अहमदशाह अब्दाली भरतपुर के महाराजा सूरजमल तथा बंगाल के नवाब शुजाउद्दौला के खजाने लूटने की नीयत से भारत आया था किंतु दिल्ली आकर वह समझ गया कि बंगाल तक पहुंचना असंभव है। अतः उसने भरतपुर राज्य पर अपनी आंख गढ़ाई। इस पर महाराजा सूरजमल ने अहमदशाह अब्दाली को भरतपुर पर हमला करने की चुनौती दी!
जब अहमदशाह अब्दाली ने आगरा से दिल्ली होते हुए अफगानिस्तान लौट जाने का निर्णय किया तो उसने भरतपुर राज्य के महाराजा सूरजमल को एक चिट्ठी भिजवाई कि यदि वह कर नहीं देगा तो उसके परिणाम बहुत भयंकर होंगे। महाराजा ने इस पत्र का जवाब तक नहीं दिया।
इस पर अहमदशाह अब्दाली ने एक और पत्र महाराजा सूरजमल को लिखकर धमकाया कि यदि वह रुपये नहीं देगा तो भरतपुर, डीग तथा कुम्हेर के किले धरती में मिला दिये जायेंगे। इस पर सूरजमल ने अहमदशाह अब्दाली को अपना उत्तर भिजवाया-
‘हिन्दुस्तान के साम्राज्य में मेरी कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति नहीं है। मैं रेगिस्तान में रहने वाला एक जमींदार हूँ और मेरी कोई कीमत नहीं है, इसलिये इस काल के किसी भी बादशाह ने मेरे मामलों में दखल देना अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं समझा।
अब हुजूर जैसे एक शक्तिशाली बादशाह ने युद्ध के मैदान में मुझसे मिलने और मुकाबला करने का दृढ़ निश्चय किया है और इस नगण्य से व्यक्ति के विरुद्ध अपनी सेनाएं ला खड़ी की हैं। खाली यह कार्यवाही ही बादशाह की शान और बड़प्पन के लिये शर्मनाक होगी। . . . .
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इससे मेरी स्थिति ऊँची होगी तथा मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति के लिये यह अभिमान की वस्तु होगी। दुनिया कहेगी कि ईरान और तूरान के शाह ने बहुत ही ज्यादा डरकर, अपनी सेनाएं लेकर एक कंगाल बंजारे पर चढ़ाई कर दी। केवल ये शब्द ही राजमुकुट प्रदान करने वाले हुजूर के लिये कितनी शर्म की चीज होगी। फिर अंतिम परिणाम भी अनिश्चितता से पूरी तरह रहित नहीं है। यदि इतनी शक्ति और साज-सामान लेकर आप मुझ जैसे कमजोर को बरबाद कर देने में सफल भी हो जाएँ तो उससे आपको क्या यश मिलेगा? मेरे बारे में लोग केवल यही कहेंगे, उस बेचारे की ताकत और हैसियत ही कितनी सी थी! परंतु भगवान की इच्छा से, जो किसी को भी मालूम नहीं है, मामला कहीं उलट गया तो उसका परिणाम क्या होगा? यह सारी शक्ति और प्रभुत्व, जो हुजूर के बहादुर सिपाहियों ने ग्यारह बरसों में जुटाया है, पल भर में गायब हो जायेगा।
यह अचरज की बात है कि इतने बड़े दिलवाले हुजूर ने इस छोटी सी बात पर विचार नहीं किया और इतनी सारी भीड़भाड़ और इतने बड़े लाव-लश्कर के साथ इस सीधे-सादे तुच्छ से अभियान पर स्वयं आने का कष्ट उठाया। जहाँ तक मुझे और मेरे देश को कत्ल करने और बरबाद कर देने की धमकी भरा प्रचण्ड आदेश देने का प्रश्न है, वीरों को इस बात को कोई भय नहीं हुआ करता। सब को ज्ञात है कि कोई भी समझदार व्यक्ति इस क्षण-भंगुर जीवन पर तनिक भी भरोसा नहीं करता। रही मेरी बात, मैं जीवन के पचास सोपानों को पहले ही पार कर चुका हूँ और अभी कितने बाकी हैं, यह मुझे कुछ पता नहीं। मेरे लिए इससे बढ़कर वरदान और कुछ नहीं हो सकता कि मैं बलिदान के अमृत का पान करूँ। यह देर-सबेर योद्धाओं के अखाड़े में और युद्ध के मैदान में वीर सैनिकों के साथ करना ही पड़ेगा। और काल-ग्रन्थ के पृष्ठों पर अपना और अपने पूर्वजों का नाम छोड़ जाऊँ, जिससे लोग याद करें कि एक बेजोर किसान ने एक ऐसे महान् और शक्तिशाली बादशाह से बराबरी का दम भरा, जिसने बड़े-बड़े राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था और वह किसान लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हुआ।
ऐसा ही शुभ संकल्प मेरे निष्ठावान अनुयायियों और साथियों के हृदय में भी विद्यमान है। यदि मैं चाहूँ भी कि आपके दैवी दरबार की देहरी पर उपस्थित होऊँ, तो भी मेरे मित्रों की प्रतिष्ठा मुझे ऐसा करने नहीं देगी। ऐसी दशा में यदि न्याय के निर्झर हुजूर, मुझे, जो कि तिनके सा कमजोर है, क्षमा करें और अपना ध्यान किन्हीं और महत्त्वपूर्ण अभियानों पर लगायें तो उससे आपकी प्रतिष्ठा या कीर्ति को कोई हानि नहीं पहुंचेगी।
मेरे इन तीन किलों (भरतपुर, डीग और कुम्हेर) के बारे में जिन पर हुजूर को रोष है और जिन्हें हुजूर के सरदारों ने मकड़ी के जाले सा कमजोर बताया है, सचाई की परख असली लड़ाई के बाद ही हो पायेगी। भगवान ने चाहा तो वे सिकन्दर के गढ़ जैसे ही अजेय रहेंगे।’
कुदरतुल्लाह नामक एक तत्कालीन लेखक ने अपने ग्रंथ जाम-ए-जहान-नामा में यह प्रसंग लिखा है जिसमें अहमदशाह अब्दाली के साथ महाराजा सूरजमल से चली समझौता वार्त्ता की चर्चा संक्षेप में की गई है। वह लिखता है कि-
‘धन से भरपूर राजकोष, सुदृढ़ दुर्गों, बहुत बड़ी सेना और प्रचुर मात्रा में युद्ध सामग्री के कारण सूरजमल ने अपना स्थान नहीं छोड़ा और वह युद्ध की तैयारी करता रहा। उसने अहमदशाह के दूतों से कहा- अभी तक आप लोग भारत को नहीं जीत पाये हैं। यदि आपने एक अनुभव शून्य बालक इमादुलमुल्क गाजीउद्दीन को जिसका कि दिल्ली पर अधिकार था, अपने अधीन कर लिया, तो इसमें घमण्ड की क्या बात है !
यदि आपमें सचमुच कुछ दम है, तो मुझ पर चढ़ाई करने में इतनी देर किस लिये? शाह जितना समझौते का प्रयास करता गया, उतना ही उस जाट का अभिमान और धृष्टता बढ़ती गई। उसने कहा, मैंने इन किलों पर बड़ा रुपया लगाया है।
यदि शाह मुझसे लड़े तो यह उसकी मुझ पर कृपा होगी क्योंकि तब दुनिया भविष्य में यह याद रख सकेगी कि एक बादशाह बाहर से आया था और उसने दिल्ली जीत ली थी, पर वह एक मामूली से जमींदार के मुकाबले में लाचार हो गया। जाटों के किलों की मजबूती से डरकर शाह वापस चला गया।’
जब अहमदशाह आगरा से दिल्ली को लौट रहा था, तब पूरे मार्ग के दौरान सूरजमल के आदमी उसे समझौता वार्त्ता में उलझाये रहे। अंत में महाराजा सूरजमल की ओर से अहमदशाह अब्दाली को दस लाख रुपये देने का आश्वासन दिया गया।
जब अहमदशाह दिल्ली पहुंच गया तब सूरजमल को विश्वास हो गया कि अब यह अफगानिस्तान लौट जायेगा, इसलिये समस्त प्रकार की वार्त्ता बंद कर दी गई तथा अब्दाली को एक भी रुपया नहीं दिया गया। इस प्रकार अहमदशाह अब्दाली को भरतपुर, डीग और कुम्हेर को लूटे बिना ही तथा भरतपुर से कोई रुपया लिये बिना ही, दिल्ली लौट जाना पड़ा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता