Thursday, November 21, 2024
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लॉर्ड माउण्टबेटन

भारत को आजादी देने के लिए लॉर्ड माउण्टबेटन को भेजा गया!

इस समय तक ब्रिटिश सरकार के लिए भारत बहुत बड़ी समस्या बन चुका था। ब्रिटिश सरकार समझ नहीं पा रही थी कि विभिन्न जातियों, अलग-अलग मजहबों एवं धर्मों तथा अलग-अलग सांस्कृतिक पहचान रखने वाले चालीस करोड़ भारतीयों को आजादी किस प्रकार दी जाए कि निरीह जनता का रक्तपात न हो तथा भारत में नियुक्त अंग्रेज नौकरशाही तथा ब्रिटिश सेनाएं सकुशल इंग्लैण्ड लौट आएं! इस समस्या के समाधान के लिए लॉर्ड माउण्टबेटन की भारत के नए वायसराय के रूप में नियुक्ति की गई।

वायसरॉय एवं गवर्नर जनरल लॉर्ड वैवेल को भारतीय राजनीति में तभी से असफल माना जाने लगा था जब वे जून 1945 की शिमला बैठक में वायसराय की काउंसिल में मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति के मसले पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग को सहमत नहीं कर सके थे। जब अगस्त 1946 में मुस्लिम लीग द्वारा की गयी सीधी कार्यवाही से बंगाल और बिहार खून से नहा उठे तब वायसराय वैवेल की भारत में विश्वसनीयता पूरी तरह समाप्त हो गयी।

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उनके स्थान पर मार्च 1947 में लॉर्ड माउंटबेटन को भारत का वायसराय बनाया गया। लॉर्ड माउंटबेटन का पूरा नाम लुइस फ्रांसिस एल्बर्ट विक्टर निकोलस जॉर्ज माउंटबेटन था। उन्हें फर्स्ट अर्ल-माउण्टबेटन ऑफ बर्मा भी कहा जाता था। वे बेटनबर्ग के राजकुमार थे तथा ब्रिटिश राजपरिवार के सदस्य थे।  माउंटबेटन ब्रिटिश नौसेना में एडमिरल थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें केजी, जीसीबी, ओएम, जीसीएसआई, जीसीआईई, जीसीवीओ, डीएसओ, पीसी, एफआरएस आदि उपाधियां दे रखी थीं। उनका जन्म 25 जून 1900 को इंग्लैण्ड में हुआ था। लॉर्ड माउंटबेटन इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के पति राजकुमार फिलिप (ड्यूक ऑफ एडिनबर्ग) के मामा थे।

लॉर्ड माउंटबेटन भारत के आखिरी वायसरॉय थे और स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर-जनरल थे। स्पष्ट दृष्टिकोण एवं सुलझे हुए विचारों का धनी होने के कारण लॉर्ड माउंटबेटन का व्यक्तित्व बहुत शानदार था। वे प्रभावशाली वक्ता, कुशल सेनापति एवं इंग्लैण्ड के जाने-माने लोगों में से एक थे। ब्रिटेन के लिए प्राप्त की गई सामरिक सफलताओं के कारण माउण्टबेटन इंग्लैण्ड की संसद से जो चाहते थे, प्राप्त कर लेते थे।

यद्यपि वे लोकतंत्र के समर्थक थे तथापि ब्रिटिश राज-परिवार का सदस्य होने के कारण तथा ब्रिटेन के इतिहास से परिचित होने के कारण उनके मन में भारतीय राजाओं के प्रति विशेष सहानुभूति थी। उनकी पत्नी एडविना सरल स्वभाव एवं कोमल विचारों की स्वामिनी थीं। वे युद्धक्षेत्र में जाकर घायलों का उपचार करने, लोककल्याण का काम करने तथा अपने पति के कामों में उनका हाथ बंटाने के लिए जानी जाती थीं।

लॉर्ड इस्मे को माउण्टबेटन का चीफ-ऑफ-स्टाफ नियुक्त किया गया। इस्मे एक परिपक्व अधिकारी था। वह ई.1940 से 45 के बीच ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का चीफ-ऑफ-स्टाफ रह चुका था। एलन कैम्पबेल जॉनसन को माउण्टबेटन का प्रेस अटैची नियुक्त किया गया। वह ई.1939 से माउण्टबेटन के स्टाफ में काम कर रहा था।

भारतीय सिविल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी सर जॉर्ज एबेल को लॉर्ड माउण्टबेटन का निजी सचिव नियुक्त किया गया। वह पंजाब के गवर्नर के निजी सचिव एवं लॉर्ड वैवेल के निजी सचिव के पद पर कार्य कर चुका था इसलिए उसे भारत की समस्याओं का अच्छी तरह से ज्ञान था।

जॉर्ज एबेल ने माउण्टबेटन से कहा कि भारत की वर्तमान दशा उस जहाज जैसी है जिसमें से आग की लपटें धू-धू कर उठ रही हों और जिसके गर्भ में बारूद भरा हुआ हो। सारी लड़ाई इसी बात की है कि आग बारूद तक पहले पहुंचेगी या उससे पहले हम उसे काबू में कर चुके होंगे।

वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन के राजनीतिक सलाहकार तथा राजनीतिक विभाग का सचिव के रूप में सर कोनार्ड कोरफील्ड की नियुक्ति की गई। वह एक मिशनरी का बेटा था तथा इण्डियन सिविल सर्विस के अधिकारी के रूप में ई.1920 में लॉर्ड रीडिंग के समय भारत आया था। उसका कार्य भारतीय रजवाड़ों के साथ अधिक रहा था।

वह हैदराबाद, रेवा, जयपुर तथा कुछ अन्य भारतीय रियासतों में पॉलिटिकल एजेंट के रूप में नियुक्त रहा। लॉर्ड वैवेल के समय उसे क्राउन रिप्रजेंटेटिव अर्थात् वायसराय का पोलिटिकल एडवाइजर बनाया गया। उसका काम वैवेल तथा देशी राजाओं के बीच सेतु के रूप में काम करने का था। लगभग पूरा जीवन भारतीय राजाओं के साथ व्यतीत करने के कारण वह देशी-राजाओं के बीच अधिक लोकप्रिय था तथा भारतीय नेताओं को पसंद नहीं करता था।

हैदराबाद का नवाब उसका दोस्त था। इसलिए कोरफील्ड को हिन्दू राजाओं की बजाय मुस्लिम शासकों द्वारा अधिक पसंद किया जाता था। लॉर्ड माउण्टबेटन समय रहते कोरफील्ड के व्यक्तित्व की इस कमजोरी को समझ नहीं सका। इसलिए आगे चलकर माउण्टबेटन को सरदार पटेल एवं जवाहरलाल नेहरू आदि भारतीय नेताओं के सामने नीचा देखना पड़ा।

भारत में वायसरॉय एवं गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड माउण्टबेटन का काम केवल इतना था कि वे भारत को आजाद करके अंग्रेजों को उनकी पूरी गरिमा और शांति के साथ भारत से सुरक्षित निकाल ले जायें। 24 मार्च 1947 को माउंटबेटन ने भारत में वायसराय एवं गवर्नर जनरल का कार्यभार संभाला।

उस समय भारत बड़ी विचित्र स्थिति में फंसा हुआ था। देश की जनसंख्या लगभग 35 करोड़ थी जिसमें से 10 करोड़ मुस्लिम एवं 25 करोड़ हिन्दू तथा अन्य मतावलम्बी थे। कांग्रेस देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल था जिसे विश्वास था कि उसे 100 प्रतिशत हिन्दू, सिक्ख एवं अन्य मतावलम्बियों का तथा 90 प्रतिशत मुसलमानों का नेतृत्व प्राप्त था। जबकि मुस्लिम लीग का मानना था कि लीग को देश के 90 प्रतिशत मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था।

कांग्रेस चाहती थी कि अंग्रेज भारत की सत्ता कांग्रेस को सौंपकर भारत से चले जाएं। मुस्लिम लीग चाहती थी कि अंग्रेज पहले भारत का विभाजन करें तथा मुसलमानों का अलग देश बनाएं। उसके बाद वे भारत को आजाद करें। हिन्दू-बहुल देश की सत्ता कांग्रेस को एवं मुस्लिम-बहुल देश की सत्ता मुस्लिम लीग को मिले। तीसरा बड़ा पक्ष भारतीय राजाओं का भी था जो कतई नहीं चाहते थे कि भारत को आजाद करके 565 देशी रियासतों को कांग्रेस के हाथों में सौंप दिया जाए।

भारत में काम कर रही कम्यूनिस्ट पार्टियाँ तथा राष्ट्रवादी एवं हिन्दू प्रभाव वाले राजनीतिक दल विशेषकर हिन्दू महासभा चाहते थे कि अंग्रेज भारत को विभाजित नहीं करें, भारत अखण्ड रहे तथा उसकी सत्ता केवल कांग्रेस को नहीं देकर भारत की समस्त राजनीतिक पार्टियों को साझा रूप से सौंपी जाए तथा देश में लोकतंत्र की स्थापना हो। सिक्खों, दलितों, ईसाईयों एवं एंग्लो-इण्डियनों के भी अपने-अपने पक्ष थे।

माउण्टबेटन को इन समस्त तत्वों से निबटना था, उन्हें संतुष्ट करना था तथा ब्रिटिश अधिकारियों, ब्रिटिश सैनिकों, उनके परिवारों, उनकी सम्पत्तियों तथा उनके घोड़ों आदि को सुरक्षित रूप से भारत से निकालकर इंग्लैण्ड ले जाना था। माउण्टबेटन को यह व्यवस्था भी करनी थी कि जिस समय रॉयल सेनाएं भारत छोड़कर जा रही हों, उस समय उपद्रवी, गुण्डे एवं हत्यारे किस्म के लोग भारत की निरीह जनता पर आक्रमण करके उसे हानि नहीं पहुँचाएं।

भारतीय लोग आजादी का समरोह मनाएं, उनकी सम्पत्ति, ढोर-डंगर सुरक्षित रहें तथा स्त्रियों के साथ बलात्कार नहीं हों। इतने सारे लक्ष्यों को एक साथ अर्जित करना कोई हँसी-खेल नहीं था। इन अर्थों में लॉर्ड माउण्टबेटन को अपने पूर्ववर्ती समस्त वायसरायों से अधिक कठिन काम करना था, उनसे भी अधिक जिन्होंने इंग्लैण्ड के लिए भारत को जीता था।

माउंटबेटन ने भारत में अपने प्रथम भाषण में कहा कि उनका कार्यालय सामान्य वायसराय का नहीं रहेगा। वे ब्रिटिश सरकार की घोषणा के परिप्रेक्ष्य में जून 1948 तक सत्ता का हस्तांतरण करने तथा कुछ ही माह में भारत की समस्या का समाधान ढूंढने के लिये आये हैं।

माउंटबेटन ने एटली सरकार को 2 अप्रेल 1947 को अपनी पहली रिपोर्ट भेजी जिसमें उन्होंने लिखा कि- ‘देश का आंतरिक तनाव सीमा से बाहर जा चुका है। चाहे कितनी भी शीघ्रता से काम किया जाये, गृहयुद्ध आरंभ हो जाने का पूरा खतरा है। ‘

माउण्टबेटन ने गांधी, जिन्ना, नेहरू, लियाकत अली तथा पटेल से वार्त्ताएं कीं। इन नेताओं ने माउण्टबेटन को बताया कि वे भारत की स्वतंत्रता और विभाजन के सम्बन्ध में क्या विचार रखते थे और भारत की समस्या का क्या समाधान चाहते थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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