ईस्वी 999 में महमूद गजनवी गजनी का शासक बना। जैसे ही खलीफा ने उसे सुल्तान स्वीकार किया वैसे ही महमूद गजनवी ने भारत पर हमला बोल दिया। उसका पहला आक्रमण ई.1000 में भारत के सीमावर्ती क्षेत्र में हुआ जहाँ कुछ जनजातीय कबीले निवास किया करते थे। इस प्रकार ग्याहरवीं शताब्दी के आरम्भ होते ही महमूद गजनवी ने भारत का पश्चिमी दरवाजा खटखटा दिया।
भारतवासी वैदिक काल से ही राष्ट्र शब्द से परिचित थे। यजुर्वेद की एक ऋचा में ‘राष्ट्र मे देहि’ और अथर्ववेद की एक ऋचा में ‘त्वा राष्ट्र भृत्याय’ जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। अथर्ववेद की रचना के काल तक भारतीयों में आसेतु-हिमालय एक राष्ट्र के होने का भाव जागृत हो चुका था। भारत के लोग भारत को आर्यभूमि, आर्यावर्त, उत्तरापथ, दक्षिणापथ, जम्बूद्वीप, भारतखण्ड आदि कहते थे। देवी-देवताओं की पूजाओं में भी इन शब्दों का प्रयोग होता था। ईसा से लगभग सवा तीन सौ साल पहले आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य ने भारतवर्ष को एक राष्ट्र में बांधने की परम्परा आरम्भ कर दी थी।
मौर्य एवं गुप्त सम्राटों ने राष्ट्र के एकीकरण की दिशा में बहुत कार्य किया किंतु जब छठी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राजय बिखर गया तब देश में कोई केन्द्रीय शक्ति नहीं रही। तब विभिन्न कुलों के राजाओं ने अपने-अपने राज्यों को ही अपना राष्ट्र बनाकर उसकी आराधना करनी आरम्भ कर दी। प्रत्येक राजा ने अपने राज्य की सीमा को बढ़ाना ही क्षत्रिय का एकमात्र कर्त्तव्य एवं राष्ट्रबोध समझ लिया और वे परस्पर लड़ने लगे।
महमूद गजनवी के आक्रमण आरम्भ होने के समय भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। प्रत्येक राज्य के राजा, मंत्री एवं नागरिक अपने राज्य को ही अपनी मातृभूमि तथा अपना राष्ट्र समझते थे। ज्यादातर मामलों में तो राजा ही राष्ट्र का पर्यायवाची था। राजा की रक्षा करना ही राष्ट्र की रक्षा करना समझा जाता था।
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भारतीय राज्यों के शासक परस्पर लड़कर अपनी शक्ति का हा्रस करते थे। इस कारण उनमें बाह्य आक्रमणों का सामना करने की शक्ति नहीं बची थी तथा भारत के लोगों में भारत को एक राष्ट्र मानकर राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का विचार तक उपलब्ध नहीं था।
भारतीय राजा अपने जीवन के अधिकांश समय में परस्पर शत्रुता और अपने रनिवास की समस्याओं में डूबे हुए थे। इस कारण वे बाह्य शत्रुओं के प्रति पूरी तरह उदासीन थे तथा अपने घमण्ड के कारण किसी एक राजा का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। हर समय चलने वाले युद्धों में भारत के वीर युवक इतनी बड़ी संख्या में मौत के गाल में समा जाते थे कि क्षत्रिय युवक के लिए बारह वर्ष से अधिक जीना धिक्कारपूर्ण कार्य माना जाने लगा था। इस कारण भारत में अच्छे सैनिकों की कमी हो गई थी।
महमूद गजनवी के आक्रमणों के आरम्भ होने के समय उत्तरी भारत में मुलतान तथा सिंध प्रदेशों में दो छोटे स्वतंत्र मुस्लिम राज्य थे जो सुबुक्तगीन के समय से चले आ रहे थे। पंजाब के विशाल भूभाग पर हिन्दूशाही वंश के राजा जयपाल का शासन था। जयपाल का राज्य चिनाब नदी से लेकर हिन्दूकुश पर्वतमाला तक विस्तृत था। उसके पड़ौस में काश्मीर का स्वतंत्र राज्य था। कन्नौज पर प्रतिहार शासक राज्यपाल का शासन था।
बंगाल में पाल शासक महीपाल का शासन था। राजपूताना पर चौहानों का शासन था जिनकी राजनधानी अजमेर थी। गुजरात, मालवा, बुंदेलखण्ड तथा मध्यभारत में भी अनेक स्वतंत्र राज्य स्थित थे। दक्षिण में चालुक्य एवं चोल वंशों का शासन था। पाल, गुर्जर प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट राजाओं में विगत ढाई सौ वर्षों से त्रिकोणीय संघर्ष चल रहा था। जो एक दूसरे को नष्ट करके ही शांत होने वाले थे।
इस राजनीतिक कमजोरी के उपरांत भी भारत की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी क्योंकि युद्धक्षेत्र में लड़ने का काम केवल राजपूत योद्धा करते थे। किसानों, शिल्पियों, व्यापारियों तथा कर्मकारों को इन युद्धों से कोई लेना-देना नहीं था। वे अपने काम में लगे रहते थे। देश में धार्मिक वातावरण था तथा प्रजा अपनी इच्छानुसार वैदिक, पौराणिक, शाक्त, शैव, बौद्ध एवं जैन आदि धर्मों में से अपनी-अपनी पसंद के मतों एवं सम्प्रदायों में विश्वास करती थी।
हिन्दू राजाओं द्वारा प्रजा पर बहुत कम ‘कर’ लगाए गए थे जिसके कारण प्रजा की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। मंदिरों में इतना चढ़ावा आता था कि वे अपार धन-सम्पदा से भर गए थे। भारत की इस अतुल्य सम्पदा की ओर ललचा कर महमूद गजनवी जैसा कोई भी विदेशी आक्रांता भारत की ओर सरलता से मुँह कर सकता था।
ई.1000 में महमूद गजनवी ने भारत के सीमावर्ती प्रदेश पर आक्रमण करके पर्वतीय प्रदेशों में रहने वाली आदिम जनजातियों के कबीलों को परास्त किया। उसने वहाँ के कुछ दुर्ग तथा नगर जीतकर उन पर अपने अधिकारी नियुक्त कर दिए। ई.1001 में महमूद गजनवी ने पंजाब के हिन्दूशाही शासक जयपाल पर आक्रमण किया। महमूद के दरबारी लेखकों ने जयपाल को ‘अल्लाह का शत्रु’ लिखा है। 27 नवम्बर 1001 को पेशावर के निकट घनघोर संग्राम हुआ। महमूद ने इस युद्ध में चुने हुए 15 हजार घुड़सवारों को उतारा। इस युद्ध में जयपाल ने जबर्दस्त वीरता का प्रदर्शन किया किंतु अंत में वह अपने पुत्र-पौत्रों एवं मंत्रियों सहित बंदी बना लिया गया।
उतबी ने लिखा है- ‘उन सबको जिनके चेहरों पर कुफ्र के निशान स्पष्ट दिखाई देते थे, उन्हें रस्सियों में बांधकर पापियों की तरह सुल्तान के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। ऐसा लगता था जैसे उन्हें दोजख में भेजा जा रहा है। उनमें से कुछ के हाथ बलपूर्वक पीछे बांध दिए गए थे और कुछ की गर्दन पकड़कर घूंसों द्वारा धकेला गया था। महमूद के सैनिकों ने जयपाल की गर्दन से मणियों की माला उतार ली जिसकी कीमत दो लाख दिरहम थी। उसके साथियों के आभूषण भी छीन लिए गए। विजेताओं को लूट में इतना अधिक धन मिला कि उसका हिसाब लगाना कठिन था।’
राजा जयपाल ने महमूद को विपुल धन अर्पित करके तथा 50 हाथी देने का वचन देकर स्वयं को महमूद की कैद से मुक्त करवाया। भारतीय राजा जब किसी दूसरे राजा को परास्त करते थे तो उसके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करते थे तथा प्रायः पराजित राजा से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके उसका राज्य उसे लौटा देते थे किंतु राजा जयपाल को एक अपवित्र म्लेच्छ के हाथों अपमानित होना पड़ा, इसे वह सहन नहीं कर सका। आत्मग्लानि के कारण ई.1002 में राजा जयपाल जीवित ही चिता में बैठ गया। उसके बाद जयपाल का पुत्र आनंदपाल पंजाब का शासक हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता