भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना का स्वप्न महाराणा प्रताप से लेकर छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल बुंदेला, गुरु गोविंदसिंह, बंदासिंह बैरागी तथा महाराजा अजीतसिंह जैसे अनेक वीर राजाओं ने देखा किंतु उनके प्रयास अन्य राजाओं का समर्थन नहीं मिलने से असफल हो जाते थे। महाराजा अजीतसिंह भी अपने बाल्यकाल से भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना का स्वप्न देखा करता था।
मुहम्मदशाह रंगीला ने दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद अजमेर सूबे का प्रबंध महाराजा अजीतसिंह को सौंप दिया तथा साथ ही उसे गुजरात का सूबेदार भी बना दिया। यह महाराजा अजीतसिंह का चरमोत्कर्ष था किंतु जब महाराजा अजीतसिंह ने गुजरात तथा अजमेर में गौवध निषिद्ध कर दिया तो बादशाह मुहम्मदशाह महाराजा से चिढ़ गया और उसने महाराजा अजीतसिंह से अजमेर वापस लेकर वहाँ फिर से मुगल सूबेदार नियुक्त कर दिया।
जब दिल्ली से आए मुगल अधिकारियों ने अजमेर अपने अधिकार में ले लिया तो महाराजा के अधिकारियों ने महाराजा के पास इस आशय की सूचना भिजवाई। महाराजा अजीतसिंह यह सुनते ही आग-बबूला हो गया और उसने अपनी तलवार निकालकर शपथ खाई कि वह अजमेर को अपने अधीन करेगा।
कुछ दिनों बाद महाराजा ने तीस हजार घुड़सवारों के साथ अजमेर नगर को घेर लिया तथा मुगल सूबेदार को अजमेर से मारकर भगा दिया। अजमेर नगर एवं तारागढ़ पर महाराजा का फिर से अधिकार हो गया।
अजमेर पर महाराजा अजीतसिंह के स्वंतत्र रूप से अधिकार करते ही अजमेर की मस्जिदों में बांग शांत हो गई। मंदिरों में घण्टे बजने लगे। कुरानों के स्थान पर पुराण सुनाई देने लगे तथा मस्जिदों का स्थान मंदिरों ने ले लिया। इस प्रकार अजमेर में महाराजा अजीतसिंह के राजत्व में हिन्दू राज्य की स्थापना हो गई।
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काजी ब्राह्मणों के लिये रास्ता छोड़ने लगे। जहाँ गायें काटी गई थीं, वहाँ यज्ञों के लिये कुण्ड खोदे जाने लगे। अजीतसिंह ने सांभर तथा डीडवाना झीलों पर भी अधिकार कर लिया। उसने अनेक दुर्गों पर राठौड़ों के झण्डे चढ़ा दिये तथा बादशाह की परवाह छोड़कर स्वाधीनता सहित आनासागर के शाही महलों में रहने लगा।
अजीतसिंह अब बादशाह द्वारा दिये गये सिंहासन पर न बैठ कर अजमेर में अपने सिंहासन पर बैठा। उसने अपने सिर पर छत्र धारण कर लिया जो उसकी सर्वोच्चता का प्रतीक था। उसने अपने नाम के सिक्के ढलवाये, लम्बाई नापने के लिये अपना गज तथा भार नापने के लिये अपना सेर चलाया। उसने न्याय करने के लिये अपना न्यायालय स्थापित किया। अपने सरदारों के लिये नये रैंक बनाये। उसने सम्प्रभु शासक के प्रत्येक चिह्न को स्थापित किया। एक कवि ने अजीतसिंह के अजमेर में होने के महत्त्व को रेखांकित करते हुए लिखा है-
‘अजमेर में अजमल वैसा ही था जैसे दिल्ली में अस्पति।’
अर्थात्- महाराजा अजीतसिंह अजमेर का उसी प्रकार स्वतंत्र शासक था जिस प्रकार दिल्ली में मुगल बादशाह था।
महाराजा अजीतसिंह की सफलता के समाचार न केवल भारत वर्ष के कौने-कौने में फैल गये, बल्कि भारत से बाहर मक्का और ईरान में भी उसकी खबरें पहुँच गईं कि भारत में एक नए हिन्दू राज्य की स्थापना हुई है। ये समाचार सुनकर बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने अजमेर को फिर से प्राप्त करने की तैयारी की। उसने सआदत खाँ को अजमेर की सूबेदारी दी तथा अजमेर पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी परंतु इस कार्य में कोई भी मुस्लिम अमीर, सआदत खाँ का साथ देने को तैयार नहीं हुआ।
इस कारण सआदत खाँ की हिम्मत नहीं हुई कि वह अजीतसिंह पर हमला करे। अक्टूबर 1721 में हैदरकुली खाँ को गुजरात की तथा मुजफ्फर अली खाँ को अजमेर की सूबेदारी दी गई। मुजफ्फर अली खाँ बीस हजार आदमी लेकर अजमेर पर अधिकार करने पहुँचा किन्तु अजीतसिंह ने अजमेर खाली नहीं किया तथा महाराजकुमार अभयसिंह को मुजफ्फर अली खाँ का सामना करने के लिए भेजा। मुजफ्फर अली खाँ मनोहरपुर में बैठा रहा। जब धनाभाव के कारण मुजफ्फर अली खाँ के सिपाही उसे छोड़कर जाने लगे तो सवाई राजा जयसिंह ने मुजफ्फर अली खाँ को अपनी राजधानी आमेर में बुला लिया।
इस प्रकार मुजफ्फर अली खाँ बिना युद्ध किए ही लौट गया और उसने अजमेर की सूबेदारी का फरमान तथा खिल्लअत बादशाह को पुनः लौटा दी। बादशाह ने सैयद नुसरतयार खाँ बरहा को अजमेर का नया सूबेदार बनाया तथा उसे अजीतसिंह पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी।
अजीतसिंह को जब यह सूचना मिली कि नुसरतयार खाँ अजमेर पर अधिकार करने आ रहा है तो महाराजा अजीतसिंह ने अपने पुत्र महाराजकुमार अभयसिंह को नारनौल, अलवर, तिजारा, शाहजहाँपुर, दिल्ली तथा आगरा के आस-पास के प्रदेशों को लूटने की आज्ञा दी।
महाराजकुमार अभयसिंह दिल्ली के आठ मील दूर सराय अलीवर्दी खाँ तक धावे मारने लगा जिससे दिल्ली में कोहराम मच गया। नारनौल में राजकुमार अभयसिंह का, मुगल फौजदार बयाजीद खॉं मेवाती के हाकिम से सामना हुआ। अभयसिंह ने उसे परास्त करके नारनौल को लूटा तथा अलवर, तिजारा और शाहजहाँपुर होते हुए दिल्ली से 16 किलोमीटर दूर सराय अली वर्दी खाँ तक जा पहुँचा।
इसके बाद अजीतसिंह ने मुहम्मदशाह को चिट्ठी भिजवाई कि आपने नुसरतयार को अजमेर का गर्वनर बनाकर ठीक नहीं किया। इस पर बादशाह ने अजीतसिंह को ही फिर से अजमेर का सूबेदार बना दिया तथा सांभर के फौजदार नाहर खाँ को अजमेर सूबे का दीवान नियुक्त कर दिया।
महाराजा अजीतसिंह को नाहर खाँ की नियुक्ति पसंद नहीं आई। अतः 6 जनवरी 1723 को अजीतसिंह ने मुगल शिविर पर आक्रमण करके नाहर खाँ, रूहेला खाँ तथा उसके 25 अधिकारियों को मार डाला।
महाराजा अजीतसिंह की इस कार्यवाही के बाद, मुहम्मदशाह को लगने लगा कि जल्दी ही कुछ नहीं किया गया तो गंगा-यमुना के हरे-भरे मैदानों पर फिर से हिन्दुओं का शासन हो जाएगा। बादशाह ने मुगल साम्राज्य के समस्त सेनापतियों और अमीर-उमरावों को अजमेर पहुँचने के आदेश दिये।
उसने हैदर कुली खाँ को अजमेर का सूबेदार बनाया तथा शर्फुद्दौला इरदत-मन्द खाँ को विशाल सेना देकर अजीतसिंह के विरुद्ध भेज दिया। मुहम्मद खाँ बंगश तथा अन्य कई अमीर, उमराव एवं सरदार, 50 हजार घोड़े लेकर अजीतसिंह के विरुद्ध इकट्ठे हुए। दुर्भाग्य से जयपुर का राजा सवाई जयसिंह तथा राजा गिरिधर बहादुरसिंह भी मुसलमानों की तरफ हो गए। क्योंकि जयसिंह कभी नहीं चाहता था कि मारवाड़ के राठौड़ उत्तर भारत में सबसे बड़ी ताकत बन जाएं।
महाराजा जयसिंह के विरोध के कारण महाराजा अजीतसिंह के लिए संभव नहीं रहा कि वह मुगलों को अकेला ही सामना कर सके। यह भारत भूमि का दुर्भाग्य ही था कि जिस सवाई जयसिंह को एक दिन स्वयं महाराजा अजीतसिंह ने हाथ पकड़ कर जयपुर का राजा बनाया था आज वही जयसिंह, महाराजा अजीतसिंह के विरोध पर उतर आया।
महाराजा अजीतसिंह ने निमाज ठाकुर अमरसिंह और खीमसिंह भण्डारी के पुत्र विजयसिंह को अजमेर का दायित्व सौंप दिया तथा स्वयं अपने परिवार को लेकर अपनी राजधानी जोधपुर चला गया।
ठाकुर अमरसिंह तथा विजयसिंह ने एक महीने तक मुगलों को अजमेर में नहीं घुसने दिया। एक दिन हैदर कुली खाँ, सरबलंद खाँ तथा महाराजा जयसिंह हाथी पर सवार होकर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जा रहे थे, तब तोप का एक गोला उनके दल के एक हाथी पर आकर गिरा। इस गोले से हाथी पर सवार महावत की मौत हो गई। इससे शाही पक्ष में भय व्याप्त हो गया। उन्होंने महाराजा जयसिंह के माध्यम से महाराजा अजीतसिंह के साथ संधि वार्ता चलाई।
दोनों पक्षों में संधि की शर्तें निर्धारित होने के बाद महाराजा अजीतसिंह ने अजमेर खाली करने तथा कुंवर अभयसिंह को फिर से शाही दरबार में भेजने का निर्णय लिया।
इस संधि के बाद अजीतसिंह की सेना अपना झण्डा फहराती हुई, नगाड़े बजाती हुई, सम्मान पूर्वक दुर्ग से बाहर निकलकर मारवाड़ को चली गई। इस प्रकार ईस्वी 1724 में अजमेर पर फिर से मुगलों का अधिकार हो गया तथा जफरकुली खाँ को अजमेर का सूबेदार बनाया गया।
जयपुर नरेश सवाई जयसिंह नहीं चाहता था कि अजमेर पर जोधपुर नरेश अजीतसिंह का अधिकार हो। इसलिये उसने अपने मित्र अजीतसिंह से गद्दारी करके अजमेर पर मुगलों का अधिकार करवा दिया। हिन्दू राज्य की स्थापना का स्वप्न फिर से भंग हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता