जोधपुर नरेश जसवंतसिंह राठौड़ शाहजहाँ एवं औरंगजेब कालीन राजनीति में एक बहुप्रतिष्ठित एवं बुद्धिमान राजा हुआ है किंतु मुगलिया राजनीति की चौसर ने उसे ऐसा जकड़ लिया कि लाख चाहने पर भी जसवंतसिंह उस चौसर से स्वयं को अलग नहीं कर सका।
दारा शिकोह आगरा से भागकर दिल्ली पहुंचा था। उसका विचार था कि वह दिल्ली में मोर्चा बांधकर बैठ जाएगा किंतु इस समय दारा के साथ इतनी सेना नहीं थी कि वह दिल्ली की मोर्चाबंदी कर सकता। इसलिए उसने महाराजा जसवंतसिंह के पास अपना संदेशवाहक भिजवाया तथा उनसे सेना लेकर आने को कहा।
महाराजा जसवंतसिंह ने दारा को प्रत्युत्तर भिजवाया कि वह दिल्ली छोड़कर अजमेर आ जाए ताकि दारा को अजमेर के चारों तरफ स्थित राजपूत राज्यों से सहायता मिल सके। महाराजा जसवंतसिंह की सलाह पर दारा अपने हरम, खजाने तथा सेना को लेकर अजमेर आ गया। इस समय तक दारा के कुछ विश्वस्त सेनापति भी अपनी सेनाएं लेकर दारा की सहायता के लिए आ गए थे।
अजमेर का नाजिम तरबियात खाँ, दारा का मुकाबला करने में असमर्थ था। इसलिये उसने दारा के पहुँचने से पहले ही अजमेर खाली कर दिया और औरंगजेब के पास आगरा चला गया। जब दारा अजमेर आ गया तो महाराजा जसवंतसिंह भी जोधपुर से रवाना होकर रूडियावास पहुँच गया।
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
उधर जब औरंगजेब को ज्ञात हुआ कि महाराजा जसवंतसिंह ने दारा शिकोह को सहयोग देने का आश्वासन दिया है तो उसने आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह से कहा कि वह महाराजा जसवंतसिंह को दारा शिकोह से अलग करे। जब दारा शिकोह को महाराजा जयसिंह की गतिविधियों के बारे में ज्ञात हुआ तो दारा ने पुनः महाराजा जसंवतसिंह से सहायता उपलब्ध कराने का अनुरोध भिजवाया।
उन दिनों फ्रैंच लेखक बर्नियर भारत में ही था। उसने लिखा है कि महाराजा जयसिंह ने महाराजा जसवंतसिंह को पत्र लिखकर सूचित किया कि यदि जसवंतसिंह दारा का साथ छोड़ दे तो बादशाह अर्थात् औरंगजेब, महाराजा जसवंतसिंह के अब तक के अपराधों को क्षमा कर देगा तथा महाराजा ने खजुआ में मुगलों के डेरे से जो धन लूटा है, उसकी भी मांग नहीं करेगा। बादशाह, महाराजा को पुनः गुजरात का सूबेदार नियुक्त कर देगा जहाँ वह पूरे स्वाभिमान के साथ शासन कर सकेगा तथा शांति एवं सुरक्षा के साथ रह सकेगा।
इस पर जोधपुर नरेश जसवंतसिंह राठौड़ ने अपने विश्वस्त अनुचर आसा माधावत को मिर्जाराजा जयसिंह के पास भेजा। मिर्जाराजा जयसिंह, आसा माधावत को बादशाह के पास लेकर गया। बादशाह ने अपने पंजे का निशान लगाकर एक फरमान जसवंतसिंह के नाम जारी किया जिसके अनुसार जसवंतसिंह को उसका राज्य लौटा दिया गया तथा उसका पुराना मनसब बहाल कर दिया गया।
जब यह फरमान जसवंतसिंह के पास पहुँचा तो जसवंतसिंह रूडियावास से पुनः जोधपुर लौट गया। इस पर दारा ने एक संदेशवाहक जसवंतसिंह के पास भेजा। उस समय जसवंतसिंह जोधपुर से 40 मील दूर रह गया था। जसवंतसिंह ने दारा के संदेशवाहक को स्पष्ट मना कर दिया।
जब संदेशवाहक ने अजमेर लौटकर इसकी सूचना दी तो दारा ने शहजादे सिपहर शिकोह को एक सौ आदमियों के साथ जोधपुर नरेश जसवंतसिंह राठौड़ की सेवा में भेजकर सहायता का अनुरोध दोहराया किंतु यह अनुरोध भी बेकार चला गया। शहजादा खाली हाथ अजमेर लौट आया।
निराश होकर दारा शिकोह ने अपनी सेना के भरोसे ही युद्ध लड़ने का निर्णय लिया। उधर आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह तथा जम्मू नरेश राजा रामरूप राय की सेनाएं औरंगजेब की सहायता के लिये अजमेर की तरफ बढ़ रही थीं। दारा ने तारागढ़ दुर्ग की तलहटी में अपनी सेना की व्यूह रचना की। उसने अजमेर की तरफ आने वाले रास्तों को पत्थरों और मिट्टी की दीवारों से बंद करवा दिया तथा स्थान-स्थान पर मोर्चे खड़े करवा दिए।
दारा ने प्रत्येक मोर्चे पर एक प्रमुख व्यक्ति को तैनात किया। दारा के दाहिनी ओर पहला मोर्चा सयैद इब्राहीम, अस्कर खान, जान बेग तथा उसके पुत्र के अधीन था। यह मोर्चा तारागढ़ के ठीक निकट था। इस मोर्चे से अगला मोर्चा फिरोज मेवाती के अधीन था जो दारा के सर्वाधिक योग्य एवं विश्वस्त सेनापतियों में से था।
इसके आगे के मार्ग पर बड़े अवरोध खड़े किये गये तथा इसी के निकट दारा ने अपना निवास नियत किया। दारा के बाईं ओर एक और बड़ा मोर्चा स्थापित किया गया जिसमें सिपहर शिकोह का मंत्री शाहनवाज खाँ नियुक्त किया गया।
इसी स्थान पर मुहम्मद शरीफ को नियुक्त किया गया जिसे किलीज खान का खिताब प्राप्त था और जिसे मुख्य खजांची तथा बरकंदाज नियुक्त किया गया था। इस मोर्चे के पीछे शहजादे सिपहर शिकोह को रखा गया जहाँ तारागढ़ की पहाड़ी स्थित थी।
अजमेर से चार मील दक्षिण में तारागढ़ की पहाड़ियाँ एक तंग घाटी में बदल जाती हैं, इसे नूर-चश्मा कहते हैं। यहाँ से एक मार्ग इंदरकोट की घाटी होता हुआ अजमेर नगर की ओर जाता था। तारागढ़ के पश्चिम में देवराई गांव था। दारा की सेना ने इस चश्मे के दोनों ओर फैलकर तंग घाटी का रास्ता रोक लिया।
दारा की सेना का बायां पार्श्व गढ़ बीठली की पहाड़ी पर टिका था तथा दाहिना पार्श्व कोकला नामक दुर्गम पहाड़ी पर टिका हुआ था। उसके सामने पत्थरों की एक विशाल एवं मजबूत दीवार थी जो प्राचीन इंदरकोट दुर्ग का बचा हुआ अवशेष थी। इस दीवार के क्षतिग्रस्त हिस्से को मजबूत चट्टानों से भर दिया गया।
इस प्रकार की मोर्चाबंदी के कारण औरंगजेब के पास दारा तक पहुँचने के लिए, चश्मे की तंग घाटी वाला मार्ग ही शेष रह गया। आसपास की गढ़ियों पर तोपें चढ़ा दी गईं तथा उनके चारों ओर खाइयां खुदवा दी गईं। समस्त गढ़ियों को अजमेर से आवागमन करने के लिये जोड़ दिया गया ताकि अजमेर में स्थित रसद सामग्री तक उसकी सेनाओं का संचार बना रहे। इस प्रकार दारा औरंगजेब से अपनी आखिरी लड़ाई की तैयारियां करके बैठ गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता