ई.1018 में महमूद गजनवी ने कन्नौज के प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया। कन्नौज के प्रतिहार विगत लगभग दो शताब्दियों से उत्तरी भारत का नेतृत्व कर रहे थे किंतु चौहानों, परमारों तथा चौलुक्यों के प्रहारों से ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के आते-आते प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। फिर भी गुर्जर-प्रतिहारों की वीरताओं के किस्से पूरे मध्य-एशिया में प्रचलित थे जिनके कारण महमूद गजनवी ने अतिरिक्त सावधानी बरती।
महमूद ने अपनी सेना को मथुरा में छोड़ा जो मथुरा नगर के कलात्मक भवनों एवं मंदिरों को जलाकर नष्ट करने में व्यस्त हो गई तथा महमूद स्वयं एक छोटी घुड़सवार सेना लेकर तेजी से चलता हुआ 20 दिसम्बर 1018 को कन्नौज पहुंच गया। जब महमूद कन्नौज के काफी निकट आ गया तब महमूद के गुप्तचरों ने कन्नौज नगर में यह सूचना फैला दी कि महमूद अपनी विशाल सेना लेकर कन्नौज के निकट पहुंच गया है।
कन्नौज का राजा राज्यपाल महमूद गजनवी की शातिराना चाल को नहीं समझ सका कि महमूद थोड़े से घुड़सवारों के साथ आया है तथा उसकी अधिकांश सेना मथुरा में पड़ी हुई है। राज्यपाल के पास इस बात की पुष्टि करने का भी समय नहीं था कि महमूद के पास वास्तव में कितनी सेना है! राज्यपाल ने सोचा कि मैं बिना किसी तैयारी के महमूद की विशाल सेना का सामना नहीं कर सकता अतः राज्यपाल घबरा गया और कन्नौज से बाहर निकलकर गंगा नदी को पार करके बारी नामक स्थान पर चला गया। महमूद के गुप्तचर महमूद को राज्यपाल की गतिविधियों की पल-पल की सूचना दे रहे थे। अतः महमूद थोड़े से अश्वारोहियों के साथ ही कन्नौज में घुस गया। देखते ही देखते कन्नौज पर महमूद का अधिकार हो गया। महमूद ने राज्यपाल के सात दुर्ग भी छीन लिए।
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महमूद के दरबारी लेखक उतबी के अनुसार महमूद ने मुंज नामक दुर्ग पर आक्रमण किया। यह दुर्ग ब्राह्मणों के अधिकार में था। जब मुंज के ब्राह्मणों ने महमूद द्वारा कन्नौज जीत लिए जाने की सूचना सुनी तो वे मुंज दुर्ग में तैयारियां करके बैठ गए। पूरे 25 दिन तक मुंज के नागरिक एवं सैनिक महमूद से युद्ध करते रहे। अंत में मुस्लिम अश्वारोहियों ने दुर्ग में घुसकर मारकाट मचा दी। बहुत से ब्राह्मण-सैनिक मारे गए तथा कुछ ने किले से बाहर निकलकर जंगलों की शरण ली। मुंज नगर की औरतों एवं बच्चों ने किले की दीवारों पर से छलांग लगाकर अपने शरीर त्याग दिए।
मुंज के बाद महमूद की सेना आसी नामक दुर्ग की ओर बढ़ी। आसी का दुर्गपति चंदर कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहारों के विरुद्ध युद्ध करता रहता था किंतु महमूद के आने की सूचना पाकर वह भी आसी का दुर्ग छोड़कर भाग गया। महमूद के अश्वारोही दुर्ग में घुस गए तथा यहाँ भी उन्होंने दुर्ग में रह रहे निरीह लोगों का नृशंसता पूर्वक संहार किया। गजनी की सेना ने लगभग पूरा दुर्ग ही तहस-नहस कर दिया।
इसके बाद महमूद शरवा के दुर्ग की तरफ बढ़ा। यहाँ का शासक चन्द्रराय, हिन्दूशाही राजा त्रिलोचनपाल का शत्रु था किंतु उसने भी महमूद का नाम सुनते ही किला खाली कर दिया। वह अपने रनिवास, राजकोष एवं हाथियों को लेकर 45 मील दूर घने जंगल में स्थित एक पहाड़ पर जा चढ़ा। महमूद ने शरवा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा आगे बढ़कर उस पहाड़ी को घेर लिया जिस पहाड़ी पर राजा चन्द्रराय चढ़ा हुआ था। 6 जनवरी 1019 को महमूद ने उस पहाड़ी पर अधिकार कर लिया तथा राजा चंद्रराय को पकड़ लिया। चूंकि यहाँ पर तीन दिन तक भयानक युद्ध चला था इसलिए महमूद ने पहाड़ी पर स्थित समस्त मनुष्यों का कत्ल करवा दिया तथा राजा चंद्रराय के हाथी-घोड़े, सोना-चांदी एवं विशाल सम्पत्ति छीन लिए। गजनी की सेना तीन दिन तक पहाड़ी में इधर-उधर छिपे हुए खजाने को एकत्रित करती रही। इस पहाड़ी से महमूद को अनेक दास एवं सुंदर दासियां भी प्राप्त हुईं।
इस प्रकार एक-एक करके कन्नौज क्षेत्र के सात दुर्ग महमूद के अत्याचारों के ग्रास बन गए। गंगा के उपजाऊ मैदान में स्थित इस समृद्ध क्षेत्र की अपार सम्पदा महमूद के द्वारा लूट ली गई। कई हजार स्त्री-पुरुषों को पकड़कर गुलाम बना लिया गया। हजारों स्त्रियों का सतीत्व लूटा गया, मासूम बच्चे भालों एवं तलवारों की नोकों से मार दिए गए एवं सम्पूर्ण क्षेत्र में हाहाकार मच गया।
जो भारतीय राजा अपनी आन-बान और शान के लिए एक दूसरे का खून बहाते रहते थे, वे महमूद क हाथों से अपनी निरीह प्रजा की रक्षा नहीं कर सके। इन राजाओं को रणक्षेत्र क्षेत्र छोड़कर भाग जाने में भी कोई शर्म नहीं आई। जिन प्रतिहारों ने अपने नामों के आगे नारायण, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, श्रीमद्, तथा नाम के पीछे देवराज्ये जैसी उपाधियां लिखीं, वे महमूद नामक आंधी में तुच्छ तिनके तरह उड़ गए। जिन वीर चंदेलों को पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करने एवं उसे परास्त करके जीवित छोड़ने का आज तक दंभ है, वे चंदेल भी अपने राज्य में मुंह छिपाकर बैठे रहे। मानो उनके राज्य की सीमा पर जो कुछ हो रहा था, वह अत्यंत सामान्य बात थी।
होना तो यह चाहिए था कि जब महमूद की लुटेरी सेना गंगा-यमुना के दो-आब में स्थित मथुरा को लूट रही थी, तभी गंगा के मैदानों में स्थित राजाओं को सतर्क हो जाना चाहिए था और अपनी तैयारियां आरम्भ कर देनी चाहिए थीं। मध्य-गंगा-मैदान के राजाओं को एक विदेशी, विधर्मी, अत्याचारी एवं दुर्दान्त आक्रांता के विरुद्ध कोई संघ बनाने का प्रयास करना चाहिए था किंतु उस काल के शासकों की बुद्धि मानो किसी अदृश्य शक्ति ने हर ली थी जिसका दुष्परिणाम आने वाली सदियों तक भारतीयों को भुगतना था।
गंगा के समृद्ध मैदानों में स्थित दुर्गों से प्राप्त सम्पूर्ण सम्पत्ति को जानवरों पर लादकर एवं दास-दासियों को रस्सियों से बांधकर महमूद गजनवी बड़ी अकड़ के साथ धौंसा बजाता हुआ गजनी के लिए रवाना हो गया। इन दृश्यों को देखकर वीरभूमि भारत की आत्मा निष्प्रभ एवं श्रीहीन होकर सिसकने लगी किंतु यह महमूद के पापों का अंत नहीं था। अभी तो उसके अत्याचारों के बड़े किस्से लिखे जाने बाकी थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता