जब भगवान श्रीराम ने जाबालि ऋषि से रोषपूर्ण बातें कहीं तो गुरु वसिष्ठ ने श्रीराम को बताया कि जाबालि ऋषि नास्तक नहीं हैं। वे तो आपसे केवल इतना चाहते हैं कि आप जंगलों के दुख भोगने की बजाय अध्योध्या को लौट जाएं। आपका अयोध्या लौट जाना उचित है क्योंकि ईक्ष्वाकुओं की यह परम्परा रही है कि राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही अगला राजा होता है। मैं आपको ईक्ष्वाकुओं की उज्जवल परम्परा के बारे में बताता हूँ।
महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को स्वयंभू ब्रह्मा के प्रकट होने से लेकर उनके द्वारा वाराह रूप धारण करके धरती को समुद्र से बाहर निकालने, ब्रह्मा से मरीचि नामक ऋषि के उत्पन्न होने और मरीचि से कश्यप, कश्यप से मनु एवं मनु से ईक्ष्वाकु के उत्पन्न होने की जानकारी दी।
महर्षि वसिष्ठ ने कहा कि राजा ईक्ष्वाकु द्वारा अयोध्या की स्थापना की गई। तब से लेकर राजा दशरथ तक जितने भी राजा हुए हैं, वे सब अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। आप भी राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं, इसलिए आपको चाहिए कि आप अपने कुलगुरु का अर्थात् मेरा आदेश मानकर अयोध्या लौट चलें और अयोध्या का राज्य संभालें। चूंकि आपकी माताएं, समस्त ऋषिगण, ब्राह्मण एवं पुरजन भी यही चाहते हैं इसलिए आपको सत्पुरुष के पथ का त्याग करने वाला नहीं समझा जाएगा।
गुरु के आग्रह पर भी श्रीराम ने अपने निश्चय का त्याग नहीं किया तथा अपने स्वर्गीय पिता दशथ के वचनों का मान रखने के लिए वन में प्रवास करने का निर्णय अपरिवर्तित रखा।
ईक्ष्वाकु वंशी राजकुमार श्रीराम के इस एक निर्णय ने उनके सम्पूर्ण व्यक्त्तिव को अलौकिक बना दिया। महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को उनके बाल्यकाल में ही अरण्यवासी ऋषियों की समस्याओं से परिचित करवा चुके थे। अतः निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि श्रीराम ने अपने दीर्घकालीन अरण्य-प्रवास के दौरान वनवासी ऋषियों के सान्निध्य के प्रभाव से कुछ नए संकल्प लिए होंगे तथा आर्य संस्कृति को नष्ट करने वाली आसुरि शक्तियों के संहार का बीड़ा उठाया होगा।
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अपने वन-प्रवास की अवधि में श्रीराम ने अनेक राक्षसों को मारा जो ऋषियों को यज्ञ हवन करने, आर्य जीवन शैली का विकास करने एवं अरण्यों में एकांतवास करने में विघ्न उत्पन्न करते थे। इनमें से कुछ घटनाओं की चर्चा हम आगामी कथाओं में करेंगे।
आज हमें रामकथा का प्राचीनतम स्वरूप वाल्मीकि रामायण में मिलता है। इस ग्रंथ में श्रीराम का चित्रण मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में किया गया है। यही कारण है कि जब महर्षि वाल्मिीकि श्रीराम को इक्ष्वाकुवंशी राजाओं का परिचय देते हैं तो इस वंश की उत्पत्ति का उल्लेख प्रजापति ब्रह्मा से आरम्भ करते हुए भी वे इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के साथ उन चमत्कारी विवरणों का उल्लेख नहीं करते हैं, जिनका उल्लेख रामायण के बाद लिखे गए पुराणों में किया गया है। महर्षि वाल्मीकि राजा सगर द्वारा सगर-पुत्रों से समुद्र खुदवाने का उल्लेख तो करते हैं किंतु पुत्रों की संख्या साठ हजार नहीं बताते। फिर भी वाल्मीकि रामायण में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो दिव्य, अतीन्द्रिय एवं अलौकिक जान पड़ती हैं। इसका कारण यह है कि वाल्मीकि रामायण का स्वरूप भी विगत तीन हजार सालों में पूरी तरह बदल चुका है।
आज जो वाल्मीकि रामायण हमारे सामने है, उस पर पुराणों का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है। यहाँ तक कि वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के 109वें अध्याय में तथागत बुद्ध को चार्वाकों के समान ही दण्डनीय चोर कहा गया है। जबकि वाल्मीकि रामायण की रचना तो महात्मा बुद्ध से सैंकड़ों साल पहले की है। ऐसी स्थिति में तथागत बुद्ध का उल्लेख वालमीकि कृत रामायण में होना ही नहीं चाहिए था किंतु जैसा कि हमने पहले कहा, वाल्मीकि रामायण का जो वर्तमान स्वरूप हमारे सामने हैं, उसमें बहुत सी बातें पौराणिक काल में जोड़ी गई हैं।
मूल वाल्मीकि रामायण में निश्चित रूप से श्रीराम के चरित्र में शील, सौंदर्य एवं शौर्य का अप्रतिम समन्वयन किया गया होगा किंतु श्रीराम में अतीन्द्रिय अथवा अलौकिक शक्तियों का आरोपण नहीं किया गया होगा। ऐसा निश्चय ही रामायण की मूल रचना के बहुत बाद में किया गया होगा। रामायण के बाद महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत ही ऐसा ग्रंथ है जिसमें रामकथा का विस्तार से वर्णन मिलता है। इस रामकथा को अलग ग्रंथ के रूप में भी देखा जाता है तथा अध्यात्म रामायण कहा जाता है।
चूंकि महाभारत का काल आते-आते श्री हरि विष्णु के अवतारों की अवधारणा पुष्ट हो चुकी थी इसलिए अध्यात्म रामायण में श्रीराम को विष्णु अवतार के रूप में चित्रित किया गया है। वेदव्यास कृत अध्यात्म रामायण के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इस ग्रंथ पर वाल्मीकि रामायण का प्रभाव है किंतु उस पर उन पुराणों का भी प्रभाव है जिन्होंने राम को अवतारी पुरुष घोषित करने का साहस दिखाया था।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्राचीनतम पुराणों की रचना वाल्मीकि रामायण के लगभग पांच सौ साल बाद हुई। ब्रह्माण्ड पुराण तथा मत्स्य पुराण सबसे पुराने हैं। इनमें भी श्रीराम का उल्लेख है। हरिवंश पुराण में रामकथा संक्षेप में लिखी गई है। आज से लगभग डेढ़ हजार साल पहले लिखे गए विष्णु पुराण में भी रामकथा का उल्लेख हुआ है। आज से लगभग सात सौ साल पहले लिखे गए भागवत पुराण में सीता को लक्ष्मीजी का अवतार बताया गया है। गरुड़ पुराण एवं स्कंद पुराण में श्रीराम का अवतारी स्वरूप और अधिक स्पष्ट हुआ।
इस प्रकार लगभग एक हजार वर्षों की दीर्घ अवधि में रचित विविध पुराणों में श्रीराम का अवतारी स्वरूप पुष्ट होता चला गया। इन ग्रंथों में भगवान के अवतारी स्वरूप को पुष्ट करने वाली अनेक नवीन कथाएं जोड़ दी गईं जिनसे भगवान के दुष्ट-हंता स्वरूप के साथ-साथ क्षमा एवं दया के सागर तथा भक्त-वत्सल स्वरूप का भी दर्शन होता है।
पुराणों के रचना काल में भगवान श्री हरि विष्णु के विविध स्वरूपों की पूजा प्रचलित हुई जिनमें नृसिंह एवं वाराह पूजा अधिक लोकप्रिय थीं। आज से लगभग डेढ़ हजार साल पहले मगध के गुप्त सम्राटों के काल में उत्तर भारत में वाराह पूजा एवं दक्षिण भारत में नृसिंह पूजा सर्वाधिक प्रचलित थी। गुप्त सम्राटों के बाद के कालों में श्री हरि विष्णु के श्रीराम एवं श्रीकृष्ण स्वरूपों की भक्ति एवं पूजा की लोकप्रियता बढ़ने लगी।
पुराणों के रचना काल में वामन भगवान एवं श्री परशुराम को भी निष्ठापूर्वक श्री हरि विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठा दी जाती रही किंतु उनके अलग से मंदिर बहुत कम बने। उन्हें प्रायः श्री हरि विष्णु के विविध अवतारों के मंदिरों में दशावतारों के रूप में ही प्रतिष्ठित किया जाता रहा।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने आज से लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पहले रामचरित मानस की रचना की। इस ग्रंथ में श्रीराम को भगवान श्रीहरि विष्णु के लौकिक अवतार के रूप में चित्रित किया गया एवं उनके शत्रुनाशक एवं भक्त-वत्सल स्वरूप का इतना मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया गया कि ‘श्रीराम-भक्ति’ ने ‘विष्णु-भक्ति’ के समस्त स्वरूपों को बहुत पीछे छोड़ दिया। केवल ‘कृष्ण-भक्ति’ ही श्रीराम-भक्ति के बराबर खड़ी रह सकी। भगवान के अन्य अवतारों एवं स्वरूपों की पूजा का प्रचलन बहुत कम हो गया।
गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित रामचरित मानस की ख्याति के पश्चात् श्रीराम के अवतारी पुरुष होने का विश्वास इतना पुष्ट हो गया कि उस काल में कदाचित् ही ऐसा कोई हिन्दू बचा था जो श्रीराम को लौकिक पुरुष मानता हो या जिसे श्रीराम के विष्णु का अवतार होने पर संदेह हो! इक्ष्वाकुवंशी राजकुमार श्रीराम के अवतारी पुरुष बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए हमें विभिन्न पुराणों के साथ-साथ दक्षिण भारत की विभिन्न भाषाओं में रचित रामकथाओं एवं अलावार संतों द्वारा रचि साहित्य का अध्ययन करना होता है।