उन दिनों आगरा से मथुरा तक का मार्ग राजमार्ग कहलाता था जो हर समय मनुष्यों, घोड़ों और गौओं की चहल-पहल से भरा रहता था। आगरा से बारह मील की दूरी पर यह राजमार्ग रुनुकता गाँव से होकर गुजरता था। किसी समय यह रेणुका क्षेत्र कहलाता था जो अपभ्रंश होकर रुनुकता कहलाने लगा था। रुनुकता गाँव से लगभग डेढ़ मील दूर यमुनाजी के दक्षिणी तट पर गौघाट स्थित था जिसकी चहल-पहल देखते ही बनती थी। उन दिनों आगरा से मथुरा के बीच यमुनाजी में नौकाओं के माध्यम से भी काफी आवागमन होता था।
रुनुकता क्षेत्र में बड़े-बड़े चारागाह थे जिनमें हजारों गौएं रहा करती थीं। ये गौएं नियमित रूप से जिस स्थान पर यमुनाजी का जल पीने के लिये आया करती थीं, उस स्थान का नाम गौघाट पड़ गया था। बड़ी-बड़ी नौकाओं में सवार पथिक गौओं के विशाल झुण्डों को देखने के लिये गौघाट पर घण्टों तक रुके रहते थे। इसी गौघाट पर कई संतों ने अपनी कुटियाएं बना ली थीं जिनका निर्वहन गौपालकों और चरवाहों द्वारा दी गयी दान दक्षिणा तथा इन गौओं के दूध पर हुआ करता था। ये संत संध्या काल में एकत्र होकर तानपूरों पर भजन गाया करते थे जिन्हें सुनने के लिये चरवाहों की भीड़ जुट जाती। श्रद्धालु और भजनों के रसिक लोग भी नौकाएं रुकवाकर इन सभाओं में आ बैठते थे। देर रात तक ये संगीत सभायें जुड़ी रहतीं।
उस समय तक देश में मुस्लिम शासन हुए साढ़े तीन शताब्दियाँ हो चुकी थीं। हिन्दू प्रजा, मुस्लिम शासकों और उनके बर्बर सैनिकों के अत्याचार से त्रस्त एवं भयभीत रहती थी किंतु उनसे मुक्ति का कोई उपाय नहीं था। पराभव का काल जानकर हिन्दु प्रजा ईश्वर की शरणागति हो हरि भजन में ही अधिकांश समय व्यतीत करती थी।
उन दिनों गौघाट पर पर एक वृद्ध संगीतज्ञ रहता था। वह प्रातः सूर्योदय से बहुत पहले उठकर भगवान कृष्ण के एक छोटे से देवालय के सामने बैठकर भगवान को जगाया करता था।
एक दिन बैरामखाँ किसी कार्य से देर रात्रि में मथुरा से आगरा के लिये निकला। जिस समय वह गौघाट पहुँचा, उस समय भी सूर्योदय होने में काफी विलम्ब था। इसलिये उसने अपने घोड़े की गति कम कर ली। उसका विचार था कि यदि संभव हुआ तो वह गौघाट पर रुक कर कुछ देर विश्राम कर लेगा। निकट पहुँचने पर यमुनाजी के निर्मल तट पर बहने वाली सुवासित वायु के झौंकों ने उसके नासा रंध्रों में प्रवेश किया तो उसकी सारी थकावट जाती रही।
अचानक बैरामखाँ को लगा कि वायु के इन झौंकों में घुली हुई कोई अदृश्य शक्ति उसे खींच रही है। वह घोड़े से उतर पड़ा और और अपने सेवकों को वहीं रुकने का संकेत करके अकेला ही चहल कदमी करने लगा। जब वह कुछ और आगे गया तो उसके कर्णरंध्रों में एक संगीत लहरी ने प्रवेश किया। बैरामखाँ संगीत लहरी के सम्मोहन में बंधा हुआ उसी दिशा में बढ़ने लगा जिस दिशा से वह संगीत लहरी आ रही थी।
कुछ आगे जाने पर बैरामखाँ ने एक अद्भुत दृश्य देखा उसने देखा कि एक कुटी के समक्ष एक छोटा सा देवालय है जिसमें भगवान कृष्ण की श्यामवर्ण मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के सामने एक छोटा सा दिया जगमगा रहा है और एक कृशकाय वृद्ध मगन होकर तानपूरा बजा रहा है तथा साथ ही साथ भजन गा रहा है। वृद्ध के नेत्रों से आँसुओं की अनवरत धारा बह रही है। वृद्ध के कंधे पर एक जनेऊ पड़ा था और घुटनों पर एक फटी धोती लिपटी थी।
उसने देखा कि वह वृद्ध कोई और नहीं हेमू का वही बूढ़ा बाप है जिसका वध स्वयं बैरामखाँ ने अपनी तलवार से किया था। जाने क्या माया है? बैरामखाँ को लगा उसका सिर फट जायेगा। क्या ऐसा भी संभव है? थोड़ी देर में जब बैरामखाँ की आँखें अंधेरे में और साफ देखने लगीं तो उसने देखा कि वह हेमू का बूढ़ा बाप नहीं कोई और वृद्ध है जिसके कण्ठ से निकली स्वर माधुरी ही उसे यहाँ तक खींच लाई है।
सम्मोहित सा बैरामखाँ वहीं धरती पर बैठ गया। वृद्ध को पता तक न चल सका कि अंधेरे में कोई और परछाई भी आकर बैठ गयी है। सच पूछो तो स्वयं बैरामखाँ को भी पता न चला कि वह कब यहाँ तक चलकर आया और कब धरती पर बैठकर उस संगीत माधुरी में डुबकियाँ लगाने लगा। वृद्ध तल्लीन होकर गाता रहा। बैरामखाँ भी बेसुध होकर सुनता रह।-
वृद्ध अपने आराध्य से जागने की विनती कर रहा था-
जागिये बृजराज कुंअर कमल कुसुम फूले।
कुमुद बंद सकुचित भये भृंग लता फूले।
तमचुर खग रौर सुनहु बोलत बनराईं
राँभति गौ खरिकन में बछरा हित धाईं
बिधु मलीन रबिप्रकास गावत नर-नारी।
सूर स्याम प्रात उठौ अंबुज कर धारी।
भजन का एक-एक शब्द बैरामखाँ की आत्मा में उतर गया। जाने कितना समय इसी तरह बीत गया। भजन पूरा करके जब वृद्ध गायक ने तानपूरा धरती पर रखा तो सूर्य देव धरती पर पर्याप्त आलोक फैला चुके थे। वृद्ध की दृष्टि बेसुध पड़े बैरामखाँ पर पड़ी।
वृद्ध ने देखा कि कोई दाढ़ीवाला खान धरती पर पड़ा है और उसकी आँखों से आँसू बहे चले जा रहे हैं। उसकी पगड़ी खुलकर धूल में बिखर गयी है और तलवार कमर से निकलकर एक तरफ पड़ी है। संगीत लहरी के बंद हो जाने पर बैरामखाँ की तंद्रा भंग हुई। उसने देखा कि वृद्ध संगीतज्ञ चुपचाप खड़ा हुआ उसी को ताक रहा है।
बैरामखाँ लजा कर उठ बैठा। क्या हो गया था उसे! बैरामखाँ को स्वयं अपनी स्थिति पर आश्चर्य हुआ। कब वह यहाँ तक चला आया था! कब वह धरती पर गिर गया था? क्यों वह रोने लगा था? कब क्या हुआ उसे कुछ पता नहीं चला था।
बैरामखाँ उठ कर बैठ तो गया किंतु उसके शरीर में इतनी शक्ति भी शेष नहीं बची थी कि वह अपने घोड़े तक पहुंचसके। उसने संकेत करके वृद्ध से पानी मांगा। वृद्ध ने यमुनाजी में से पानी लाकर उस विचित्र और अजनबी खान को पिलाया। खान के कीमती वस्त्रों और वेशभूषा को देखकर वृद्ध ने अनुमान लगाया कि वह कोई उच्च अधिकार सम्पन्न अधिकारी है किंतु वृद्ध ने उससे कोई सवाल नहीं किया।
– ‘आप कौन हैं बाबा?’ बहुत देर बाद बैरामखाँ ने ही मौन भंग किया।
– ‘मैं इस छोटे से मंदिर का बूढ़ा पुजारी रामदास[1] हूँ।’ आप कौन हैं?’
– ‘मैं पापी हूँ। मैंने बहुत पाप किये हैं।’ जाने कैसे अनायास ही बैरामखाँ के मुँह से निकला और फिर से आँसू बह निकले।
– ‘भगवान शरणागत वत्सल हैं, सब पापों को क्षमा कर देते हैं, उन्हीं की शरण में जाओ भाई।’ वृद्ध ने स्नेहसिक्त शब्दों से खान को ढाढ़स बंधाया।
– ‘क्या आप मुझे एक भजन और सुनायेंगे।’ बैरामखाँ ने गिड़गिड़ा कर कहा।
वृद्ध फिर से तानपूरा लेकर बैठ गया और बहुत देर तक गाता रहा। जब बैरामखाँ उठा तो उसका मन पूरी तरह हल्का था। वह बहुत अनुनय करके वृद्ध को अपने साथ आगरा ले गया और अगले दिन दरबार आयोजित करके सबके सामने वृद्ध का गायन करवाया। जाने क्या था उस वृद्ध के भजनों में कि भरे दरबार में बैरामखाँ रोने लगा।
बैरामखाँ ने भीगी आँखों से एक लाख स्वर्ण मुद्रायें वृद्ध के हाथ में धर कर हाथ जोड़़ लिये। जब वृद्ध विदाई पाकर चलने लगा तो बैरामखाँ उसे छोड़ने के लिये आगरा के परकोटे तक आया। वृद्ध मुद्रायें लेकर चला गया।
बहुत दिनों बाद जब बैरामखाँ एक बार फिर मथुरा से होकर निकला तो उसे वृद्ध संगीतज्ञ का स्मरण हो आया। वह बरबस उसी कुटिया तक जा पहुंचा। जब बैरामखाँ कुटिया तक पहुंचा तो उसने फिर से एक अद्भुत दृश्य देखा उसने देखा कि कुटिया के सामने वृद्ध संगीतज्ञ तानपूरा हाथ में लिये नाच रहा है और उसके नेत्रों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही है। सम्पूर्ण परिवेश में एक संगीत माधुरी घुली हुई है। वृद्ध को घेर कर बहुत से लोग बैठे हुए उस अद्भुत दृश्य का आनंद ले रहे हैं। अचानक बैरामखाँ चौंक पड़ा। वृद्ध तो नृत्य में तल्लीन है फिर तानपूरा कौन बजा रहा है?
एक बार, दो बार, हजार बार बैरामखाँ ने आँखें फाड़-फाड़ कर देखा निश्चित रूप से तानपूरा वृद्ध नहीं बजा रहा था। आस पास बैठे व्यक्तियों में किसी के पास तानपूरा नहीं था। जाने क्या माया थी! बहुत देर तक यह अद्भुत दृश्य घटित होता रहा और बैरामखाँ ठगा हुआ सा चुपचाप खड़ा रहा। जब वृद्ध का नृत्य बंद हुआ तो सब के सब जैसे नींद से जागे।
जब सब लोग चले गये तो बैरामखाँ ने पूछा- ‘बाबा! जब आप नृत्यलीन थे तब तानपूरा कौन बजा रहा था?
वृद्ध हँसा और उसने संकेत करके खान को बैठने के लिये कहा। मंत्रमुग्ध सा बैरामखाँ उसी रेती पर बैठ गया। बहुत देर तक दोनांे चुप बैठे रहे। कोई कुछ नहीं बोला। अंत में वृद्ध ने तानपूरा उठाया और भजन गाने लगा। बैरामखाँ समझ गया कि यह भजन मुझे ही सुनाने के लिये गाया जा रहा है। कुछ ही देर में वृद्ध और बैरामखाँ दोनों की ही आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह निकली।
भजन समाप्त होने पर बैरामखाँ का ध्यान वृद्ध की देह पर गया। उसके आश्यर्च का पार न रहा। आज भी वृद्ध के कंधे पर जनेऊ के अतिरिक्त और कुछ न था और घुटनों पर वही फटी हुई धोती लिपटी थी।
– ‘बाबा! उन एक लाख मोहरों का क्या हुआ?’ बैरामखाँ ने पूछा।
– ‘उन्हें जहाँ होना चाहिये था, वहीं भेज दीं हैं खान।’
– ‘उन्हें कहाँ होना चाहिये था?’
– ‘जिन्हें उनकी आवश्यकता थी, उन्हीं के पास।’ वृद्ध ने मुस्कुरा कर संकेत किया।
यह जानकर बैरामखाँ के आश्चर्य का पार नहीं रहा कि वृद्ध ने वे मोहरें भिखारियों में बांट दी थीं। अपने और अपने सातों बेटों के लिये एक भी नहीं रखी थी। उसी दिन बैरामखाँ को ज्ञात हुआ कि वह वृद्ध कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। एक जमाने में दिल्ली का बादशाह सलीमशाह भी उसके पास इसी तरह आया करता था जिस तरह बैरामखाँ आया करता है। सलीमशाह ने वृद्ध रामदास को अपने दरबार का कलावंत घोषित कर रखा था।
बैरामखाँ को यह भी ज्ञात हुआ कि सलीमशाह ने भी एक बार एक लाख स्वर्ण मुद्रायें दी थीं जिन्हें बाबा रामदास ने उसी प्रकार भिखारियों में बांट दिया था जिस प्रकार से इस बार बांट दिया है। इसलिये सलीमशाह ने उसका नाम लखनवी रख दिया था। बैरामखाँ उस तपस्वी संगीतज्ञ को प्रणाम करके उठ आया। जाने क्यों उसके नेत्रों में बार-बार हेमू के बूढ़े बाप का निरपराध चेहरा घूम जाता था जो अस्सी साल की आयु में गर्दन कटवाने को तो तैयार था किंतु अपना धर्म त्यागने को नहीं। रह-रह कर उसे अपने ऊपर ग्लानि होती थी। किस धर्म के लिये उसने हेमू और उसके बूढ़े बाप की जान ले ली थी? क्या अंतर हो जाता यदि अकबर की जगह हेमू ही दिल्ली का बादशाह बना रहता? बैरामखाँ तो चाकर था, चाकर भी न रह सका। अपराधी घोषित कर दिया गया। यदि अकबर की जगह हेमू की चाकरी में रहता तो क्या बुरा हो जाता?
[1] भक्तकुल शिरोमणि सूरदास इन्हीं रामदास के सातवें पुत्र थे।