भारत की धरती पर विगत लगभग एक हजार साल से सूफियों के प्रेम तराने गूंज रहे हैं। सूफी फकीरों एवं दरवेशों ने भारतीय वेदान्त के प्रेमतत्व को अपने गीतों में ढालकर भारत की धरती को प्रेम और भक्ति की दीवानगी से भर दिया। सूफी-मत का आदि स्रोत शामी जातियों की आदिम प्रवृत्तियों में मिलता है जो सीरिया के आसपास शाम नामक देश में रहते थे।
सूफी मत की आधारशिला रति-भाव था जिसका पहले-पहल शामी जातियों ने विरोध किया। मूसा और हजरत मुहम्मद ने संयत भोग का विधान किया। मूसा ने प्रवृत्ति मार्ग पर जोर देकर लौकिक प्रेम का समर्थन किया। सूफी ‘इश्क मजाजी’ को ‘इश्क हकीकी’ की पहली सीढ़ी मानते हैं। सूफी मत पर इस्लाम की गुह्य विद्या, आर्यों के अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, नव-अफलातूनी मत एवं विचार स्वातंत्र्य की छाप स्पष्ट दिखाई देती है तथा सूफी-मत को ‘जीवन का क्रियात्मक धर्म’ कहा जाता है।
भारत में इस्लाम के साथ-साथ सूफी-मत का भी प्रवेश हुआ। सूफी मत, अपने वर्तमान स्वरूप में इस्लाम का एक वर्ग अथवा समुदाय है और उतना ही प्राचीन है जितना कि इस्लाम। सूफी प्रचारक कई वर्गों तथा संघों में विभक्त थे। अरब से लेकर मध्य एशिया में उनके अलग-अलग केन्द्र थे, जहाँ से चलकर वे भारत पहुंचे थे। इस्लाम की ही तरह सूफी मत का भी भारत में तीव्र गति से प्रचार हुआ। हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही सूफी सन्तों की ओर आकृष्ट हुए और उनकी शिक्षाओं से प्रभावित हुए।
अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया, नागौर में हमीदुद्दीन नागौरी जैसे सैंकड़ों सूफियों ने इस्लाम को हिन्दुओं के निकट लाने का काम किया। भारत विभाजन के समय जिन पंजाब और सिंध को सर्वाधिक खून के आंसू बहाने पड़े, उन पंजाब और सिंध की धरती सैंकड़ों सालों से सूफियों के प्रेम-तरानों से गुंजारित थी। 12वीं सदी के सूफी बाबा फरीद, सत्रहवीं सदी के सूफी कवि बाबा अब्दुल रहमान, डेरा गाजी खान के साखी सरवर, चमकानी के फंडू बाबा, सूफी दरवेश अब्दुल्लाह शाह गाजी, बुल्लेशाह, वारिसशाह आदि सूफी संत पंजाब की धरती को अपने प्रेम-तरानों एवं विरह गीतों से सिंचित करते रहे।
पंजाबी कवि बुल्लेशाह
सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी में जब औरंगजेब भारत का सम्पूर्ण इस्लामीकरण करने के नाम पर भारत के चप्पे-चप्पे को रक्त से भिगो रहा था, उस समय ई.1680 में पंजाब के बहावलपुर राज्य के ‘गिलानियाँ’ अथवा मुल्तान क्षेत्र के कसूर नामक शहर में बुल्लेशाह नामक एक सूफी दरवेश पैदा हुआ। आज यह क्षेत्र पाकिस्तान में है। बुल्लेशाह की मृत्यु ई.1757 के आसपास हुई। उसकी कविताओं को काफ़ियाँ कहा जाता है। बुल्लेशाह पैगम्बर मुहम्मद की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे। बुल्लेशाह जब बड़े हुए तो शाह इनायत के चेले बन गए। बुल्लेशाह का परिवार पैग़म्बर मुहम्मद की बहिन का वंशज होने से ऊँची ‘सैय्यद’ जाति का था जबकि शाह इनायत ‘आराइन’ जाति से थे जिन्हें नीची जाति का माना जाता था लेकिन जाति-पांति के भेद-भाव से दूर बुल्लेशाह अपने गुरु शाह इनायत से जुड़े रहे और प्रेम-तराने गाते रहे। अपने एक गीत में उन्होंने कहा-
बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?
जेहड़ा सानू सईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ!
अर्थात्- बुल्ले को समझाने के लिए बहनें और भाभियाँ आईं और उन्होंने कहा हमारा कहना मान बुल्ले, आराइनों का साथ छोड़ दे। तू नबी के परिवार और अली के वंशजों में से है। बुल्ले ने जवाब दिया- जो मुझे सैय्यद बुलाएगा उसे दोज़ख़ (नरक) में सज़ा मिलेगी। जो मुझे आराइन कहेगा उसे बहिश्त (स्वर्ग) के सुहावने झूले मिलेंगे। आराइन और सैय्यद इधर-उधर पैदा होते रहते हैं, परमात्मा को ज़ात की परवाह नहीं। वह ख़ूबसूरतों को परे धकेलता है और बदसूरतों को गले लगता है। अगर तू बाग़-बहार (स्वर्ग) चाहता है तो आराइनों का नौकर बन जा। बुल्ले की ज़ात क्या पूछता है? ऊपर वाले की बनाई दुनिया के लिए शुक्र मना।
सिन्धी संत झूलेलाल तथा शाहबाज़ क़लन्दर
पंजाबी मिश्रित सिन्धी भाषा में लिखा गया ‘दमादम मस्त क़लन्दर’ नामक गीत भारतीय उपमहाद्वीप का अत्यंत लोकप्रिय एवं बहुत लम्बा सूफ़िआना गीत है जो सिन्ध प्रांत के महान संत झूले लाल क़लन्दर को सम्बोधित करके उनके सामने एक माँ की फ़रियाद रखता है। झूले लाल के साथ-साथ इसमें सूफ़ी संत शाहबाज़ क़लन्दर का भी उल्लेख है। झूले लाल साईं हमेशा लाल चोगा पहनते थे, इसलिए उन्हें ‘लाल’ या ‘लालन’ नाम से पुकारा जाता है। गाने का हर छंद ‘दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर’ पर पूरा होता है जिसका अर्थ है- ‘दम-दम में मस्ती रखने वाला क़लन्दर (फ़क़ीर), जो हर सांस में रब (अली) को रखता है।’ इस गीत के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
ओ लाल, मेरी पत्त रखियो बला झूले लालण,
सिन्धड़ि दा, सेवन दा, सख़ी शाहबाज़ क़लन्दर!
दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर!
चार चिराग़ तेरे बरन हमेशा,
पंजवां बारन आईआं बला झूले लालण,
सिन्धड़ि दा, सेवन दा, सख़ी शाहबाज़ क़लन्दर!
दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर!
हिंद-सिंद पीरा तेरी नौबत वाजे,
नाल वजे घड़ेयाल बला झूले लालण,
सिन्धड़ि दा, सेवन दा, सख़ी शाहबाज़ क़लन्दर!
दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर!
मावाँ नूं पीरा बच्चड़े देना ई,
पैणा नूं देना तूं वीर मिला झूले लालण,
सिन्धड़ि दा, सेवन दा, सख़ी शाहबाज़ क़लन्दर!
दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर!
उच्चा रोज़ा पीरा तेरा,
हेठ वग्गे दरिया बला झूले लालण,
सिन्धड़ि दा, सेवन दा, सख़ी शाहबाज़ क़लन्दर!
दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर!
हर दम पीरा तेरी ख़ैर होवे,
नाम-ए-अली बेड़ा पार लगा झूले लालण,
सिन्धड़ि दा, सेवन दा, सख़ी शाहबाज़ क़लन्दर!
दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर!
अर्थात्- हे लाल, मेरी रक्षा कीजिये, ऊंचे झूले लाल, सिन्ध का और सेरवन का संत शाहबाज़ क़लन्दर! दम-दम में मस्त फ़क़ीर, हर सांस में रब! तेरी मज़ार पर चार चिराग़ हमेशा जलते रहते हैं, तेरे आदर में पांचवां दिया जलाने के लिए मैं आई हूँ। …… हे पीर, पूरे हिंदुस्तान और सिन्ध में तेरी महानता गूंजती है, और तेरी मज़ार के बड़े घंटे की आवाज़ फैलती है। …… हे पीर, झोली फैलाने वाली माओं को तू बच्चे देता है, मांगने वाली बहनों को तू भाई देता है। …… ओ पीर, तेरा डेरा पहाड़ की ऊंचाई पर है, नीचे दरिया बहता है …… हे पीर, हर जगह तेरी जीत हो, अली के नाम पर भवसागर में मेरा बेड़ा पार लगा दे। …… सिन्ध का और सेरवन का संत शाहबाज़ क़लन्दर! हे हर सांस में मस्त फ़क़ीर!
भगवान झूलेलाल के संदेश
सिंध की भूमि पर भगवान झूले लाल को लेकर लिखे गए सूफियों के प्रेम तराने अलग ही मिठास रखते हैं। सिन्धी समाज में मान्यता है कि चेटीचण्ड के दिन वरुण देव ने अवतार लिया तथा प्रजा को मिरखशाह नामक दुष्ट शासक के अत्याचारों से मुक्ति दिलवाई। उनके बचपन का नाम उडेरोलाल था किंतु बाद में उन्हें झूलेलाल तथा लालसांई के नाम से जाना गया। सिंध क्षेत्र के मुसलमान उन्हें ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर के नाम से पूजते हैं। उनके प्रमुख संदेश इस प्रकार थे-
– ‘ईश्वर अल्लाह हिक आहे।’ अर्थात् ईश्वर अल्लाह एक हैं।
– ‘कट्टरता छदे, नफरत, ऊंच-नीच एं छुआछूत जी दीवार तोड़े करे पहिंजे हिरदे में मेल-मिलाप, एकता, सहनशीलता एं भाईचारे जी जोत जगायो।’ अर्थात् विकृत धर्मांधता, घृणा, ऊंच-नीच और छुआछूत की दीवारें तोड़ो और अपने हृदय में मेल-मिलाप, एकता, सहिष्णुता और भाईचारे के दीप जलाओ।
– ‘सभनि हद खुशहाली हुजे।’ अर्थात्- सब जगह खुशहाली हो।
– ‘सजी सृष्टि हिक आहे एं असां सभ हिक परिवार आहियू।’ अर्थात् समस्त सृष्टि एक है, हम सब एक परिवार हैं।
वारिसशाह की हीर-राँझा
सूफियों के प्रेम तराने वारिस शाह के गीतों में भी अपने पूरे ठाठ के साथ मुखरित हुए हैं। सूफी संत प्रेम में ईश्वर को और ईश्वर में प्रेम को देखते थे। उन्होंने बहुत से विख्यात प्रेमाख्यानों की रचना की। हीर-राँझा जैसे प्रेमाख्यान पर वे भला कैसे नहीं झूम जाते! इस प्रेमाख्यान को सैंकड़ों, कवियों, लेखकों एवं साहित्यकारों ने अपनी-अपनी तरह से लिखा किंतु हीर की पीर को ओर राँझा के प्रेम को पंजाबी सूफी कवि वारिसशाह ही सर्वाधिक मार्मिक शब्द दे सका। वारिसशाह ने अपनी कविता हीर-राँझा में चिनाब नदी के किनारे स्थित तख्त हजारा गांव तथा उसके लड़कों का वर्णन इस रसमय ढंग से किया-
केही तख़त हज़ारे दी सिफ़त कीजे, जित्थे रांझ्यां रंग मचायआ ए ।
छैल गभ्भरू, मसत अलबेलड़े नी, सुन्दर हिक्क थीं हिक्क सवायआ ए ।
वाले कोकले, मुन्दरे, मझ लुंङी, नवां ठाठ ते ठाठ चड़्हायआ ए ।
केही सिफ़त हज़ारे दी आख सकां, गोया बहशत ज़मीन ते आया ए ।
अर्थात्- चेनाब नदी के किनारे की सुन्दर बस्ती तख्त हजारा की क्या प्रशंसा करें जहाँ रांझों ने रौनक कर रखी है। यहाँ के मस्त, अलबेले सुंदर नौजवान देखते ही बनते हैं। दरिया की लहरों और बगीचों की सुगंधित हवाओं के कारण ऐसा लगता है मानो स्वर्ग ही धरती पर आ गया है। यही रांझाओं की धरती है जो मस्ती से यहाँ रहते हैं। इस बस्ती के नौजवान खूबसूरत और बेपरवाह किस्म के हैं। वे कानों में बालियाँ पहनते और कंधांे पर नए शॉल रखते हैं। उन्हें अपनी खूबसूरती पर गर्व है और वे सब इस मामले में एक-दूसरे को मात देते हुए प्रतीत होते हैं।
हीर के रूप-लावण्य की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है-
केही हीर दी करे तारीफ शायर, मत्थे चमकदा हुसन महताब दा जी ।
ख़ूनी चूंडियां रात ज्यु चन्न गिरदे, सुरख रंग ज्युं रंग शहाब दा जी ।
नैन नरगसी मिरग ममोलड़े दे, गल्ल्हां टहकियां फुल्ल गुलाब दा जी ।
भवां वांङ कमान लाहौर दे सन, कोई हुसन ना अंत हिसाब दा जी ।
सुरमा नैणां दी धार विच्च फब रहआ, चंगा हिन्द ते कटक पंजाब दा जी।
अर्थात्- कवि, ‘हीर’ की भला क्या प्रशंसा करे! उसका माथा ऐसे चमक रहा है जैसे चंद्रमा का सौन्दर्य हो। उसकी लाल चूड़ियां इतनी सुर्ख हैं जैसे आग की लपटें हों। उसके नरगिसी आंखें मृगशावक की आंखों जैसी हैं तथा गाल गुलाब के फूलों जैसे लगते हैं। उसकी भौंहें लाहौरी तलवार की तरह खिंची हुई हैं। उसकी आंखों में सुरमा ऐसे सुशोभित हो रहा है जैसे हिन्दुस्तान और पंजाब की कोई भली सी सेना हो। उसके यौवन का कोई पार नहीं है।
यह ताकत सूफियों के प्रेम तराने की ही हो सकती थी।
इस प्रकार सूफियों द्वारा की गई प्रेम और रस की सृष्टि ने सैंकड़ों साल तक पंजाब वासियों के हृदयों में जिस आनंद की वर्षा की वह अन्य क्षेत्र के मानवों के लिए दुर्लभ है किंतु बुल्लेशाह, लालशाह, झूलेलाल तथा वारिस शाह जैसे सूफी फकीरों, चांद बीबी जैसे शासकों, गुरु नानक जैसे सिक्ख गुरुओं, रहीम एवं रसखान जैसे मुस्लिम कवियों और कबीरदास एवं रविदास जैसे हिन्दू संतों के ये प्रेम-प्रयास उस समय व्यर्थ प्रतीत होने लगे जब दोनों संस्कृतियों ने एक-दूसरे से अपनी दूरी यथावत् बनाए रखी।
हिन्दू और मुसलमान दोनों ही, अपने-अपने कारणों से एक-दूसरे के निकट आने के लिए कभी तैयार नहीं हुए। भारत की भूमि में भावी पाकिस्तान की जड़ें घृणा और वैमनस्य की खाद-पानी पाकर अनवरत विस्तार पाती रहीं। एक न एक दिन उन्हें धरती से बाहर निकलकर भारत का विभाजन करना ही था …… पाकिस्तान बनना ही था। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सूफियों के प्रेम तराने भी पाकिस्तान की जड़ों को पनपने से नहीं रोक सके!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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