Thursday, November 21, 2024
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महाराजा जसवंतसिंह

महाराजा जसवंतसिंह मुगलिया राजनीति की चौसर पर खड़ा एक ऐसा मोहरा था जिसकी मिसाल दुनिया भर में और कहीं मिलनी मुश्किल है। जसवंतसिंह से पूरी मुगलिया सल्तनत डरती थी किंतु जसवंतसिंह को वह सब करना पड़ा जो वह कभी भी नहीं करना चाहता था!

जब बनारस और बंगाल के बीच में रुके हुए शाहशुजा ने शामूगढ़ में दारा की पराजय के समाचार सुने तो उसके मन में आशाओं के लड्डू फूटने लगे। शाहशुजा को विश्वास था कि औरंगजेब अपने पुराने वायदे पर कायम रहेगा जिसमें औरंगजेब ने शाहशुजा को हिन्दुस्तान का बादशाह बनाने का वचन दिया था। इसलिए शाहशुजा अपनी सेना लेकर पटना से आगरा की ओर बढ़ा।

मार्ग में शाहशुजा ने सुना कि औरंगजेब ने मुरादबक्श को बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया है तो शाहशुजा को पक्का विश्वास हो गया कि औरंगजेब ने शाहशुजा को बादशाह बनाने के लिए मुरादबक्श को रास्ते से हटाया है।

दिसम्बर 1658 में शाहशुजा इलाहाबाद होता हुआ खानवा नामक स्थान पर पहुँच गया। जब खानवा के मैदान में औरंगजेब का पुत्र सुल्तान मुहम्मद, शाहशुजा का मार्ग रोक कर खड़ा हो गया तब कहीं जाकर शाहशुजा की आंखें खुलीं और वह समझ पाया कि मक्कार औरंगजेब शाहशुजा के साथ भी वही करने वाला है जो उसने अपने बाप शाहजहाँ, बड़े भाई दारा शिकोह तथा छोटे भाई मुरादबक्श के साथ किया है।

अब शाहशुजा हिन्दुस्तान का ताज और दिल्ली तथा आगरा के लाल किले औरंगजेब से लड़कर ही प्राप्त कर सकता था। खानवा के मैदान में शाहशुजा अपनी सेना को जमा ही रहा था कि औरंगजेब स्वयं भी अपनी सेनाएं लेकर खानवा आ गया। औरंगजेब के आदेश से मीर जुमला भी दक्षिण से एक बड़ी सेना लेकर आ पहुंचा। इस प्रकार खानवा में औरंगजेब की सेना इतनी विशाल हो गई कि शाहशुजा किसी भी तरह उसे परास्त नहीं कर सकता था।

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फिर भी शाहशुजा ने हिम्मत नहीं हारी और उसने औरंगजेब की सेना पर हमला किया किंतु शाहशुजा की सेना के बंगाली सैनिक औरंगजेब की सेना के मुकाबले में नहीं टिक सकते थे इसलिए शाहशुजा की सेना शीघ्र ही मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई।
शाहशुजा ने भी अपनी सेना के साथ बंगाल चले जाने में अपनी भलाई समझी। औरंगजेब ने अपने पुत्र मुहम्मद खाँ तथा मीर जुमला को शाहशुजा का पीछा करने के लिए भेजा।
इस बीच आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह ने महाराजा जसवंतसिंह से सम्पर्क किया तथा उसे औरंगजेब के पक्ष में आने के लिए आमंत्रित किया। महाराजा जसवंतसिंह मिर्जाराजा जयसिंह की बातों में आकर औरंगजेब से मिलने पहुंचा। औरंगजेब ने महाराजा जसवंतसिंह का भव्य स्वागत किया तथा उसे चांदी के हौदे से सजा हाथी, हीरों से जड़ी तलवार, मोतियों का एक गुच्छा और ढाई लाख रुपए सालाना आय वाला परगना प्रदान किया। औंरगजेब ने महाराजा को दिल्ली की रक्षा करने पर तैनात किया।
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इसी बीच बंगाल की ओर भागता हुआ शाहशुजा खजुआ नामक स्थान पर मोर्चा बांधकर बैठ गया। इस पर औरंगजेब भी अपनी सेनाएं लेकर खजुआ जा पहुंचा और उसने महाराजा जसवंतसिंह को अपनी सेनाओं सहित खजुआ पहुंचने के निर्देश दिए।

महाराजा जसवंतसिंह खजुआ के मैदान में औरंगजेब की तरफ से लड़ने के लिए पहुंच तो गया किंतु महाराजा की आत्मा महाराजा को धिक्कारती थी। यह वही औरंगजेब था जिसने धरमत के मैदान में कासिम खाँ से गद्दारी करवाकर महाराजा की सेना को नष्ट कर दिया था तथा महाराजा के प्राण लेने पर तुल गया था किंतु महाराजा जयसिंह के कहने से आज जसवंतसिंह औरंगजेब की तरफ से लड़ने को तैयार था।

महाराजा ने मन ही मन निर्णय लिया कि जिस तरह औरंगजेब ने गद्दारी करके महाराजा की सेना को मार डाला था, अब महाराजा भी उसी छल-विद्या का सहारा लेकर औरंगजेब को मार डालेगा तथा अपने पुराने मित्र शाहजहाँ को कैद से मुक्त करवाकर फिर से बादशाह बनाएगा।

जोधपुर राज्य के इतिहासकार विश्वेश्वर नाथ रेउ के अनुसार शाहशुजा ने महाराजा जसवंतसिंह को पत्र लिखकर उसे औरंगजेब के विरुद्ध उकसाया था जबकि मुगल इतिहास के लेखक यदुनाथ सरकार के अनुसार महाराजा ने शाहशुजा को पत्र लिखकर सूचित किया था कि मैं आज रात को पीछे की ओर से औरंगजेब पर हमला करूंगा, इसलिए आप भी उसी समय सामने की ओर से शाही सेना पर टूट पड़िए। इस प्रकार औरंगजेब को मारकर बादशाह को छुड़ा लिया जाएगा।

शाहशुजा ने महाराजा की योजना पर अमल करना स्वीकार कर लिया। आधी रात के बाद महाराजा जसवंतसिंह ने औरंगजेब की सेना के पीछे से आक्रमण कर दिया किंतु मुगलिया खून में गद्दारी की जो फितरत थी, उसे शाहशुजा ने यहाँ भी निभाया और वह औरंगजेब की सेना पर सामने से आक्रमण करने के लिए नहीं पहुंचा। जिस समय महाराजा जसवंतसिंह ने औरंगजेब के शिविर पर आक्रमण किया, उस समय औरंगजेब आधी रात की नमाज पढ़ कर उठा ही था। औरंगजेब की सेना ने महाराजा के विद्रोह को निष्फल कर दिया। इस पर महाराजा के सैनिकों ने शहजादे मुहम्मद तथा कई अमीरों के डेरे लूट लिए तथा उसी समय मारवाड़ के लिए रवाना हो गए।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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