भगवान विष्णु द्वारा इंद्र की पाप-मुक्ति का उपाय बताने पर देवताओं एवं ऋषियों ने इंद्र को तीनों लोकों में ढूंढना आरम्भ किया। अंत में वह समुद्र के भीतर छिपा हुआ मिला। समस्त देवताओं एवं ऋषियों ने इन्द्र को घेर लिया तथा उससे अनुरोध किया कि वह अश्वमेध यज्ञ करके भगवान विष्णु का पूजन करे जिससे वह ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाएगा तथा उसे शची एवं स्वर्ग सहित सम्पूर्ण वैभव पुनः मिल जाएगा।
ऋषियों एवं देवताओं के परामर्श से देवराज इन्द्र ने अश्वमेध का आयोजन किया। ऋषियों ने ब्रह्महत्या को विभक्त करके वृक्ष, नदी, पर्वत, पृथ्वी और स्त्रियों में बांट दिया। इससे इन्द्र निष्पाप एवं निःशोक हो गया तथा वह समस्त देवताओं एवं ऋषियों को लेकर स्वर्ग लोक पहुंचा ताकि नहुष से स्वर्ग ले सके किंतु इन्द्र यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि नहुष समस्त देवताओं एवं ऋषियों का तेज हरण करके अत्यंत शक्तिशाली हो गया है। ऐसी स्थिति में इन्द्र के लिए यह संभव नहीं रहा कि वह नहुष को परास्त करके स्वर्गलोक पर अधिकार कर ले। अतः वह पुनः अदृश्य हो गया।
इन्द्र के इस तरह चले जाने पर इंद्राणी पर शोक के बादल छा गए। वह अत्यंत दुखी होकर विलाप करने लगी तथा कहने लगी- ‘यदि मैंने कभी कोई दान या हवन किया हो और गुरुजन को अपनी सेवा से संतुष्ट किया हो तो मेरा पातिव्रत्य धर्म अविचल रहे। मैं कभी किसी अन्य पुरुष की ओर न देखूं। मैं उत्तरायण की अधिष्ठात्री रात्रि देवी को प्रणाम करती हूँ। वे मेरा मनोरथ सफल करें।’
इंद्राणी ने रात्रिदेवी उपश्रुति की उपासना की और उससे प्रार्थना की- ‘आप मुझे वह स्थान दिखाएं जहाँ, जहाँ मेरे पति उपस्थित हैं।’
इंद्राणी की प्रार्थना पर उपश्रुति देवी प्रकट हुईं तथा उन्होंने इंद्राणी से कहा- ‘मैं उपश्रुति हूँ तथा आपके सत्य के प्रभाव से मैं आपको दर्शन देने आई हूँ। आप पतिव्रता और यम-नियम के नियम से युक्त हैं। मैं आपको देवराज इन्द्र के पास ले चलूंगी।’
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इसके पश्चात् उपश्रुति इन्द्राणी के साथ हिमालय पर्वत को लांघकर एक दिव्य सरोवर पर पहुंची। उस सरोवर में एक अति सुंदर विशाल कमलिनी थी। उसे एक ऊंची नाल वाले गौरवर्ण महाकमल ने घेर रखा था। उपश्रुति ने उस कमल के नाल को फाड़कर, इन्द्राणी सहित उसमें प्रवेश किया और वहाँ एक तंतु में इन्द्र को छिपे हुए पाया।
इन्द्राणी ने पूर्वकर्मों का उल्लेख करते हुए इन्द्र की स्तुति की। इस पर इन्द्र ने कहा- ‘हे देवी तुम यहाँ कैसे आई हो और तुम्हें मेरा पता कैसे लगा?’
इस पर इंद्राणी ने इन्द्र को नहुष की समस्त कथा कह सुनाई तथा अपने साथ चलकर नहुष का नाश करने की प्रार्थना की।
इंद्राणी के इस प्रकार कहने पर इंद्र ने कहा- ‘देवी! इस समय नहुष का बल बहुत बढ़ा हुआ है। ऋषियों ने हव्य-कव्य देकर उसे बहुत बढ़ा दिया है। इसलिए यह पराक्रम प्रकट करने का समय नहीं है। मैं तुम्हें एक युक्ति बताता हूँ। उसके अनुसार कार्य करो। तुम एकांत में जाकर नहुष से मिलो तथा उससे कहो कि यदि तुम ऋषियों से अपनी पालकी उठवाकर मेरे पास आओ तो मैं प्रसन्न होकर तुम्हारे अधीन हो जाऊंगी!’
इंद्र के ऐसा कहने पर शची वहाँ से पुनः स्वर्ग लोक आई तथा नहुष के पास पहुंचकर वही सब कहने लगी, जैसा इंद्र ने समझाया था।
इंद्राणी ने कहा- ‘हे जगत्पति! मैंने आपसे जो अवधि मांगी थी, मैं उसके समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रही हूँ। यदि आप मेरी एक प्रेमभरी बात पूरी कर दें तो मैं अवश्य आपके अधीन हो जाऊंगी। राजन् मेरी इच्छा है कि समस्त सप्तऋषि मिलकर आपको पालकी में बैठाकर मेरे पास लाएं।’
इस पर नहुष ने कहा- ‘हे सुन्दरी! आपने तो मेरे लिए यह बड़ी ही अनूठी बात बताई है। ऐसे वाहन पर तो आज तक कोई नहीं चढ़ा होगा। यह विचार मुझे बहुत पसंद आया है। मुझे तो आप अपने अधीन ही समझें।’
ऐसा कहकर राजा नहुष ने इन्द्राणी को विदा कर दिया और सप्तऋषियों को अपने महल में बुलवाया।
उधर शची ने देवगुरु बृहस्पति के महल में पहुंच कर बृहस्पति से कहा- ‘नहुष ने मुझे जो अवधि दी थी, वह थोड़ी ही शेष बची है। आप शक्र की खोज करवाइए। मैं आपकी भक्त हूँ, आप मेरी रक्षा करें। ‘
इस पर बृहस्पति ने कहा- ‘तुम दुष्ट-चित्त नहुष से किसी प्रकार का भय मत मानो। उसने अब ऋषियों से अपनी पालकी उठवानी आरम्भ कर दी है, इसलिए अब उसका शीघ्र ही नाश हो जाएगा। भगवान अवश्य ही तुम्हारा मंगल करेंगे।’
इसके बाद बृहस्पति ने हवन करके अग्निदेव का आह्वान किया तथा अग्निदेव के प्रकट होने पर उनसे कहा- हे अग्नि! इन्द्रदेव की खोज करें।’
अग्निदेव ने तीनों लोकों में इन्द्र को ढूंढा। अंत में उन्हें उस सरोवर का पता लग गया जिसके कमल की नाल में बने एक तंतु में देवराज इंद्र अणु के रूप में छिपा हुआ था।
अग्निदेव ने देवगुरु बृहस्पति को इंद्र की वास्तविक स्थिति बता दी। इस पर देवगुरु बृहस्पति समस्त देवी-देवताओं तथा गंधर्वों को लेकर उस सरोवर पर गए तथा इन्द्र के द्वारा प्राचीन काल में किए गए महान् कार्यों का गुणगान करने लगे। इन स्तुतियों को सुनकर इन्द्र का तेज बढ़ने लगा और वह अपने पूर्वरूप में आ गया।
इन्द्र ने देवगुरु बृहस्पति से कहा- ‘विश्वरूप और वृत्रासुर दोनों ही मारे जा चुके हैं, कहिए अब आपका कौनसा कार्य शेष है!’
देवगुरु बृहस्पति ने कहा- ‘देवराज नहुष नामक एक मानव राजा, देवताओं और ऋषियों के तेज से सम्पन्न होकर उनका अधिपति हो गया है। वह हमें बहुत कष्ट देता है। आप उसका नाश करें।’
इसी समय कुबेर, यम, चंद्रमा और वरुण भी वहाँ आ गए तथा वे भी देवराज इन्द्र एवं अन्य देवताओं के साथ मिलकर नहुष के नाश का उपाय सोचने लगे। इतने में ही परम तपस्वी अगस्त्य भी वहाँ आ गए।
मुनि अगस्त्य ने देवराज इन्द्र का अभिनंदन करके कहा- ‘बड़ी प्रसन्नता की बात है कि विश्वरूप त्वष्टा तथा वृत्रासुर का वध हो जाने से आपका अभ्युदय हो रहा है। आज नहुष भी देवराज पद से भ्रष्ट हो गया।’
इन्द्र ने अगस्त्य मुनि का सत्कार करते हुए पूछा- ‘भगवन्! मैं यह जानना चाहता हूँ कि पाप-बुद्धि नहुष का पतन किस प्रकार हुआ?’
महर्षि अगस्त्य ने कहा- ‘देवराज! महाभाग देवर्षि और ब्रह्मर्षि, पापात्मा नहुष की पालकी उठाए हुए चल रहे थे। उस समय ऋषियों के साथ उसका विवाद होने लगा और अधर्म से बुद्धि बिगड़ जाने के कारण उसने मेरे मस्तक पर लात मारी। इससे उसका तेज और कांति नष्ट हो गई। तब मैंने उससे कहा, राजन्! तुम प्राचीन महर्षियों के चलाए और आचरण किए हुए कर्म पर दोषारोपण करते हो, तुमने ब्रह्मा के समान तेजस्वी ऋषियों से अपनी पालकी उठवाई है और मेरे सिर पर लात मारी है, इसलिए तुम पुण्यहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ो तथा अजगर का रूप धारण करके दस हजार वर्ष तक भटको। इस अवधि के समाप्त होने के बाद ही तुम फिर से स्वर्ग में प्रवेश कर सकोगे। इस प्रकार मेरे श्राप से वह दुष्ट-चित्त नहुष इन्द्रपद से हट गया है। अब आप स्वर्गलोक में चलकर सब लोकों का पालन कीजिए।’
मुनि अगस्त्य के ऐसा कहने पर देवराज इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर अग्निदेव, बृहस्पति, यम, वरुण, कुबेर आदि देवगण, गंधर्व तथा अप्सराओं सहित देवलोक पहुंचा। वहाँ अंगिरा ऋषि ने अथर्ववेद से इन्द्रदेव का पूजन किया। देवराज इन्द्र फिर से देवलोक का अधिष्ठाता बनकर समस्त लोकों का धर्मपूर्वक पालन करने लगा
महाभारत सहित विभिन्न पुराणों में आई नहुष की यह कथा वस्तुतः वेदों में उल्लिखित आयु एवं उसके पुत्र नहुष से सम्बन्धित मंत्रों का कथात्मक निरूपण है। वेदों में दिए गए मंत्रों के आधार पर पण्डित रघुनंदन शर्मा ने अपनी पुस्तक वैदिक सम्पत्ति में लिखा है कि नहुष एक सूर्य का नाम है क्योंकि नहुष एक बार सूर्य हो चुका है। उन्होंने पांच वेदमंत्रों के आधार पर यह बताने का प्रयास किया है कि इन मंत्रों में नहुष को सूर्य, अंतरिक्षीय शक्ति, बादल तथा आकाश में से कोई एक ठहराया जा सकता है किंतु अधिक अनुमान इस बात का होता है कि नहुष कोई विशाल बादल था जिसने अंतरिक्ष को ढक लिया। जब अगस्त्य रूपी तारा उदित हुआ तो नहुष रूपी बादल स्वयं ही बिखर गया।
महाभारत के वन पर्व में कहा गया है- ‘अगस्त्येन् ततोऽस्म्युक्तो ध्वंस सर्पेति वै रुषा।’ अर्थात् अगस्त नक्षत्र के उदय होते ही सर्परूपी पानी का अर्थात् बादलों का ध्वंस हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी रामचति मानस में लिखा है- ‘उदय अगस्त पंथजल सोखा’ अर्थात् अगस्त नामक नक्षत्र के उदय होने पर मार्ग में पड़ा हुआ जल सूख जाता है, अर्थात् वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है।
ऋग्वेद के एक मंत्र में नहुष को ‘सप्तहा’ अर्थात् सात किरणों को मारने वाला कहा गया है। ऐसा केवल बादल ही कर सकता है। अतः महाभारत में आई इस कथा का वेदों के आधार पर अर्थ निकालें तो केवल इतना अर्थ निकलता है कि नहुष नामक बादल सूर्य को ढककर इन्द्र का पद प्राप्त कर लेता है और जब अगस्त तारे का उदय होता है तो बादलों का नाश हो जाता है अर्थात् वर्षा समाप्त हो जाती है। महाभारत में नहुष को अजगर होकर भटकने का श्राप इस ओर इंगित करता है कि बादलों का जल जो सूर्य को भी ढक लेता है, अब धरती पर अजगर की तरह चलता हुआ दिखाई देगा। यहाँ धरती पर बहने वाले वर्षा जल की धाराओं को अजगर कहा गया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता