शाहजहाँ के बीमार होते ही महाराणा राजसिंह ने माण्डलगढ़ छीन लिया! शाहजहां कालीन भारत में मेवाड़ का महाराणा राजसिंह एक बड़ी विभूति था। उसने अपने पूर्वज महाराणा प्रताप का अनुसरण करके समूचे मेवाड़ को एक दुर्ग की तरह इस्तेमाल करना सीख लिया था।
महाराणा राजसिंह की सेनाएं मुगल सेनाओं को नष्ट करने के लिए सदैव तत्पर रहती थीं। महाराणा राजसिंह भारत के ज्ञात इतिहास में अकेला राजा हुआ है जिसने रत्नों का तुलादान किया।
जब मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने शाहजहाँ के बीमार होने का समाचार सुना तो उसने माण्डलगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया। माण्डलगढ़ वास्तव में मेवाड़ राज्य का ही पुराना किला था किंतु अकबर के समय आम्बेर के राजकुमार मानसिंह ने इस पर अधिकार करके मुगलों को सौंप दिया था। हालांकि महाराणा प्रताप ने इस दुर्ग को अकबर के जीवन काल में ही मुगलों से वापस छीन लिया था किंतु महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद यह दुर्ग पुनः मुगलों के अधिकार में चला गया था और उसके बाद से मेवाड़ और मुगलों के बीच आता-जाता रहता था।
इसके बाद महाराणा ने मांडल, दरीबा, बनेड़ा, शाहपुरा के शासकों से दण्ड वसूल किया। उसने जहाजपुर, सावर, फूलिया तथा केकड़ी पर भी अधिकार कर लिया तथा मालपुरा और टोडा को लूट लिया। महाराणा ने टोंक, सांभर, लालसोट और चाटसू पर आक्रमण करके वहां से भी दण्ड वसूल किया।
इन दिनों माण्डलगढ़ दुर्ग पर किशनगढ़ के महाराजा रूपसिंह का अधिकार था। वह शाहजहाँ का सबसे विश्वस्त राजा था तथा कुछ साल पहले ही उसने इस दुर्ग को मेवाड़ से छीना था। महाराजा रूपसिंह आगरा में या बलख-बदख्शां के मोर्चे पर रहता था तथा उसकी तरफ से राघवदास महाजन किलेदार नियुक्त था, वह माण्डलगढ़ को महाराणा के हाथों में जाने से बचा नहीं पाया।
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इस प्रकार बादशाह की बीमारी तथा शहजादों की आपसी लड़ाई का लाभ उठाकर महाराणा ने मुगलों के क्षेत्रों से बहुत सारा धन इकट्ठा कर लिया जिसका उपयोग वह आने वाले समय में मुगलों के विरुद्ध सेना तैयार करने में करने वाला था।
आखिर शाहजहाँ के स्वास्थ्य ने पलटी खाई। कौन जाने कि यह शाही हकीम की दवाइयों का असर था या किशनगढ़ के महाराजा रूपसिंह द्वारा सलेमाबाद के संतों से लाई गई चमत्कारी भभूती का किंतु बादशाह न केवल अपने बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया अपितु सुबह की ताजी हवा खाने और प्रजा को झरोखा दर्शन देने के लिए अपने खास महल के झरोखे में भी आकर बैठने लगा।
जैसे ही बादशाह ने झरोखा दर्शन देना शुरू किया, लाल किले और दिल्ली में चल रही फुसफुसाहटें बंद हो गईं। उन नौकरों, लौण्डियों, हिंजड़ों, वेश्याओं, पातरियों और पड़दा बेगमों के मुँह खुद-ब-खुद सिल गए जो बादशाह की नासाज तबियत तथा दारा द्वारा उसे बंदी बनाए जाने के बारे में तरह-तरह के किस्से गढ़ने और दुनिया भर की अफवाहें फैलाने में जरा भी भय नहीं खाते थे।
जैसे-जैसे ईद निकट आती गई, शाहजहाँ की तबियत में सुधार होता चला गया। कुछ दिनों में बादशाह न केवल दरबार में जाकर बैठने लगा अपितु उसने हर साल की तरह ईद के जलसे में शामिल होकर जनता को ईद मुबारक भी कहा।
ईद के जलसे में बादशाह की सवारी जिस-जिस अमीर-उमराव और हिन्दू सरदार की हवेली के सामने से निकलती थी, वह अमीर-उमराव और सरदार अपनी हवेली से बाहर आकर बादशाह का इस्तकबाल करता था और बादशाह को ईद की न्यौछावर पेश करता था।
इस प्रकार दिल्ली की जनता से लेकर अमीर-उमरावों तक ने शाहजहाँ को अपनी आंखों से देख लिया और उन्हें विश्वास हो गया कि बादशाह के हरामखोर नौकर बादशाह की जेलबंदी और मौत के सम्बन्ध में झूठी अफवाहें फैला रहे थे।
चिंतातुर शहजादियों ने फिर से अपने भाइयों को गुप्त चिट्ठियां भिजवाईं जिनमें बादशाह की बीमारी ठीक होने तथा ईद पर शहर का चक्कर लगाने की सूचना दी। इन चिट्ठियों को पढ़कर शाहशुजा, औरंग़ज़ेब और मुरादबख्श ने अपने माथे पीट लिए। वे फिर से अपने लिए अच्छे दिनों की प्रतीक्षा करने लगे।
शाहजहाँ यद्यपि पूर्ण स्वस्थ हो गया था फिर भी शरीर में पहले जैसी फुर्ती नहीं आ पाई थी। हकीमों ने उसे सलाह दी कि संभवतः दिल्ली की आबोहवा बादशाह के लिए मुफीद नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि बादाशह सलामत कुछ दिनों के लिए ठण्डी जगह पर जाकर रहें।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता