महाराज रघु ने यक्षराज कुबेर से ब्राह्मणकुमार के लिए कर प्राप्त किया!
अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश के पुराण-प्रसिद्ध राजा दिलीप के पुत्र राजा रघु हुए। वे अत्यंत प्रतापी एवं सत्यनिष्ठ राजा थे। अनेक पुराणों में राजा रघु की कथा मिलती है जिनके अनुसार राजा दिलीप को नंदिनी गाय की सेवा करने के प्रसाद के रूप में राजा रघु एवं रानी सुदक्षिणा को पुत्र के रूप में प्राप्त हुए थे।
जब रघु छोटे बालक थे, तब उनके पिता महाराज दिलीप ने अश्वमेध यज्ञ किया। देवराज इन्द्र ने यज्ञ के अश्व को पकड़ लिया। इस पर राजकुमार रघु ने इन्द्र से युद्ध किया तथा इन्द्र को पराजित करके यज्ञ का अश्व छुड़ा लिया।
जब राजा रघु राज्यसिंहासन पर बैठे तो उन्होंने दिग्विजय करके चारों दिशाओं में कौशल राज्य का विस्तार किया। दिग्विजय के पश्चात् राजा रघु ने अपने कुल गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से विश्वजित यज्ञ किया और उसमें अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी।
ठीक उसी समय विश्वामित्र का शिष्य कौत्स वहाँ आया। वह अपने गुरु को चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा में देने के लिए राजा रघु से याचना करने आया था।
राजा रघु ने ब्राह्मण कुमार का स्वागत किया तथा उससे कहा- ‘आज मैं कृतार्थ हुआ! आप-जैसे तपोनिष्ठ, वेदज्ञ ब्रह्मचारी के स्वागत से मेरा गृह पवित्र हो गया। आपके गुरुदेव श्री वरतन्तु मुनि अपने तेज़ से साक्षात अग्निदेव के समान हैं। उनके आश्रम का जल निर्मल एवं पूर्ण तो है? वहाँ वर्षा ठीक समय पर तो होती है? आश्रम के नीवार समय पर तो पकते हैं? आश्रम के, मृग एवं तरु पूर्ण रूप से प्रसन्न तो हैं?’
पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-
महाराज रघु के कुशल-प्रश्न शिष्टाचार मात्र नहीं थे। उनका तात्पर्य यह ज्ञात करने से था कि राजा रघु के राज्य में इन्द्र, वरुण, अग्नि, वायु, पृथ्वी आदि देवी-देवता अपने दायित्वों का निर्वहन ढंग से कर रहे हैं अथवा नहीं! पुराणों में आए विवरण के अनुसार यदि कोई देवी-देवता राजा रघु के राज्य में अपने दायित्व का निर्वहन नहीं करते थे तो राजा रघु उन्हें दण्ड देकर अनुशासित कर सकते थे। राजा रघु यह सहन नहीं कर सकते थे कि उनके राज्य में तपोमूर्ति ऋषियों के आश्रम में देवी-देवता किसी तरह का विघ्न उत्पन्न करने का साहस करें।
ब्राह्मण कुमार कौत्स ने कहा- ‘आप-जैसे धर्मज्ञ एवं प्रजावत्सल नरेश के राज्य में सर्वत्र मंगल होना स्वाभाविक है। ऋषियों के आश्रमों में भी सर्वत्र कुशलता है।’
कौत्स ने देखा कि महाराज के शरीर पर एक भी आभूषण नहीं है। चक्रवर्ती राजा होने पर भी महाराज रघु ने ब्राह्मण कुमार को मिट्टी के पात्रों में अर्घ्य एवं पाद्य निवेदित किया था। कौत्स समझ गया कि महाराज यज्ञ पूर्ण होने पर अपना सर्वस्व दान कर चुके हैं। राजमुकुट और राजदण्ड के अतिरिक्त राजा के पास कुछ नहीं है। इसलिए कौत्स ने चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त करने की अभिलाषा का उल्लेख नहीं किया।
राजा ने पूछा- ‘हे ब्राह्मण कुमार आपका अध्ययन पूर्ण हो गया होगा। अब आपके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का समय है। कृपा करके मुझे कोई सेवा बताएं। मैं इसमें अपना सौभाग्य मानूँगा।’
ब्राह्मण कुमार ने कहा- ‘हे राजन्! मैंने अपने गुरु से चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन किया है। अध्ययन पूर्ण होने पर मैंने अपने गुरु से आग्रह किया कि वे गुरु-दक्षिणा माँगें। गुरु विद्याध्ययन काल में मेरे द्वारा आश्रम में की गई सेवा से ही सन्तुष्ट थे परन्तु मेरे बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने चौदह कोटि स्वर्ण-मुद्राएँ माँगीं क्योंकि मैंने उनसे चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन किया है। हे नरेन्द्र! आपका मंगल हो। मैं आपको कष्ट नहीं दूँगा। पक्षी होने पर भी चातक सर्वस्व अर्पित करके सहज शुभ्र बने घनों से याचना नहीं करता। आप अपने त्याग से परमोज्ज्वल हैं। मैं आपसे कोई याचना नहीं करूंगा, आप मुझे अनुमति दें।’
ब्राह्मण कुमार की बात सुनकर राजा चिंतित हुए। उन्होंने कहा-‘ हे ब्राह्मण कुमार आप कृपा करके अयोध्या पधारे हैं। अतः थोड़ा अनुग्रह और करें एवं तीन दिन मेरी अग्निशाला में चतुर्थ अग्नि की भाँति सुपूजित होकर निवास करें! रघु के यहाँ से सुयोग्य वेदज्ञ ब्राह्मण निराश लौट जाए, यह मैं कैसे सह सकता हूँ।’
ब्राह्मण कुमार कौत्स को महाराज रघु की प्रार्थना स्वीकार करनी पड़ी और वह अयोध्या राज्य की यज्ञशाला में ठहर गया। अतिथि की इच्छा पूर्ण किए बिना राजा रघु को अपने भवन में प्रवेश करना अनुचित जान पड़ा। इसलिए उन्होंने अपने अनुचरों से कहा- ‘मैं आज रात रथ में ही शयन करूँगा। उसे शस्त्रों से सुसज्जित कर दो! यक्षराज कुबेर ने हमारे राज्य को कर नहीं दिया है। इसलिए मैं कल प्रातः होते ही कुबेर पर आक्रमण करने जाउंगा।’
जब राजा रघु ने दिग्विजिय यात्रा की थी और उसके बाद यज्ञ किया था, तब दोनों ही अवसरों पर भारत भर के समस्त नरेश अयोध्या को कर दे चुके थे तथा राजा रघु कर में प्राप्त सम्पूर्ण कोष ब्राह्मणों एवं निर्धनों को दान कर चुके थे किंतु दिग्पाल कुबेर ने अयोध्या को कर नहीं दिया था। अन्य समस्त देवता स्वर्ग में रहते थे इसलिए राजा रघु उनसे तो कर नहीं मांग सकते थे किंतु कुबेर स्वर्ग में नहीं रहता था। उसकी राजधानी अलकापुरी में थी जो हिमालय पर स्थित थी। इस कारण वह अयोध्या राज्य का अंग थी। इस नाते कुबेर को चाहिए था कि वह अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट को कर दे। कुबेर से कर वसूलने का निश्चय करके महाराज रघु रथ में ही सो गए ताकि अगली प्रातः अलकापुरी पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर सकें।
अगली प्रातः महाराज रघु ब्रह्ममुहूर्त में उठे और अपने शस्त्र संभालने लगे। जैसे ही महाराज ने शंख ध्वनि की, वैसे ही अयोध्या राज्य के कोषाध्यक्ष ने आकर राजा को सूचित किया कि महाराज आज प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में जब मैं कोषागार में कुबेर की पूजा करने गया तो वहाँ अचानक ही स्वर्ण की वर्षा होने लगी।
महाराज रघु समझ गए कि कुबेर ने अयोध्या का कर चुका दिया है। महाराज रघु ने उसी समय ब्राह्मण कुमार कौत्स को बुलाकर उससे कहा कि यह समस्त धन यक्षराज कुबेर ने आपके निमित्त दिया है। अतः आप इस द्रव्य को स्वीकार करें।
कौत्स ने कहा- ‘राजन्! मैं ब्राह्मण हूँ। मधुकरी से प्राप्त कण ही मेरी विहित वृत्ति है। गुरु दक्षिणा की चौदह कोटि स्वर्ण मुद्राओं से अधिक एक भी मुद्रा का स्पर्श मेरे लिये लोभ तथा पाप है।’ इस प्रकार ब्रह्मचारी कौत्स ने चौदह कोटि स्वर्ण मुद्रा स्वीकार कर लीं और राजा को आशीर्वाद देकर वहाँ से चला गया। राजा ने शेष मुद्राएं ब्राह्मणों को दान कर दीं।
महाराज रघु ने दीर्घकाल तक भारत की प्रजा का पालन किया। वे इक्ष्वाकु कुल में सर्वश्रेष्ठ राजा माने गए इसलिए इक्ष्वाकु कुल को रघुवंश कहा गया। रामायण, महाभारत एवं लगभग समस्त पुराणों में महाराज रघु का उल्लेख किया गया है। महाकवि कालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रघुवंशम्’ की रचना इन्हीं महाराज रघु को केन्द्र में रखकर की है।
रघु के पुत्र अज, अज के पुत्र दशरथ और दशरथ के पुत्र राम अयोध्या के नरेश हुए। रघु के वंशज होने के कारण ही राम को राघव, राघवेन्द्र, रघुवर, रघुवीर, रघुनाथ, रघुकुल भूषण आदि सम्मानजनक शब्दों से विभूषित किया जाता है।