Thursday, November 21, 2024
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राजकुमारी चारुमती का विवाह

राजकुमारी चारुमती का विवाह सम्पूर्ण हिन्दू जाति के लिए गर्व करने योग्य एवं औरंगजेब के लिए नाक कट जाने जैसी थी।

पाठकों को स्मरण होगा कि ई.1658 में शामूगढ़ के युद्ध में शाहजहाँ के बड़े शहजादे दारा शिकोह का संरक्षक एवं प्रधान सेनापति महाराजा रूपसिंह वीर गति को प्राप्त हो गया था जो कि किशनगढ़ रियासत का राजा था। उसकी मृत्यु औरंगजेब के हाथी की अम्बारी की रस्सी काटने के बाद औरंगजेब की गर्दन काटने के प्रयास में हुई थी। अतः औैरंगजेब किशनगढ़ राज्य को दण्ड देना चाहता था। ई.1660 में औरंगजेब ने किशनगढ़ की राजकुमारी से विवाह करने के लिए डोला भिजवाया।

उन दिनों मुगल बादशाह किसी भी राजकुमारी से अपना या अपने शहजादे का विवाह करने के लिए अपनी सेना के साथ डोला भिजवा देते थे। वह सेना राजकुमारी को डोले में बैठाकर लाल किले में ले आती थी जहाँ बादशाह या कोई शहजादा उससे इस्लामिक पद्धति के अनुसार विवाह कर लेता था।

अकबरनामा आदि फारसी तवारीखों में लिखा है कि हिन्दू राजा बादशाह से अर्ज किया करते थे कि मेरी लड़की खूबसूरत है, इसलिए उसे शाही जनानखाने में दाखिल होने की इज्जत बख्शी जाए किंतु यह बात सही नहीं है तथा उस समय के लेखकों द्वारा बादशाह की चाटुकारिता करने के लिए लिखी गई है।

पूरे मध्यकालीन इतिहास में आम्बेर की राजकुमारी हीराकंवर ही एकमात्र ऐसी राजकुमारी थी जिसका विवाह अकबर के साथ हीराकंवर के बाबा भगवन्तदास तथा पिता भारमल ने अपनी इच्छा से किया था ताकि उन्हें अपने ही कुल के राजकुमारों के विरुद्ध अकबर का संरक्षण मिल सके। इस विवाह के कारण एक ओर तो आम्बेर को मुगलों का संरक्षण मिल गया तथा दूसरी ओर भारत में मुगल सल्तनत की जड़ें मजबूती से जम गईं।

इसलिए अकबर से लेकर फर्रूखसियर तक जो भी बादशाह हुए उन्होंने प्रयास किए कि वे हिन्दू राजाओं पर दबाव बनाकर उनकी राजकुमारियों को अपने हरम में ले आएं। यदि एक बार किसी हिन्दू राजकुमारी का विवाह किसी मुगल शहजादे या बादशाह से हो जाता था तो वह हिन्दू राजा तथा उसकी कई पीढ़ियां अपने प्राण देकर भी उस बादशाह तथा उसके वंशजों की रक्षा किया करती थीं।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

जब कोई मुगल बादशाह बलपूर्वक किसी हिन्दू राजकुमारी से विवाह करना चाहता था तो हिन्दू राजा यह सोचकर अपनी पुत्री मुगलों को देते थे कि एक लड़की का बलिदान करके वे अपनी प्रजा के लाखों निरीह बेटियों को मुगलों के कोप से बचा लेंगे। फिर भी ऐसे राजाओं की कमी नहीं थी जो हिन्दू राजकुमारियों के धर्म की रक्षा करने के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया करते थे। सिवाना का राजा कल्याणसिंह जिसे इतिहास में कल्ला राठौड़ कहा जाता है, इसी प्रकार का वीर राजा था जिसने बूंदी की राजकुमारी से विवाह करके उसे अकबर के हरम में जाने से बचाया था।

अब औरंगजेब ने किशनगढ़ के स्वर्गीय महाराजा रूपसिंह की पुत्री चारुमती पर अपनी कुदृष्टि गढ़ाई। इस समय रूपसिंह का पुत्र मानसिंह किशनगढ़ का राजा था। महाराजा रूपसिंह के वीरगति को प्राप्त होने के समय मानसिंह की आयु केवल 3 वर्ष थी तथा जिस समय औरंगजेब ने मानसिंह की बड़ी बहिन चारुमती के लिए डोला भिजवाया, उस समय मानसिंह पांच वर्ष का बालक था।

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राज्य का शासन मानसिंह की दादी राजमाता कछवाहीजी और माता चौहानजी की आज्ञानुसार राठौड़ करनजी नामक एक वीर पुरुष चलाता था। औरंगजेब के काल में किशनगढ़ रियासत राजपूताने की सबसे छोटी रियासत थी। राज्य के संस्थापक महाराजा किशनसिंह की बड़ी बहिन जगत गुसाईन अकबर से ब्याही गई थी। इसलिए अकबर ने किशनसिंह को नया राज्य स्थापित करने की अनुमति दी थी किंतु यह राज्य इतना छोटा था तथा इसके संसाधन इतने सीमित थे कि इस रियासत की सेना मुगलों का सामना नहीं कर सकती थी।

इसलिए जब यह सूचना किशनगढ़ पहुंची कि औरंगजेब ने चारुमती को लाने के प्रयोजन से किशनगढ़ के लिए डोला रवाना किया है तो किशनगढ़ के राज्याधिकारियों के हाथ-पांव फूल गए। महाराजा रूपसिंह के बलिदान को अभी दो वर्ष ही हुए थे तथा राजकुल में कोई वयस्क व्यक्ति जीवित नहीं बचा था जो औरंगजेब से बात कर सकता! इसलिए किशनगढ़ के राज्याधिकारियों ने राजकुमारी को डोले में बैठा देने में ही अपनी भलाई समझी।

जब राजकुमारी चारुमती ने सुना कि मेरा विवाह मुसलमान बादशाह के साथ होने वाला है, तब वह अत्यंत दुःखी हुई। राजकुमारी चारुमती भी अपने पिता स्वर्गीय महाराजा रूपसिंह की तरह परम वैष्णव थी। वह श्रीकृष्ण को अपना आराध्य देव मानती थी तथा उनकी भक्ति में मीरांबाई की तरह पदों की रचना किया करती थी। राजकुमारी चारुमती ने अपनी माता तथा भाई से कहा कि यदि मेरा विवाह बादशाह के साथ करोगे तो मैं अपने प्राणों को तिलांजलि दे दूंगी किंतु राजकुमारी जानती थी कि ऐसा कह देने भर से कुछ होने वाला नहीं है। मुगलों की सेना किशनगढ़ राज्य को नष्ट कर देगी तथा राजकुमारी को बलपूर्वक डोले में बिठाकर ले जाएगी।

इसलिए चारुमती ने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह की शरण लेने का निर्णय लिया और अपने विश्वस्त व्यक्ति के हाथों महाराणा के पास एक पत्र भिजवाया जिसमें राजकुमारी ने प्रार्थना की कि मैं हिन्दू राजकुमारी हूँ, भगवान श्रीकृष्ण की उपासिका हूँ, अपने धर्म की रक्षा किया चाहती हूँ। आप हिन्दू राजा हैं, हिन्दू कुमारियों के धर्म की रक्षा करना आपका कर्त्तव्य है, मैं आपको अपना पति स्वीकार करती हूँ। आप बारात लेकर आएं तथा मेरे साथ विवाह करके मेरे धर्म की रक्षा करें। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो मेरे पास देह-त्याग के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।

राजकुमारी का संदेश पाकर महाराणा राजसिंह एक छोटी सी सेना लेकर तुरंत किशनगढ़ के लिए रवाना हो गया और राजकुमारी चारुमती से विवाह करके उसे उदयपुर ले आया। महाराणा के इस साहस से किशनगढ़ राजपरिवार अत्यंत प्रसन्न हुआ और वह औरंगजेब का कोप सहन करने के लिए तैयार हो गया। राजगढ़ प्रशस्ति में इस घटना का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है-

शते सप्तदशे पूर्णे वर्षे सप्तदशे ततः।

गत्वा कृष्णगढ़े दिव्यो महत्या सेनया युतः।।29।।

दिल्लीशार्थे रक्षिताया राजसिंह नरेश्वरः।

राठौड़ रूपसिंहस्य पुत्र्यिाः पाणिग्रहं व्यधात्।।30।।

अर्थात्- विक्रम संवत् 1717 में महाराणा राजसिंह अपनी सेना लेकर कृष्णगढ़ गए तथा दिल्ली के अधिपति से त्रस्त राजकन्या जो कि राठौड़ राजा रूपसिंह की पुत्री थी, उससे विवाह करके पुनः लौट आए।

जब यह सूचना प्रतापगढ़ रियासत के रावत हरिसिंह के हाथों बादशाह औरंगजेब के पास पहुंची तो औरंगजेब क्रोध से तिलमिला गया। उसे लगा कि ये हिन्दू राजा औरंगजेब के प्रत्येक काम को विफल कर रहे हैं। उसने महाराणा को एक कड़ा पत्र लिखकर अपनी नाराजगी व्यक्त की जिसमें कहा गया कि मेरे हुक्म के बिना किशनगढ़ जाकर तुमने शादी क्यों की?

इसके उत्तर में महाराणा ने बादशाह को लिखा कि राजपूतों का विवाह सदा से राजपूतों के साथ होता आया है और कभी इसके लिए मनाही नहीं हुई। राजकुमारी चारुमती का विवाह उन सब विवाहों से अलग कैसे है! इस पर औरंगजेब ने महाराणा से गयासपुर तथा बसाड़ के परगने छीनकर पुनः प्रतापगढ़ के रावत हरिसिंह को दे दिये।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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