में उदयपुर नामक राज्य स्थित था। इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग 2,000 वर्गमील था। यहाँ के शासक के निःसन्तान मरने पर डलहौजी ने इस राज्य को भी ब्रिटिश राज्य में मिला लिया परन्तु केनिंग ने यहाँ भी डलहौजी के निर्णय को बदलकर यह राज्य वापिस लौटा दिया।
झाँसी
बुन्देलखण्ड के मध्य में झाँसी का राज्य स्थित था जो सामारिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण था। 1818 ई. की सन्धि के द्वारा झाँसी ने कम्पनी का संरक्षण प्राप्त किया था। उस सन्धि में झाँसी के राजा रामचन्द्रराव के वंशानुगत अधिकार (अर्थात् उसके परिवार के पीढ़ी-दर-पीढ़ी अधिकार) को स्वीकार किया गया था। 1835 ई. में रामचन्द्रराव की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था और मरने के पहले उसने जिस बच्चे को गोद लिया था उसका उत्तराधिकार कम्पनी सरकार ने मान्य न करके रामचन्द्रराव के चाचा रघुनाथराव को झाँसी का राजा बनाया। 1838 ई. उसकी भी मृत्यु हो गई। इस बार भी दत्तक पुत्र के स्थान पर रघुनाथराव के भाई गंगाधरराव को झाँसी का राजा बनाया गया। 1853 ई. में गंगाधरराव की भी मृत्यु हो गई। उसके भी कोई पुत्र नहीं था। मृत्यु से पहले गंगाधरराव ने आनन्दराव नामक एक बच्चे को गोद ले लिया और झाँसी के अँग्रेज रेजीडेण्ट को बुलाकर उससे अनुरोध किया कि वह बच्चे के उत्तराधिकार की स्वीकृति के लिए गवर्नर जनरल को पत्र लिखे। डलहौजी ने झाँसी को एक आश्रित राज्य बताया और झाँसी के राजा द्वारा किसी बच्चे को गोद लेने के अधिकार को मान्य नहीं किया। फरवरी 1854 में उसने झाँसी को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। इस प्रकार 1818 ई. से 1838 ई. के मध्य दो बार झांसी के शासक को उत्तराधिकारी गोद लेने के अधिकार को अमान्य किया गया, फिर भी झाँसी को कम्पनी राज्य में न मिलाकर राजवंश के ही निकटतम दावेदार को झाँसी का राज्य सौंप दिया गया। डलहौजी भी ऐसा कर सकता था परन्तु उसने विलय की नीति अपनाई।
नागपुर
नागपुर का राज्य 80,000 वर्गमील क्षेत्र में फैला हुआ था। इसकी आय लगभग 40 लाख रुपया वार्षिक थी। नागपुर पर अधिकार हो जाने से कम्पनी अपने बिखरे हुए क्षेत्रों को संगठित कर सकती थी और हैदराबाद से लेकर मध्य भारत तक के क्षेत्र को एक इकाई में संगठित किया जा सकता था। इससे बम्बई से कलकत्ता के मध्य का सम्पूर्ण क्षेत्र कम्पनी के सीधे नियंत्रण में आ सकता था जिससे व्यापार की वृद्धि होने की सम्भावना थी। इन्हीं सम्भावनाओं को देखते हुए डलहौजी ने नागपुर को हड़पने का निश्चय किया। 1818 ई. में कम्पनी सरकार ने नागपुर के प्रसिद्ध भौंसले राज्य को अपने संरक्षण में लिया था। सन्धि के अनुसार भोंसले राजवंश के बालक रघुजी भोंसले (तृतीय) को नागपुर का शासक स्वीकार किया गया था। 1830 ई. में जब रघुजी (तृतीय) वयस्क हो गया, तो उसने राज्य का शासन सम्भाल लिया। उसके कोई पुत्र नहीं था। रघुजी ने नागपुर स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट से किसी बच्चे को गोद लेने हेतु गवर्नर जनरल से अनुमति माँगने को कहा परन्तु रेजीडेण्ट रघुजी की बात टालता रहा। 1853 ई. में रघुजी (तृतीय) की मृत्यु हो गई तथा वह अपने जीवनकाल में किसी लड़के को गोद न ले सका। डलहौजी ने किसी अन्य दावेदार के उत्तराधिकार को स्वीकार न करके 1854 ई. में नागपुर को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। नागपुर एक स्वतंत्र राज्य था परन्तु डलहौजी ने इसे भी आश्रित राज्य ठहराया तथा यह तर्क दिया कि राज्य के विलीनीकरण से राज्य के निवासियों के हितों की सुरक्षा हो सकेगी परन्तु अँग्रेज अपने अधिकृत क्षेत्रों में देशी शासकों की तुलना में अच्छा प्रशासन लागू करने में असफल रहे, जिससे चारों तरफ असंतोष फैल गया।
गोद-निषेध नीति की समीक्षा
अँग्रेज इतिहासकारों के अनुसार गोद-निषेध नीति तीन सिद्धान्तों पर आधारित थी-
(1.) भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी सर्वोच्च शक्ति थी।
(2.) अधीन राज्यों को गोद लेने का अधिकार सर्वोच्च शक्ति की स्वीकृति से ही वैध माना जा सकता था।
(3.) सर्वोच्च शक्ति इस स्वीकृति को रोक सकती थी, क्योंकि उसे ऐसा करने का अधिकार था।
जहाँ तक पहले सिद्धांत अर्थात् ब्रिटिश सर्वोच्चता का प्रश्न है, इसका औचित्य केवल यही था कि भारत में अँग्रेज सर्वशक्तिमान थे, इसलिये वे सर्वोच्च थे। यह औचित्य केवल शक्ति पर आधारित था, तर्क पर नहीं। अँग्रेजों ने भारत में जो अधिकार प्राप्त किये थे वे या तो युद्धों में विजयों द्वारा, या अनुदानों द्वारा या सन्धियों द्वारा प्राप्त किये थे। इस प्रकार प्राप्त किये गये अधिकारों से सार्वभौमिकता का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता था। अँग्रेजों के आने से पहले मुगल बादशाह को सार्वभौमिकता के अधिकार प्राप्त थे किन्तु मुगल बादशाह ने न तो कभी इस प्रकार राज्यों का अपहरण किया और न मुगल बादशाह ने कभी अपनी सार्वभौमिकता कम्पनी को हस्तान्तरित की। अतः ब्रिटिश सरकार द्वारा दिया गया सर्वोच्चता अथवा सार्वभौमिकता का सिद्धान्त आधारहीन था।
दूसरे सिद्धांत के आधार पर, अधीन और सहयोगी राज्यों के बीच तथा अधीन और आश्रित राज्यों के बीच भेद स्थापित करना केवल भ्रम उत्पन्न करना था। डलहौजी का यह सिद्धांत उचित नहीं था कि अँग्रेजों ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किन्हीं राज्यों का निर्माण किया था। क्योंकि प्रत्येक राज्य किसी-न-किसी स्थिति में पहले से ही भारत में विद्यमान था। जहाँ तक गोद लेने के लिये सर्वोच्च सत्ता की स्वीकृति की बात है, यह समझना बहुत ही कठिन है कि कम्पनी ने किन परिस्थितियों में और कैसे यह अधिकार प्राप्त किया। ली वार्नर ने मुगल बादशाह या मराठा पेशवा की सार्वभौमिकता के आधार पर इस अधिकार की चर्चा की है किन्तु मुगल बादशाह या मराठा पेशवा ने कभी भी इस अधिकार का प्रयोग नहीं किया। मुगल बादशाह नये उत्तराधिकारियों से, चाहे वह औरस पुत्र हो अथवा दत्तक, नजराना अवश्य प्राप्त करता था किंतु मुगल बादशाह या पेशवा की सार्वभौमिकता में कोई ऐसा उदारहण नहीं मिलता जहाँ औरस पुत्र न होने पर राज्य समाप्त हो जाये। अतः अँग्रेजों का यह मनगढ़न्त अधिकार, जो उन्होंने स्वतः ही ग्रहण कर लिया था, सर्वथा अनुचित था।
तीसरा सिद्धान्त कि सर्वोच्च सत्ता, गोद लेने की स्वीकृति रोक सकती थी, भी सर्वथा गलत है। हिन्दुओं ने मुगलों को इस प्रकार के अधिकार कभी नहीं दिये। 1757 ई. से लेकर 1831 ई. तक अँग्रेजों ने भी हिन्दू शासकों द्वारा उत्तराधिकारी गोद लेने पर कभी आपत्ति नहीं की। 1831 ई. में कम्पनी ने पहली बार यह कहा कि जो गोद लेने की स्वीकृति देता है, उसे अस्वीकृत करने का भी अधिकार है। अंग्रेंजों ने भारतीय शासकों से जो सन्धियाँ की थीं, उनमें यह उल्लेख नहीं किया गया था कि सर्वोच्च सत्ता को गोद लेने की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति का अधिकार है। कम्पनी ने इस प्रकार का कोई कानून भी नहीं बनाया था।
अँग्रेज इतिहासकारों ने यह भी कहा कि इस नीति से भारतीय राज्यों के लोगों की बड़ी प्रसन्नता हुई थी, क्योंकि भारतीय राज्यों की प्रजा ने ब्रिटिश शासन को राजाओं के अत्याचारों से बचने का उपाय माना था किन्तु नागपुर, झाँसी आदि राज्यों के लोगों का 1857 ई. के विप्लव में सक्रिय भाग लेना इस बात का प्रमाण है कि इन राज्यों के लोगों को गोद-निषेध नीति से प्रसन्नता नहीं हुई, अपितु वे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यही कारण था कि विप्लव के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राजाओं द्वारा गोद लेने के अधिकार को मान्यता दी।
खिताबों और पेंशनों की समाप्ति
डलहौजी ने अनेक भूतपूर्व राजाओं के खिताबों को मानने तथा उन्हें पेंशन देने से इन्कार कर दिया। कर्नाटक तथा सूरत के नवाबों तथा तंजोर के राजा के खिताब समाप्त कर दिये गये। पेशवा बाजीराव (द्वितीय) को अँग्रेजों ने बिठुर का राजा बनाया था किंतु 1852 ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर उसके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेंशन देने से मना कर दिया।
पंजाब के सिक्ख राज्य की समाप्ति
16 नवम्बर 1848 को डलहौजी ने जनरल गफ के नेतृत्व में एक सेना भेजी जिसने रावी नदी पार करके रामनगर, चिलियांवाला तथा गुजराल नामक स्थानों पर सिक्खों से युद्ध लड़े। इन युद्धों में मिली विजय के बाद 29 मार्च 1849 को सम्पूर्ण पंजाब का अँग्रेजी राज्य में विलय कर लिया गया। महाराजा दिलीपसिंह को 50 हजार पौण्ड की वार्षिक पेंशन देकर शिक्षा प्राप्ति के लिये इंगलैण्ड भेज दिया गया जहाँ उसने सिक्ख धर्म का त्याग करके ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। इस समय कोहिनूर हीरा सिक्खों के पास था। अँग्रेजों ने कोहिनूर छीनकर महारानी विक्टोरिया के पास भेज दिया। मेजर इवांस बैल ने लिखा है- ‘पंजाब का विलय कोई विलय नहीं था, यह तो विश्वासघात था।’
सिक्किम का विलय
1850 ई. में डलहौजी ने सिक्किम के राजा को हटाकर, सिक्किम को अँग्रेजी राज्य में मिला लिया।
हैदराबाद राज्य के बरार क्षेत्र का अपहरण
इंग्लैण्ड में कपास की मांग बढ़ती जा रही थी जिसकी पूर्ति भारत से की जानी थी। इसलिये डलहौजी ने हैदराबाद के बरार क्षेत्र को हड़पने का निर्णय लिया जो कि प्रमुख कपास उत्पादक क्षेत्र था। उसने हैदराबाद राज्य पर बकाया कर्ज के आरोप में 1853 ई. में बरार क्षेत्र को स्थाई रूप से कम्पनी क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया।
अवध राज्य का अपहरण
बक्सर की लड़ाई (1764 ई.) के बाद से ही अवध के नवाबों ने कम्पनी के लिये कभी चुनौती खड़ी नहीं की थी किंतु ब्रिटेन में कपास की मांग लगातार बढ़ रही थी। इस कारण डलहौजी अवध के कपास उत्पादक क्षेत्र को कम्पनी के क्षेत्र में सम्मिलित करने के लिये प्रेरित हुआ। मैनचेस्टर की वस्तुओं के लिये बाजार के रूप में अवध की विशाल सम्भावनाओं ने भी डलहौजी के लोभ को उभारा। इसलिये डलहौजी ने अवध के नवाब वाजिदअली शाह पर राज्य का गलत ढंग से प्रशासन करने तथा सुधार लाने से इन्कार करने का आरोप लगाया तथा 1856 ई. में अवध राज्य को कम्पनी राज्य में मिला लिया। यद्यपि यह आरोप सही था कि अवध के नवाब की भोग-विलास की प्रवृत्ति के कारण अवध का शासन जनता के लिये दर्दनाक वास्तविकता बन गया था तथापि सच्चाई यह भी थी कि 1801 ई. से अवध का शासन अँग्रेज अधिकारी ही चला रहे थे।
डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति का अंतिम परिणाम
यह सत्य है कि डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति और गोद-निषेध नीति से कम्पनी के साम्राज्य में अतुल्य विस्तार हुआ, कम्पनी की आय में भारी वृद्धि हुई, इंगलैण्ड की वस्तुओं को विशाल भारतीय बाजारों की प्राप्ति हुई तथा भारतीय कपास को अधिक से अधिक मात्रा में मैनचेस्टर में भेजा जाना संभव हुआ किंतु कम्पनी की यही सफलता उसके लिये अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुई क्योंकि कम्पनी की नीतियों से उत्पन्न असंतोष के कारण भारत में व्यापक स्तर पर 1857 की क्रांति हुई जिसके बाद इंग्लैण्ड सरकार ने भारत का शासन कम्पनी से छीनकर अपने हाथों में ले लिया।
निष्कर्ष
भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना एवं विस्तार एक दीर्घ काल तक चली प्रक्रिया थी जिसमें कभी मंद गति से तो कभी तेज गति से साम्राज्य विस्तार का कार्य चलता रहा। साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार का क्रम इस प्रकार से रहा-
(1.) सबसे पहले, कम्पनी ने दक्षिण भारत में अपने व्यापारिक हितों के लिए प्रादेशिक लाभ प्राप्त किये।
(2.) इसके बाद कम्पनी ने बंगाल में अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिए 1757 ई. में प्लासी और 1764 ई. में बक्सर के युद्ध लड़े और वहाँ प्रादेशिक लाभ प्राप्त किये।
(3.) 1773 ई. में रेगुलेटिंग एक्ट लागू होने के बाद वारेन हेस्टिंग्ज ने इस एक्ट की अपवाद सम्बन्धी धारा का उपयोग करके मैसूर के शासक हैदरअली और मराठों से युद्ध किया। हैदरअली से तो कम्पनी को कोई क्षेत्रीय लाभ प्राप्त नहीं हुआ किन्तु मराठों से कम्पनी को सालसेट और भड़ौंच के क्षेत्र प्राप्त करने में सफलता मिली।
(4.) 1784 ई. में ब्रिटिश संसद ने पिट्स इण्डिया एक्ट पारित करके कहा कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन करेगी। एक्ट में यह भी प्रावधान किया गया कि गवर्नर जनरल को आपातकाल में, कौंसिल के बहुमत की स्वीकृति प्राप्त किये बिना भी कार्य करने के विशेष अधिकार होंगे।
(5.) कार्नवालिस (1786-1793 ई.) ने यद्यपि पिट्स इण्डिया एक्ट में घोषित अहस्तक्षेप की नीति का अवलम्बन किया किन्तु उसने मैसूर के शासक टीपू से युद्ध लड़कर मैसूर राज्य के मलाबार, कुर्ग और बारामहल के क्षेत्र छीन लिये।
(6.) लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई.) ने सहायक सन्धि की प्रथा को जन्म देकर कम्पनी द्वारा किये जा रहे साम्राज्य विस्तार के काम को तेजी से आगे बढ़ाया।
(7.) हेस्टिंग्ज (1813-1823 ई.) ने गोरखों और पिण्डारियों का दमन किया, मराठा-संघ-राज्य भंग किया तथा राजपूत राज्यों से अधीनस्थ संधियाँ करके उन्हें अपने प्रभाव में लिया।
(8.) एमहर्स्ट ने 1826 ई. में भरतपुर के किले पर अधिकार कर लिया। विलियम बैंटिक ने 1831 ई. में मैसूर राज्य में एक ब्रिटिश कमिश्नर की नियुक्ति की तथा 1832 ई. में बंगाल के उत्तर पश्चिम की छोटी सी रियासत कछार को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। उसने 1834 ई. में कुर्ग के शासक को अयोग्य घोषित करके उस पर नियंत्रण कर लिया।
(10.) लॉर्ड एलनबरो ने 1843 ई. में सिंध राज्य पर कब्जा कर लिया।
(11.) डलहौजी ने डॉक्टराइन ऑफ लैप्स के माध्यम से सतारा, नागपुर, झांसी आदि राज्य हड़प लिये। उसने हैदराबाद राज्य का बरार प्रांत, सिक्किम तथा अवध आदि राज्यों को भी ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसने सिक्खों के राज्य को समाप्त करके ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।
(12.) इस प्रकार 1856 ई. में डलहौजी के वापस जाने तक लगभग पूरा भारत या तो ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष शासित क्षेत्र का हिस्सा बन चुका था अथवा अधीनस्थ संधियों के द्वारा जकड़ लिया गया था। इस कारण पूरे भारत में अँग्रेजों के विरुद्ध असंतोष की ज्वाला भड़कने लगी थी।