मंगल पाण्डे ने अंग्रेज अधिकारी को गोली मारकर राष्ट्रव्यापी महाक्रांति का बिगुल बजा दिया!
26 फरवरी 1857 को कलकत्ता से 120 मील दूर स्थित बहरामपुर छावनी के सैनिकों को जैसे ही ज्ञात हुआ कि उन्हें गाय एवं सूअर की चर्बी से चिकने किए गए कारतूत दिए गए हैं तो भारतीय सिपाहियों ने चर्बी-युक्त कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। लॉर्ड केनिंग ने उस कम्पनी को भंग कर दिया। इससे अन्य सैनिक टुकड़ियों में असन्तोष फैल गया।
29 मार्च 1857 को कलकत्ता से 5 मील दूर स्थित बैरकपुर छावनी में 34वीं कम्पनी के सिपाही मंगल पाण्डे ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। उसने अपने साथियों को ललकारा- ‘तुम लोग धर्म के लिये संग्राम में उतर पड़ो।’ मंगल पाण्डे ने अपने अंग्रेज एडजुटेण्ट पर गोली चलाकर उसे मार डाला।
इस पर बर्मा से एक गोरी पलटन बैरकपुर बुलवाई गई जिसने मंगल पाण्डे को बन्दी बनाकर 8 अप्रेल 1857 को फांसी पर चढ़ा दिया। बैरकपुर में स्थित समस्त भारतीय सैनिकों के हथियार रखवा लिए गए तथा वायसराय के आदेश से पूरी कम्पनी को भंग कर दिया। भंग कम्पनी के सैनिकों ने अपने-अपने गांव पहुंचकर मंगल पाण्डे के बलिदान की गाथा लोगों को सुनाई। इससे भारत की विभिन्न छावनियों में स्थित सैनिकों में भी चर्बी-युक्त कारतूसों के विरुद्ध क्रांति करने की भावना जागृत हुई।
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डलहौजी द्वारा ई.1856 में अवध को अँग्रेजी राज्य में मिलाये जाने के कारण, अवध में अँग्रेजों के विरुद्ध भारी असन्तोष था। 2 मई 1857 को लखनऊ की अवध रेजीमेंट ने चरबी-युक्त कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। 3 मई 1857 को लखनऊ में सैनिक विद्रोह हुआ जिसे दबा दिया गया। 31 मई 1857 को एक बार पुनः विद्रोह फूट पड़ा। यह विद्रोह अवध राज्य के विभिन्न भागों में फैल गया।
अवध का नवाब वाजिद अलीशाह कलकत्ता में अँग्रेजों का बन्दी था, अतः विद्रोहियों ने उसके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादर को नवाब घोषित करके शासन, बेगम हजरत महल को सौंप दिया। अवध के जमींदारों, किसानों और सैनिकों ने, बेगम हजरत महल की सहायता की। 20 जून 1857 को क्रांतिकारियों ने अँग्रेजी सेना को परास्त कर दिया। ब्रिटिश सेना ने भागकर ब्रिटिश रेजीडेंसी में शरण ली।
क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश रेजीडेंसी में आग लगा दी। इसके बाद अवध के अधिकांश ताल्लुकेदारों एवं जमींदारों ने अपनी जागीरों तथा जमींदारियों पर अधिकार कर लिया। लखनऊ में रह रहे अँग्रेजों की सहायता के लिए प्रधान सेनापति कॉलिन कैम्पबेल, आउट्रम तथा हेवलॉक अपनी-अपनी सेनाएं लेकर लखनऊ पहुंचे। नेपाल से गोरखा सेना बुलाई गई। 31 मार्च 1858 को अँग्रेजों ने लखनऊ पर पुनः अधिकार कर लिया। इसके बाद भी ताल्लुकेदार छिपकर अँग्रेजों की हत्या करते रहे किन्तु मई 1858 में बरेली पर अँग्रेजों का अधिकार हो जाने पर अवध के क्रान्तिकारियों ने हथियार डाल दिये। इसके बाद अवध रेजीमंेट को भंग कर दिया गया।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारतीय सैनिकों को दिए गए कारतूसों के चर्बी-युक्त होने की सूचना मेरठ छावनी में भी पहुँच गई। 24 अप्रैल 1857 को घुड़सवारों की एक सैनिक टुकड़ी ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। मेरठ छावनी का अधिकारी कारमाइकेल स्मिथ अत्यन्त घमण्डी था। उसने सैनिकों को 5 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई। 9 मई 1857 को 85 सैनिकों को अपराधियों के कपड़े पहनाकर बेड़ियाँ लगा दी गईं।
कारमाइकेल ने भारतीय सैनिकों को चुनौती दी कि वे चाहें तो अपने साथियों के अपमान का बदला ले सकते हैं। 9 मई की शाम को जब कुछ सिपाही नगर में घूमने निकले तो राह चलती स्त्रियों ने उन पर ताने कसे। मुरादाबाद के तत्कालीन जज जे. सी. विल्सन ने लिखा है- ‘महिलाओं ने सिपाहियों से कहा, छिः! तुम्हारे भाई जेलखाने में हैं और तुम यहाँ बाजार में मक्खियां मार रहे हो। तुम्हारे जीने पर धिक्कार है।’
10 मई 1857 को सांय 5 बजे मेरठ की एक पैदल सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह घुड़सवारों की टुकड़ी में भी फैल गया। कारमाइकेल जान बचाकर भाग गया। क्रांतिकारी सैनिक, जेल में घुसे और उन्होंने बन्दी सैनिकों की बेड़ियाँ काटकर उन्हें अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये। इसके बाद अँग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतार कर, वे दिल्ली की ओर चल पड़े। उस समय जनरल हेविट के पास 2,200 यूरोपीय सैनिक थे परंतु उसने इस प्रचण्ड विद्रोह को रोकने का साहस नहीं किया।
जहाँ भारतीय इतिहासकारों ने मंगल पाण्डे को अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति का अग्रदूत बताया है, वहीं अंग्रेज इतिहासकारों ने मंगल पाण्डे की बगावत का इस क्रांति से कोई सम्बन्ध होना नहीं माना है। विलियम डैलरिंपल ने अपनी पुस्तक द लास्ट मुगल में लिखा है कि- ‘जब से विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक द इंडियन वॉर ऑफ इण्डिपेंडेंस 1857 प्रकाशित हुई, तब से बैरकपुर में मार्च की साजिश गदर का एक मुख्य हिस्सा बन गई जिसे बॉलीवुड की फिल्म मंगल पांडे ने और बढ़ावा दिया किंतु वास्तव में मंगल पाण्डे का इस गदर को कोई सम्बन्ध नहीं है जो दो महीने बाद मेरठ में आरम्भ हुआ था।’
वस्तुतः भारतीय इतिहासकारों एवं अंग्रेज इतिहासकारों के दृष्टिकोण में अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति को लेकर आरम्भ से ही विरोध रहा है। भारतीय इतिहासकार इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महान् आयोजन मानते हैं तो अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे असंतुष्ट भारतीय तत्वों की बगावत कहकर उसकी गरिमा को कम करने का प्रयास किया है।
फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति केवल किसी एक तत्व द्वारा आरम्भ की गई योजना के दायरों में सीमित नहीं थी, यह राष्ट्रव्यापी घटनाओं का एक असम्बद्ध किंतु दीर्घ सिलसिला थी।
इस क्रांति के बहुत से आयाम निःसंदेह बहुत महान् थे जिनमें 29 मार्च 1857 को आरम्भ हुई बैरकपुर की क्रांति, 10 मई 1857 को आरम्भ हुई मेरठ की क्रांति, 31 मई 1857 को आरम्भ हुई अवध की क्रांति, 8 जून 1857 को आरम्भ की गई झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की गई क्रांति, मराठी ब्राह्मण तात्या टोपे द्वारा की गई क्रांति, पेशवा नाना साहब द्वारा बिठूर में की गई क्रांति, बिहार के जगदीशपुर के जागीरदार कुंवरसिंह की क्रांति, मध्य भारत के नीमच की क्रांति, राजपूताना के नसीराबाद, ऐरनपुरा, कोटा, देवली तथा आउवा की क्रांति, बिहार की दानापुर रेजिमेंट द्वारा की गई क्रांति, रामगढ़ की क्रांति तथा दक्षिण भारत के कुछ स्थानों पर हुई क्रांति की घटनाएं सम्मिलित थीं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता