अब तक किए गए भारत-अभियानों में महमूद गजनवी भारतीय राजाओं एवं भारतीय सेनाओं की शक्तियों एवं कमजोरियों को अच्छी तरह जान चुका था। इसलिए गजनी से सोमनाथ तक पहुंचने के लिए महमूद गजनवी ने अच्छी तैयारी की। उस काल में गजनी से सोमनाथ तक आने के लिए दो मार्ग उपलब्ध थे। पहला मार्ग गजनी से मुल्तान होते हुए चौहानों के अजमेर राज्य से होकर सोमनाथ को आता था। यह पूरा मार्ग हरा-भरा, समृद्ध एवं मनुष्यों तथा प्राकृतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण था किंतु इस मार्ग को अपनाने में कठिनाई यह थी कि उस काल में अजमेर के चौहान शासक बहुत प्रबल थे और महमूद गजनवी पहले भी दो बार अजमेर के चौहान राजाओं से मार खा चुका था। इसलिए इस राज्य से होकर निकलना लगभग असंभव था।
दूसरा मार्ग गजनी से मुल्तान होकर भाटियों के लोद्रवा राज्य होते हुए सोमनाथ को जाता था। इस मार्ग में थार का विकट रेगिस्तान स्थित था जहाँ सैंकड़ों मील तक न तो पानी की एक बूंद उपलब्ध होती थी और न पेड़-पौधों के ही दर्शन होते थे।
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यह मार्ग जहरीले सांप-बिच्छुओं एवं रेगिस्तानी डाकुओं से भरा हुआ था। इस मरुस्थल में हाथी, घोड़े, बैल तथा गाड़ियां नहीं चल सकती थीं। केवल ऊँट ही एकमात्र साधन था जिसकी पीठ पर बैठकर हजारों सैनिकों को हजारों मील की यात्रा करनी थी। इस भयानक, लम्बे और थकाऊ मार्ग को पार करने के लिए पानी से भरी हुई कई लाख पखालें तथा कई हजार मन अनाज भी ऊंटों की पीठ पर ही लादे जाने थे। इतने ऊँटों का प्रबंध करना भी एक कठिन कार्य था।
यह एक असंभव सा दिखने वाला कार्य था किंतु जब से महमूद ने मूलस्थान के मार्त्तण्ड मंदिर, नगरकोट के बज्रेश्वरी मंदिर तथा मथुरा के श्रीकृष्ण-जन्मभूमि मंदिर से सोने की बड़ी-बड़ी मूर्तियां लूटी थीं तब से उसकी आँखों में भारत के मंदिरों के सोने को लूटने का लालच बहुत बढ़ गया था। यहाँ तो उसे सोमनाथ के मंदिर से सोने और रेशम से लदी हुई हजारों देवदासियां भी मिलने वाली थीं।
महमूद ने गजनी से सोमनाथ पहुंचने के लिए, चौहानों के भय से अजमेर राज्य से होकर निकलना उचित नहीं समझा तथा थार मरुस्थल के दुर्गम मार्ग पर चलने का निश्चय किया। इस मार्ग पर चलने में एक लाभ यह भी था कि इस काल में लोद्रवा के भाटियों का राज्य कमजोर चल रहा था। कई महीनों तक महमूद इस अभियान की तैयारी करने में जुटा रहा। जैसे ही वर्षा ऋतु समाप्त हुई और पहाड़ों पर चलना सुगम हो गया, महमूद गजनी से निकलकर हिन्दुकुश पर्वत पर चढ़ गया। 30 हजार ऊंटों पर अन्न तथा जल लादकर तथा 30 हजार घोड़ों पर सैनिकों को बैठाकर 18 अक्टूबर 1025 को महमूद गजनी से रवाना हुआ तथा 9 नवम्बर 1025 को मुल्तान पहुंच गया। इसके बाद वह पंजाब में नदियों के किनारे-किनारे आगे बढ़ता हुआ थार रेगिस्तान की सीमा तक पहुंच गया।
जैसे ही थार का विकट मरुस्थल आरम्भ हुआ, महमूद का सामना गोगाजी चौहान नामक एक अद्भुत वीर से हुआ। गोगाजी चौहान वर्तमान पंजाब के दक्षिण में स्थित एक छोटे से रेगिस्तानी राज्य के शासक थे जिसे ददरेवा कहा जाता है। वर्तमान समय में ददरेवा हिसार तथा बीकानेर के बीच स्थित मरुस्थलीय गांव है।
लोक मान्यता है कि गोगाजी चौहान ने महमूद की सेना से लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की। इस युद्ध के बारे में इतिहास में अधिक उल्लेख नहीं मिलता किंतु निश्चय ही यह एक महत्त्वपूर्ण घटना रही होगी क्योंकि आज एक हजार साल बीत जाने पर भी उत्तर भारत के करोड़ों लोग गोगाजी को लोकदेवता के रूप में पूजते हैं। गोगाजी चौहान को राजस्थान में गोगापीर तथा हरियाणा, उत्तरप्रदेश तथा पंजाब में जाहिर पीर कहा जाता है।
जब विकट रेगिस्तान आरम्भ हुआ तो महमूद ने अपने घोड़ों तथा बैलगाड़ियों को एक सेना के संरक्षण में वहीं छोड़ दिया। आगे की यात्रा केवल ऊंटों पर की जा सकती थी। इसलिए सारी खाद्य सामग्री और पानी की पखालें ऊँटों पर लाद दी गईं। रेगिस्तान में यात्रा करना कोई आसान बात नहीं थी। उन दिनों मरुस्थल में चलने वाले काफिले प्रायः रात में यात्रा किया करते थे तथा दिन में किसी स्थान पर तम्बू लगाकर आराम किया करते थे। इन दिनों शीत ऋतु अपने चरम पर थी, इसलिए दिन की तपती धूप तो अधिक परेशान नहीं करती थी किंतु रात को तापमान इतना अधिक गिर जाता था कि मोटे-मोटे कम्बलों में भी सैनिकों के शरीर ठिठुरते थे।
इस रेगिस्तान में भूरे-पीले सांपों की एक विचित्र प्रजाति मौजूद थी जो रात के समय सोते हुए सैनिकों के निकट आकर बैठ जाती थी और सैनिकों की सांसों में तेज जहर छोड़ देती थी। जब सुबह होने पर मृत सैनिक के शरीर की जांच की जाती तो उनका शरीर नीला होता था जिससे अनुमान होता था कि उसे सर्प ने काटा है किंतु शरीर पर सर्पदंश का निशान नहीं मिलता था। स्थानीय लोग उसे पीवणा सांप कहते थे। वह सांप कब तम्बू में घुसता था और कब निकल जाता था, इसका अनुमान तक नहीं हो पाता था।
यही हाल बड़े-बड़े बिच्छुओं का था। वे रेत में छिपे रहते थे और जैसे ही कोई इंसान उसके पास पहुंचता था, वे रेत से निकल कर डंस लेते थे। कई तरह की जहरीली छिपकलियां भी इसी तरह आँख-मिचौनी खेलती थीं। वे चुपके से सैनिकों के कपड़ों में घुस जातीं और जान लिए बिना नहीं छोड़ती थीं। सैंकड़ों फुट ऊंचे रेत के टीलों में पैर घुटनों तक धंस जाते थे। कोई रास्ता, कोई पगडण्डी, कोई ऐसा निशान मीलों तक दिखाई नहीं देता था जिससे यह पता लग सके कि यात्री सही दिशा में जा रहे हैं या नहीं।
महमूद की सेना को केवल इतना पता था कि उन्हें दक्षिण दिशा की तरफ चलते जाना है। महमूद की सेना मार्ग में कभी-कभार दिखने वाले मरुस्थलीय गांवों के कुछ लोगों को पकड़कर अपने साथ ले लेती थी जो उन्हें कुछ दूरी तक मार्ग दिखा सकते थे। ऊंटों की पीठ पर बैठकर ऊँचे टीलों को पार करते हुए सैनिक प्रायः यह सोचते थे कि वे रेत के किसी समुद्र में धकेल दिए गए हैं। कौन जाने कभी इस समुद्र का अंत आएगा भी या नहीं! यह यात्रा कभी नहीं हुई होती यदि सैनिकों को पेट की आग ने और महमूद को सोने तथा देवदासियों की भूख ने इस यात्रा के लिए विवश नहीं किया होता।
पहाड़ों, पठारों, जंगलों और मैदानों में घोड़ों की पीठ पर बैठकर कई हजार मील की यात्राएं कर चुका महमूद स्वयं को घोड़ों के बिना बड़ा असहाय समझ रहा था किंतु रेगिस्तान में ऊंटों ने जो गति दिखाई उसे देखकर महमूद हैरान रह गया। वह अपने अनुमान से अपेक्षाकृत बहुत कम समय में लोद्रवा पहुंच गया जो रेत के महासमुद्र के बीचों-बीच स्थित जान पड़ता था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता