जॉन लॉरेंस एक ब्रिटिश अधिकारी था जो अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के समय पंजाब प्रांत में चीफ कमिश्नर के पद पर नियुक्त था एवं दिल्ली का प्रशासक नियुक्त किया गया था। उसकी कृपा से ही दिल्ली नष्ट होने से बच पाई। ब्रिटेन के लॉर्ड्स चाहते थे कि दिल्ली को भारत के नक्शे से मिटा दिया जाए!
बादशाह लाल किला छोड़कर चला गया था किंतु लोअर कोर्ट का पूर्व मजिस्ट्रेट थियो मेटकाफ जो अब दिल्ली का सहायक कमिश्नर था, अब भी दिल्ली में था और वह दिल्ली के मकानों और दिल्ली के लोगों पर कहर ढा रहा था। बदले की आग में झुलसा हुआ वह प्रौढ़ अंग्रेज वास्तव में मानसिक रोगी हो गया था। वह दिल्ली के प्रत्येक मकान को तोड़ देना चाहता था और प्रत्येक नागरिक को फांसी के फंदे पर लटका देना चाहता था। रक्त, मृत्यु, अग्नि और विध्वंस ही उनके जीवन की एकमात्र साधना बनकर रह गए थे।
दिल्ली को हारी हुई बगावत का केन्द्र होने की सजा दी जा रही थी। लॉर्ड पामर्सटन तथा कुछ अन्य लॉर्ड्स ने कम्पनी सरकार से मांग की कि दिल्ली को हिंदुस्तान के नक्शे से मिटा दिया जाए। लॉर्ड पामर्सटन ने कम्पनी को भेजे अपने पत्र में लिखा कि हर वह सभ्य इमारत जिसका इस्लामी परम्परा से किंचित् भी सम्बन्ध हो, उसे बिना प्राचीनता या कलात्मकता का सम्मान किए धरती पर ढहा दिया जाना चाहिए।
जब बादशाह बहादुरशाह जफर दिल्ली से रंगून भेज दिया गया तब दिल्ली का प्रशासन पंजाब सरकार के अधीन कर दिया गया। पंजाब का चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस अपनी नौकरी के आरम्भिक दिनों में दिल्ली के सहायक कमिश्नर थियो मेटकाफ के बाप सर थॉमस मेटकाफ के अधीन काम कर चुका था जो कि ईस्वी 1835 तक दिल्ली का कमिश्नर रहा था।
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इसलिए जॉन लॉरेंस थियोफिलस मेटकाफ से स्नेह करता था किंतु वह समझ रहा था कि जब तक मेटकाफ दिल्ली में रहेगा, तब तक दिल्ली की स्थिति को सामान्य नहीं किया जा सकता। इसलिए जॉन लारेंस ने भारत के गर्वनर जनरल लॉर्ड केनिंग को चिट्ठी लिखी कि थियो मैटकाफ को तुरंत दिल्ली से हटाया जाए। उस पर दिल्ली में बड़े पैमाने पर कत्लेआम करने का आरोप है। जॉन लॉरेंस ने लॉर्ड केनिंग को यह भी लिखा कि दिल्ली के अंग्रेज इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं मानो वे हिंदुस्तानियों को जड़ से उखाड़ फैंकने की लड़ाई कर रहे हों।
इस पर कम्पनी सरकार ने थियो मेटकाफ को दिल्ली से हटाकर फतेहपुर का डिप्टी कलक्टर बना दिया। थियो मेटकाफ ने नाराज होकर लम्बी छुट्टी ले ली और वह इंग्लैण्ड चला गया जहाँ से वह कभी लौटकर नहीं आया। इस प्रकार दिल्ली को तीसरे मेटकाफ से छुटकारा मिल गया।
पंजाब के चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस ने लिखा है- ‘दिल्ली का शासन मेरे हाथ में आते ही मैंने सिविल ऑफीसर्स को आदेश देकर दिल्ली में कत्लेआम रोक दिया और सैंकड़ों निर्दोष लोगों को फांसी पर चढ़ने से बचा लिया। मैटकाफ का दिल्ली में इतना शक्तिशाली हो जाना बहुत ही दुर्भाग्य की बात है। जो भी हो, अब वह इंग्लैण्ड चला गया है।’
जॉन लॉरेंस ने लॉर्ड केनिंग से मांग की कि जिन विद्रोही सिपाहियों ने किसी की भी हत्या नहीं की है तथा भंग कर दी गई टुकड़ियों के जिन सैनिकों ने किसी बगावत में हिस्सा नहीं लिया है, उन्हें क्षमा करके फिर से कम्पनी सरकार की सेवा में ले लिया जाए ताकि वे फिर से जीवन की मुख्य धारा में लौट सकें। ब्रिटिश सांसद डिजराइली ने इंगलैण्ड की संसद में इस मांग का जर्बदस्त समर्थन किया। उसका कहना था कि इससे भारतीयों के दिलों में अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव कम होगा तथा भारत शांत हो जाएगा। दिल्ली एवं कलकत्ता से लेकर लंदन तक में बैठे अधिकांश अंग्रेज इस योजना के पक्षधर नहीं थे। भारत एवं इंग्लैण्ड के अंग्रेजों के कुछ बड़े समूहों ने मांग की कि जामा मस्जिद सहित दिल्ली के समस्त भवनों को नष्ट कर दिया जाए किंतु जॉन लॉरेंस ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया।
जब गवर्नर जनरल केनिंग ने दिल्ली नगर का पूरा परकोटा तथा दोनों पक्षों द्वारा बनाई गई समस्त मोर्चाबंदियों को नष्ट करने के आदेश दिए तो जॉन लॉरेंस ने केनिंग को लिखा कि इस आदेश की पालना नहीं की जा सकती क्योंकि सरकार के पास इतना बारूद नहीं है।
दिसम्बर 1859 में लॉर्ड केनिंग इस बात पर सहमत हो गया कि केवल उन दीवारों को तोड़ा जाए जो लाल किले एवं दिल्ली नगर को आसानी से सुरक्षित बनाती हैं। चांदनी चौक के पूर्वी आधे हिस्से को दरीबा तक तोड़ने की येाजना भी रोक दी गई। फिर भी लाल किले के चारों ओर के बहुत से भवन पूरी तरह धरती पर गिरा दिए गए।
उर्दू के विख्यात कवि मिर्जा गालिब ने लिखा है- ‘मैं तांगे पर सवार होकर जामा मस्जिद से होता हुआ राजघाट दरवाजे तक गया। यह पूरा क्षेत्र एक रेगिस्तान जैसा दिखाई देने लगा है। लोहे की सड़क से कलकत्ता दरवाजे और काबुली दरवाजे तक मैदान साफ हो गया है। पंजाबी कटरा, धोबीवाड़ा, रामजी गंज, सआदत खाँ का कटरा, मुबारक बेगम की हवेली, साहब राम की हवेली और बाग, रामजी दास गोदाम वाले का मकान, इनमें से किसी का कुछ पता नहीं चलता। पूरा शहर रेगिस्तान बन गया है।
……ऐसा लगता है जैसे दिल्ली को ढहाया जा रहा है। दिल्ली के वे मौहल्ले जो 1857 की क्रांति से पहले स्वयं अपने आप में एक नगर जैसे दिखाई देते थे, वे अब अपनी जगह पर नहीं हैं। खास बाजार, उर्दू बाजार, खानम का बाजार पूरी तरह धूल में मिला दिए गए हैं। न कोई मकान मालिक और न कोई दुकानदार बता सकता है कि उनका घर या दुकान किस स्थान पर थे!’
पंजाब का कमिश्नर जॉन लॉरेंस चाहता था कि कलकत्ता और लंदन में बैठे अंग्रेज राजनीतिज्ञ, सिविल सर्विस के अधिकारी एवं सैनिक अधिकारी इस बात को समझें कि भारत की राजनीति में दिल्ली का स्थान कितना महत्वपूर्ण है। इसलिए दिल्ली को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए अपितु उसका नवनिर्माण करके इसे अंग्रेज शक्ति का महत्वपूर्ण स्थल बनाया जाना चाहिए। मद्रास, मुम्बई, कलकत्ता और लाहौर में से कोई भी नगर भारत में इतनी महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं ऐतिहासिक स्थिति नहीं रखता जो स्थिति दिल्ली की रही है।
कलकत्ता और लंदन के अंग्रेज चिल्लाते रहे किंतु जॉन लॉरेंस ने उनकी परवाह नहीं की। उसने दिल्ली को साफ करवाया। मलबे के ढेर उठवाकर बाहर फिंकवाए। मलबे में दबी पड़ी लाशों की अंत्येष्टियां करवाईं। उसने नागरिकों का आह्वान किया कि वे अपने घरों, दुकानों एवं बाजारों को फिर से बना लें। इस प्रकार जॉन लॉरेंस ने दिल्ली को पूर्णतः नष्ट होने से बचा लिया।
नवम्बर 1858 में भारत से कम्पनी सरकार का शासन समाप्त कर दिया गया और ब्रिटिश क्राउन ने स्वयं भारत का शासन ग्रहण कर लिया। इसी के साथ लाल किला पूरी तरह नेपथ्य में चला गया। भारत पर रानी का शासन होते ही जॉन लॉरेंस ने 1857 की क्रांति के लगभग 24 हजार सैनिकों को फिर से सेवा में ले लिया किंतु अब वे कम्पनी सरकार के सिपाही नहीं थे, अब वे विश्व की सबसे बड़ी हुकूमत की सेना के सिपाही थे जिसे रॉयल आर्मी कहा जाता था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता