जब महमूद गजनवी सोमनाथ महालय को भंग करके गजनी लौट रहा था तो उसे सिंध तथा पंजाब के क्षेत्र में जाटों एवं भाटियों ने लूट लिया था। उस समय तो महमूद को रेगिस्तान से बाहर निकलने की शीघ्रता थी क्योंकि गर्मियां आरम्भ होने वाली थीं और यदि महमूद विलम्ब करता तो उसके लिए रेगिस्तान से बाहर निकल पाना असंभव हो जाता किंतु अगली सर्दियों में अर्थात् 1027 में महमूद फिर से रेगिस्तान में लौट कर आया। उसने जाटों एवं भाटियों को भलीभांति दण्डित करके उनका धन लूट लिया और फिर से गजनी लौट गया।
गजनी में महमूद सुख से नहीं जी सका। इस समय तक वह 56 साल का प्रौढ़ हो चुका था तथा असमय ही वृद्धावस्था की ओर ढल चुका था। जीवन भर युद्ध के मैदानों में तलवार चलाने के कारण महमूद के अंग शिथिल हो चले थे तथा उसके शरीर को कई रोगों ने आकर घेर लिया था। इस समय तक महमूद का साम्राज्य ईरान से लेकर भारत में लाहौर तक फैल चुका था। इसका क्षेत्रफल बगदाद के खलीफा के साम्राज्य से भी अधिक बड़ा था।
उनसठ वर्ष की आयु में महमूद को मलेरिया और राजयक्ष्मा एक साथ हो गए।
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इन्हीं बीमारियों के कारण 30 अप्रेल 1030 को महमूद गजनवी इस असार संसार से कूच कर गया। भारत से लूटी गई अपार दौलत उसके कुछ काम नहीं आई। उसके वंशज लगभग 150 वर्षों तक गजनी पर शासन करते रहे और आपस में लड़ते रहे। महमूद के शव को गजनी के दुर्ग में ही दफनाया दिया गया तथा एक मजार बना दी गई। महमूद गजनवी सोमनाथ महालय से चंदन के जो कपाट उतरवाकर लाया था, उन कपाटों को इस मजार पर लगवा दिया गया।
ई.1839 से 1842 के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ने प्रथम अफगान युद्ध लड़ा। इस लड़ाई में कम्पनी की तरफ से जाट लाईट इन्फैन्टरी बटालियन को गजनी भेजा गया। उसी दौरान इन्फेण्टरी के जवानों को सोमनाथ महालय के कपाटों के बारे में जानकारी मिली। 6 सितम्बर 1842 को कम्पनी की सेना द्वारा गजनी फोर्ट पर हमला किया गया। कमाण्डर एलनबोर्गाेस के आदेश पर महमूद के मकबरे से चंदन के दरवाजे उखाड़ लिए गए। दिसम्बर 1842 में ये कपाट भारत लाये गये। इन्हें आगरा के किले में रखवाया गया।
कई वर्षों बाद भारतीय वैज्ञानिकों से इन कपाटों में लगी लकड़ी की जांच करवाई गई। इस जाँच में पाया गया कि ये कपाट साधारण अफगानी देवदार की लकड़ी से बने हुए हैं और सोमनाथ के दरवाजों की नकल मात्र हैं। कहा जा सकता है कि सोमनाथ से ले जाए गए चंदन के कपाटों के नष्ट हो जाने के बाद उनके जैसे दिखने वाले दूसरे कपाट बनवाकर गजनी की मजार पर लगाए गए होंगे।
महमूद गजनवी ने भारत में किसी बड़े साम्राज्य की स्थापना नहीं की किंतु उसने अपने दामाद ख्वाजा हसन मंहदी को सिंध तथा मुल्तान का गवर्नर बना दिया। ख्वाजा हसन की मृत्यु के बाद उसके वंशज भारत की पश्चिमी सीमा पर छोटे-छोटे राज्यों पर शासन करते रहे। महमूद गजनवी तो काल के गाल में समा गया किंतु उसके द्वारा भारत को दिए गए घाव स्थाई सिद्ध हुए। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महमूद ने भारत में किसी बड़े राज्य की स्थापना नहीं की इसलिए उसके द्वारा किए गए आक्रमणों का भारत पर कोई स्थाई प्रभाव नहीं हुआ किंतु इन इतिहासकारों का ऐसा सोचना गलत है।
महमूद द्वारा किए गए हमलों से पंजाब का प्रबल हिन्दूशाही राज्य समाप्त हो गया जिससे हिन्दूकुश पर्वत के पूर्व की ओर स्थित भारत की रक्षापंक्ति सदा के लिए नष्ट हो गई। अब कोई भी अफगान, तुर्क, मंगोल अथवा मध्यएशियाई आक्रांता भारत में थोड़े से प्रयासों से ही घुस सकता था और दिल्ली तक भी पहुंच सकता था। हिन्दूकुश पर्वत से लेकर मुल्तान, पंजाब तथा सिंध के क्षेत्र स्थाई रूप से मुस्लिम गवर्नरों के अधीन चले गए जो अफगानिस्तान और मध्यएशिया से आने वाले आक्रांताओं को आधार प्रदान करने लगे।
यद्यपि ई.1030 में महमूद की मृत्यु से लेकर ई.1192 में मुहम्मद गौरी द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने के बीच 162 वर्ष का अंतराल था तथापि महमूद गजनवी द्वारा दिल्ली सल्तनत की स्थापना के लिए इतनी गहरी नींव बनाई जा चुकी थीं जिन्हें इस लम्बे अंतराल में भी भरा नहीं जा सका। इस नींव के दर्शन भारतीयों के मन में जड़ें जमा चुके भय और पराजय के भाव में किए जा सकते थे। यह अलग बात है कि महमूद के आक्रमणों और भारतीय पराजयों से भारतवासियों ने कोई शिक्षा नहीं ली। वे पूर्ववत् अपना जीवन जीते रहे तथा महमूद को भूल गए। दूसरी ओर महमूद गजनवी के वंशज कभी भी भारत को नहीं भूले। उनके भारत-अभियान चलते रहे और तब तक चलते रहे जब तक कि भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना नहीं हो गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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