जार्ज बार्लो (1805-07 ई.)
वेलेजली के जाने के बाद 1805 ई. में लॉर्ड कार्नवालिस दूसरी बार गवर्नर जनरल बनकर भारत आया किन्तु कुछ ही दिनों बाद गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गई तथा जार्ज बार्लो गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। चूँकि कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने वेलेजली की नीति का अनुमोदन नहीं किया था, अतः उसने अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया।
राजपूत राज्यों से सहायक संधियाँ निरस्त: जार्ज बार्लो ने वेलेजली द्वारा सम्पादित राजपूत राज्यों से हुई सन्धियों को रद्द कर दिया। जोधपुर महाराजा मानसिंह ने 1805 तथा 1806 ई. में पुनः अँग्रेजों से संधि के प्रस्ताव भेजे किंतु वे स्वीकृत नहीं हुए। नवम्बर 1808 में बीकानेर महाराजा सूरतसिंह ने एल्फिंस्टन से अनुरोध किया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी बीकानेर राज्य को अपने संरक्षण में ले किंतु एल्फिंस्टन ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
हैदराबाद की संधि निरस्त करने से इन्कार: एक तरफ तो बार्लो अहस्तक्षेप की नीति अपना रहा था तथा राजपूत राज्यों से हुई संधियाँ निरस्त कर रहा था जबकि दूसरी तरफ उसने हैदराबाद के निजाम के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिसमें निजाम ने सहायक सन्धि से मुक्त होने की इच्छा व्यक्त की।
बसीन की संधि निरस्त करने से इन्कार: बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने बार्लो को बार-बार निर्देश दिये कि वह बसीन की सन्धि निरस्त कर दे किन्तु बार्लो ने साम्राज्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ऐसा नहीं किया।
अर्ल ऑफ मिण्टो (1807-13 ई.)
1807 ई. में लॉर्ड मिण्टो गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसके समय में भी अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया गया किंतु कम्पनी के लिये अधिक समय तक इस नीति पर चलना संभव नहीं था। लॉर्ड क्लाइव ने कम्पनी की गतिविधियों को बंगाल तक सीमित रखने का जो तर्क दिया था, अब वह अप्रासंगिक हो चुका था। इसलिये मिण्टो ने कम्पनी राज्य की सुरक्षा के लिये कुछ नई संधियाँ कीं।
महाराजा रणजीतसिंह से संधि: लॉर्ड मिण्टो ने महाराजा रणजीतसिंह के साथ 1809 ई. में अमृतसर की सन्धि की तथा रणजीतसिंह को सतलज पार के प्रदेशों तक बढ़ने से रोक दिया।
सिंध के अमीरों से संधि: लॉर्ड मिण्टो ने 1809 ई. में सिन्ध के अमीरों से सन्धि करके सिन्ध प्रदेश में कम्पनी के लिए अनेक व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कर लीं।
लॉर्ड हेस्टिंग्ज द्वारा अहस्तक्षेप की नीति का त्याग
लार्ड मिण्टो के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्ज (1813-23 ई.) को गवर्नर जनरल बनाकर भारत भेजा गया। 4 अक्टूबर 1813 को हेस्टिंग्ज कलकत्ता पहुँचा। उसके कार्यकाल में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार की प्रक्रिया पुनः आरम्भ की गई। वेलेजली ने अनुभव किया कि यदि कम्पनी के राज्य को भारत में अक्षुण्ण रखना है तो उसे साम्राज्य विस्तार की नीति पर ही चलना पड़ेगा। उसके भारत आगमन के समय भारत में निम्नलिखित शक्तियाँ अत्यंत प्रखर हो गई थीं जिनसे कम्पनी के हितों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था-
(1.) मराठे: वेलेजली ने मराठों की शक्ति का दमन किया था किन्तु कार्नवालिस, बार्लो और मिण्टो की अहस्तक्षेप की नीति के कारण मराठों ने पुनः देशी राज्यों पर आक्रमण करके अपने प्रभाव में वृद्धि कर ली। लॉर्ड हेस्टिंग्ज के आगमन के समय मल्हारराव होलकर (द्वितीय) और दौलतराव सिन्धिया अत्यंत शक्तिशाली हो गये थे। उन्होंने दक्षिण भारत के साथ-साथ मध्य भारत तथा उत्तर भारत में भी प्रभुत्व जमा लिया था।
(2.) पिण्डारी: मराठों के सहायक पिण्डारी भी अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहे थे। पिण्डारी नेता अमीरखाँ अत्यधिक शक्तिशाली हो गया था। वह देशी रियासतों के साथ-साथ ब्रिटिश क्षेत्रों में भी लूटमार मचाये हुए था।
(3.) गोरखे: हिमालय की तराई में गोरखे अत्यधिक शक्तिशाली हो गये थे। उन्होंने कम्पनी राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण करना आरम्भ कर दिया था।
हेस्टिंग्ज द्वारा उठाये गये कदम
उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए लॉर्ड हेस्टिंगज ने अनुभव किया कि यदि भारत में कम्पनी की सत्ता को स्थायी बनाना है तो उसे अहस्तक्षेप की नीति का परित्याग कर कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित करना होगा। इसलिये उसने कम्पनी के शत्रुओं के विरुद्ध तेजी से कदम उठाये। उसके द्वारा किये गये प्रमुख कार्य इस प्रकार से हैं-
(1.) गोरखों का दमन (1814-1816 ई.): लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने सर्वप्रथम गोरखों की शक्ति को कुचलने के लिए गोरखों से युद्ध किया तथा नेपाल, कुमाउं, गढ़वाल, शिमला और सिक्किम आदि क्षेत्रों पर वर्चस्व स्थापित कर लिया। गोरखों ने फरवरी 1816 में संगोली की सन्धि स्वीकार कर ली।
(2.) पिण्डारियों का दमन (1816-1818 ई.): 1816 ई. में हेस्टिंग्ज ने पिण्डारियों को नष्ट करने की योजना बनायी। उसे भय था कि कहीं पिण्डारियों और मराठों के बीच कोई समझौता न हो जाये। इसलिये उसने पिण्डारियों के विरुद्ध अभियान आरम्भ करने से पूर्व 27 मई 1816 को मुधोजी भौंसले (द्वितीय) के साथ तथा 5 नवम्बर 1817 को दौलतराव सिन्धिया के साथ समझौते किये। इन समझौतों में भौंसले तथा सिन्धिया ने पिण्डारियों को कुचलने के लिए कम्पनी को समर्थन देने का वादा किया तथा सिन्धिया ने चम्बल नदी से दक्षिण-पश्चिम के राज्यों पर से अपना नियंत्रण हटा लिया। लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने 1,13,000 सैनिकों और 300 बंदूकों के साथ पिण्डारियों पर चारों ओर से धावा बोला। उत्तरी सेना का नेतृत्व लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने स्वयं किया। दक्षिणी सेना का नेतृत्व सर टॉमस हिलोप ने किया। मेल्कम ने पश्चिमी सेना का नेतृत्व किया। चारों तरफ से की गई कार्यवाही से 1818 ई. तक पिण्डारियों के दल बिखर गये। करीमखाँ ने गोरखपुर जिले में एक छोटी जागीर लेकर संधि कर ली। वसील मुहम्मद ने डरकर सिंधिया के यहाँ शरण ली किंतु सिंधिया ने उसे पकड़कर अँग्रेजों को सौंप दिया जहाँ उसने आत्महत्या कर ली। चीतू जंगलों में जा छिपा, जहाँ उसे जंगली शेर ने मार दिया। अमीरखाँ को राजपूताने में टोंक की जागीर दे दी गई तथा उसे नवाब घोषित किया गया। इस प्रकार पिण्डारियों का अंत हो गया।
(3.) मराठा संघ का विघटन: इन्दौर के शासक मल्हारराव होलकर (द्वितीय) ने तृतीय मराठा युद्ध (1817 ई.) में परास्त होकर मन्दसौर की सन्धि (जनवरी 1818) की जिसमें उसने सहायक सन्धि की समस्त शर्तें स्वीकार कीं। इस युद्ध के बाद मराठा-संघ-राज्य ध्वस्त हो गया। कम्पनी ने क्षत्रपति शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को सतारा की गद्दी पर बैठाकर उसके साथ एक सन्धि कर ली। इस प्रकार नागपुर, ग्वालियर, इन्दौर और सतारा के शासकों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।
(4.) राजपूत राज्यों की प्रति नीति: कम्पनी को अभी सिक्खों से निपटना था तथा अफगानिस्तान की ओर से होने वाले आक्रमणों का सामना करने के लिये सिन्ध पर भी प्रभुत्व जमाना था। इस कार्य में सहायता प्राप्त करने के लिये हेस्टिंग्ज ने राजपूत राज्यों से संधि करने का निश्चय किया। हेस्टिंग्ज का मानना था कि राजपूत राज्यों को अधीनता में लाकर राजपूत राज्यों के साधनों से कम्पनी की सुरक्षा को बल प्रदान किया जा सकता है जिससे पश्चिमी भारत पर कम्पनी का प्रत्यक्ष प्रभाव स्थापित हो सकेगा। चार्ल्स मेटकाफ तथा सर जॉन मैलक्म को देशी राज्यों के साथ संधियाँ करने का दायित्व सौंपा गया। मैटकाफ ने 1817 ई. में कोटा तथा करौली से, 1818 ई. में जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ़, जयपुर तथा बूंदी राज्यों से संधियाँ कीं। मालवा के रेजीडेंट जॉन मैल्कम ने 1818 ई. में प्रतापगढ़, बांसवाड़ा तथा डूंगरपुर से अधीनस्थ सहयोग की संधियाँ कीं।
हेस्टिंग्ज की नीति का मूल्यांकन
लॉर्ड हेस्टिंग्ज के समय में लगभग सम्पूर्ण भारत में कम्पनी की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। भारतीय राज्यों की बाह्य प्रभुता पर अँग्रेजों का नियंत्रण स्थापित हो गया और आन्तरिक प्रभुता केवल सैद्धान्तिक रूप में उन राज्यों के पास रही। वेलेजली ने सिद्धान्त रूप से ही सही, भारतीय राज्यों को समानता का दर्जा दिया था किन्तु लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने बनावटी मुखौटा उतार दिया जिससे कम्पनी का वास्तविक रूप सामने आ गया। वेलेजली के शासन से भारतीय राज्यों की शक्ति घटने का क्रम चालू हुआ था, डलहौजी के काल तक ब्रिटिश सर्वोच्चता अपने शिखर पर पहुँच गई। लगभग समस्त इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने वेलेजली के कार्य को पूरा किया। वेलेजली और लॉर्ड हेस्टिंग्ज की योजनाओं पर प्रकाश डालते हुए डॉ. एम. एस. मेहता ने लिखा है- ‘मुख्य रूप से वेलेजली की नीति के फलस्वरूप अँग्रेजों ने जो सैनिक प्रबलता प्राप्त कर ली थी, उससे अँग्रेजों को भारत में श्रेष्ठता का पद प्राप्त हो गया। हेस्टिंग्ज ने इस पद से अँग्रेजों को प्रभुत्ता के पद तक पहुँचा दिया।’
वेलेजली ने फ्रांसीसियों की शक्ति को समाप्त किया तथा सहायक सन्धि व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय राज्यों से सन्धियाँ कीं। जिन राज्यों ने वेलेजली की व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया, उन राज्यों से संघर्ष कर उन पर वह व्यवस्था थोपी गई। वेलेजली के बाद लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने पुनः वही रास्ता चुना और भारत में कम्पनी की सर्वोच्चता स्थापित की। वेलेजली ने मराठा शक्ति पर प्रहार करके उसे क्षीण किया तथा लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने उसे धराशायी कर दिया।
मैसूर तथा कछार का अँग्रेजी राज्य में विलय
गवर्नर जनरल एमहर्स्ट (1823-28 ई.) ने 1826 ई. में भरतपुर के किले पर अधिकार कर लिया। गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने 1831 ई. में मैसूर राज्य में एक ब्रिटिश कमिश्नर की नियुक्ति की तथा 1832 ई. में बंगाल के उत्तर पश्चिम की छोटी सी रियासत कछार को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया।
चार्टर एक्ट 1833 ई.
1833 ई. में चार्टर एक्ट के माध्यम से कम्पनी की व्यापारिक गतिविधियां समाप्त करके केवल राजनीतिक कार्य करने की अनुमति दी गई। भारत के ब्रिटिश शासित क्षेत्र कम्पनी के पास ब्रिटिश ताज, उसके उत्तराधिकारी एवं वंशजों की अमानत घोषित करके कम्पनी को उनका ट्रस्टी बना दिया गया। इसके बदले में कम्पनी को अगले 40 वर्षों तक भारतीय राजस्व में से 10.5 प्रतिशत लाभांश देना निश्चित किया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को अब भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि भारत का बहुत बड़ा भू-भाग अंग्रेजों के अधीन हो चुका था। भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए मद्रास, कलकत्ता एवं बम्बई में बिशपों की नियुक्ति की गई। इस एक्ट ने कम्पनी के स्वरूप में पूर्णतः परिवर्तन कर दिया। अब कम्पनी का स्वरूप व्यापारिक न रहकर, राजनीतिक एवं प्रशासनिक रह गया।
कुर्ग पर नियंत्रण
1834 ई. में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कुर्ग के शासक को अयोग्य घोषित करके उस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।
सिंध का ब्रिटिश क्षेत्र में विलय
लॉर्ड हेस्टिंग्ज के जाने के पश्चात् भी ब्रिटिश राज्य विस्तार की प्रक्रिया तेजी से चलती रही। गवर्नर जनरल ऑकलैण्ड (1836-42 ई.) ने रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिये अफगानिस्तान पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। अफगानिस्तान में भेजी जाने वाली सेनाएं सिंध में होकर भेजी जानी थीं। उन दिनों पंजाब के शासक रणजीतसिंह तथा सिंध के अमीरांे के बीच झगड़ा चल रहा था। कर्नल पोटिंगर ने सिंध के अमीरों से कहा कि वे महाराजा रणजीतसिंह के विरुद्ध कम्पनी की एक सेना सिंध में रखें किंतु अमीरों ने मना कर दिया। इस पर पोटिंगर ने रणजीतसिंह को समर्थन देने की धमकी दी। इस पर 1838 ई. में सिंध तथा ब्रिटिश सरकार के बीच एक संधि हुई जिसमें सिक्खों और सिंध के अमीरों के बीच कम्पनी की मध्यस्थता को स्वीकार कर लिया गया। साथ ही हैदराबाद (सिंध) में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया गया। वह अँग्रेज सैनिकों के संरक्षण में कभी भी सिंध में आ-जा सकता था। जून 1838 में एक त्रिदलीय संधि अँग्रेजों, महाराजा रणजीतसिंह तथा सिंध के अमीरों के बीच हुई जिसमें रणजीतसिंह ने सिंध के अमीरों से झगड़ों में कम्पनी की मध्यस्थता को स्वीकार कर लिया और शाहशुजा ने सिंध से अपना आधिपत्य त्याग दिया। इस प्रकार अँग्रेजों को सिंध होते हुए अफगानिस्तान जाने का मार्ग मिल गया। फरवरी 1839 में सिंध पर एक और संधि लादी गई जिसमें तय हुआ कि कम्पनी की सहायक सेनाएं शिकारपुर एवं भक्खर में रखी जायेंगी। इसके लिये सिंध के अमीर कम्पनी को तीन लाख रुपये वार्षिक व्यय देंगे। अमीर, कम्पनी के अतिरिक्त और किसी से सम्बन्ध नहीं रखेंगे। कराची में कम्पनी का एक गोदाम भी होगा जिस पर कोई मार्ग-कर नहीं लगेगा। अँग्रेजों ने आश्वासन दिया कि वे राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा बाह्य आक्रमण से अमीरों के राज्य की रक्षा करेंगे। जब संधि वार्ता चल रही थी तब अँग्रेजों ने धोखे से कराची पर अधिकार कर लिया तथा सिंधी अमीरों को संधि करने पर विवश कर दिया।
गवर्नर जनरल लॉर्ड एलनबरो (1842-1844 ई.) के समय में अँग्रेजों की अफगानिस्तान में करारी हार हुई। इससे अँग्रेजों की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। अँग्रेजों ने सिंध का विलय करके उस प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करना चाहा तथा अमीरों पर राजद्रोह का आरोप लगाकर सिंध पर आक्रमण कर दिया। लॉर्ड एलनबरो ने सिंध के अमीरों के समक्ष एक नई संधि का प्रस्ताव रखा जिसमें उन्होंने अमीरों पर कुछ प्रदेश अँग्रेजों को सौंपने, दण्ड-राशि देने, अँग्रेजों के स्टीमरों को कोयला देने और अपने सिक्के गढ़ने का अधिकार कम्पनी को देने का दबाव डाला। मेजर आउट्रम को संधि करने भेजा गया। इसी बीच खैरपुर में गद्दी प्राप्त करने के प्रश्न पर मीर रुस्तम के पुत्रों में झगड़ा हो गया। इसी समय चार्ल्स नेपियर ने मेजर आउट्रम का स्थान लिया। उसने जनवरी 1843 ई. में इमामगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। इस पर बलोचों ने ब्रिटिश रेजीडेंसी पर आक्रमण कर दिया। नेपियर ने एक जहाज में भागकर जान बचाई। पुनः हुए युद्ध में नेपियर ने बलोचों को मिआनी तथा दाबो नामक स्थानों पर परास्त किया। मीरपुर पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया। अप्रेल 1843 ई. में पूरा सिंध अँग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। अमीरों को बंदी बनाकर देश निकाला दे दिया गया। नेपियर ने सिंध की लूट से 70 हजार पौण्ड प्राप्त किये।
एलनबरो ने सिंध के विलय को रूस एवं ईरान से भारत की रक्षा करने के लिये आवश्यक बताया किंतु अनेक अँग्रेजी लेखकों ने इस विलय को अनैतिक, निंदनीय, सर्वत्र सड़ी हुई घटना, नीचतापूर्ण कृत्य और आक्रामक कहा है।
पंजाब पर अधिकार
महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद पंजाब राज्य अस्त-व्यस्त होने लगा। अँग्रेजों ने राज्य में गुटबंदी और अस्थिरता से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाने का निर्णय किया। 1844 ई. में लॉर्ड हेनरी हार्डिंग ने पंजाब विजय के लिये सैनिकों की संख्या में वृद्धि की तथा युद्ध की तैयारियां आरम्भ कर दीं। हार्डिंग ने युद्ध की जिम्मेदारी पंजाब के शासक एवं खालसा सेना पर डालनी चाही। प्रारम्भिक मुठभेड़ के बाद लॉर्ड हार्डिंग ने 13 दिसम्बर 1846 को युद्ध की घोषणा कर दी। मुदकी, फिरोजशाह, बद्दोवाल, आलीवाल तथा सबराओं नामक पांच स्थानों पर दोनों पक्षों की सेनाओं में युद्ध हुए। 10 फरवरी 1846 को लड़ी गई पांचवीं लड़ाई में अँग्रेजों को निर्णायक विजय प्राप्त हुई तथा उन्होंने लाहौर पर अधिकार कर लिया। मार्च 1846 में हुई संधि में सिक्खों ने अँग्रेजों को सतलुज पार के समस्त क्षेत्र दे दिये। सिक्खों ने डेढ़ करोड़ रुपया क्षतिपूर्ति के रूप में भी दिया जिसमें से 50 लाख रुपया नगद तथा शेष के बदले में व्यास और सिंध के बीच के पर्वतीय क्षेत्र जिसमें कश्मीर और हजारा के क्षेत्र भी थे, अँग्रेजों को सौंप दिये। पंजाब के महाराजा दिलीपसिंह के राज्य की सीमाएं घटा दी गईं तथा हेनरी लॉरेंस को लाहौर का रेजीडेंट बनाया गया।