अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में सर्वाधिक शौर्य का प्रदर्शन तात्या टोपे द्वारा किया गया था। दुर्भाग्य से उसे राजस्थान के राजाओं का सहयोग नहीं मिला। यदि मिला होता तो भारत में स्थित समस्त अंग्रेजों की कब्रें भारत में ही बनी होतीं! मराठी ब्राह्मण तात्या टोपे ने अंग्रेजों को खूब छकाया!
तात्या टोपे पेशवा बाजीराव (द्वितीय) के निजी कर्मचारी पाण्डुरंग राव भट्ट़ का स्वाभिमानी बेटा था। तात्या टोपे का वास्तविक नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था, परंतु उसे स्नेह से तात्या कहा जाता था।
तात्या ने कुछ समय तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में काम किया था। तोपखाने में नौकरी के कारण उसके नाम के साथ टोपे जुड़ गया। कुछ लोगों के अनुसार पेशवा बाजीराव (द्वितीय) ने तात्या को एक बेशकीमती टोपी दी थी जिसे तात्या हर समय पहने रहता था। इस कारण उसका नाम तात्या टोपे पड़ गया।
जब ईस्वी 1857 में पेशवा नाना साहब (द्वितीय) ने क्रांति आरम्भ की तो पेशवा ने तात्या टोपे को अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब जुलाई 1857 के आरम्भ में अंग्रेजी सेना के दबाव में पेशवा नाना साहब को कानपुर खाली करना पड़ा तब तात्या पेशवा के साथ था। जिस समय अंग्रेजी सेनाएं अवध में लड़ रही थीं, तब तात्या ने अच्छा अवसर देखकर कानपुर पर अधिकार कर लिया।
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इस पर ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक लखनऊ से कानपुर आया और उसने तात्या की सेना को परास्त कर दिया। 16 जुलाई 1857 को तात्या परास्त होकर कानपुर से बारह मील उत्तर में स्थित बिठूर चला गया। इस पर हैवलॉक ने बिठूर पर आक्रमण किया। तात्या यहाँ भी पराजित हो गया और ग्वालियर चला गया।
तात्या के प्रभाव से कम्पनी सरकार की ग्वालियर कन्टिजेन्ट ने भी बगावत कर दी और वह तात्या के साथ हो गई। तात्या टोपे ने इस सेना को लेकर नवम्बर 1857 में फिर से कानपुर पर आक्रमण किया। कानपुर में नियुक्त मेजर जनरल विन्ढम की सेना कानपुर छोड़कर भाग गई।
6 दिसम्बर 1857 को ब्रिटिश सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को पराजित कर दिया। इस पर तात्या टोपे कानपुर से निकलकर चरखारी चला गया। चरखारी से तात्या को अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त हुए। जब 22 मार्च 1858 को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला तो तात्या टोपे 20,000 सैनिकों को लेकर अपने बचपन की साथी रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचा। लक्ष्मी बाई तथा तात्या टोपे की सेनाओं ने अंग्रेज सेना को परास्त कर दिया। इसके बाद रानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे कालपी पहुँचे। कालपी में उन्हें फिर से ह्यूरोज की सेना ने घेर लिया। तात्या तथा लक्ष्मी बाई को कालपी छोड़ना पड़ा।
तात्या टोपे ने ग्वालियर रियासत की सेना को अपनी ओर मिला लिया। जब ह्यूरोज कालपी की विजय का जश्न मना रहा था, तब रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे तथा नाना साहब ने ग्वालियर के किले पर अधिकार कर लिया। कुछ ही दिनों में ह्यूरोज ने ग्वालियर पर भी आक्रमण कर दिया। 18 जून 1858 को फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गई। इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा हुआ है।
तात्या टोपे अंग्रेजों से लड़ता रहा और भागता रहा किंतु उसने अंत तक समर्पण नहीं किया। तात्या ने अंग्रेजों के विरुद्ध जबर्दस्त छापामार युद्ध किया जिससे तात्या भारतीय स्वतंत्रा संग्राम का महानायक बन गया।
उत्तर एवं मध्य भारत की कोई नदी ऐसी नहीं थी जिसे तात्या ने पार नहीं किया हो, कोई पहाड़ ऐसा नहीं था, जिस पर तात्या के अश्व की टाप न गूंजी हो, कोई जंगल ऐसा नहीं था जिसमें तात्या ने डेरा नहीं डाला हो! आज के मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश की धरती तात्या टोपे तथा उसके क्रांतिकारी सिपाहियों की चरणरज पाकर धन्य हो गई। ऐसे अप्रतिम वीर धरती पर कम ही पैदा हुए हैं।
आज प्रत्येक भारतीय के हृदय में स्वतंत्रता की जो चिंगारी गौरव बनकर चमकती है, उसे तात्या टोपे का नाम अंगारे की तरह उद्दीप्त करता है। सर्दी की रातों में, गर्मियों की दोपहरी में और बरसातों की बौछारों में अंग्रेजों को तात्या टोपे के घोड़ों की टापें सुनाई देती थीं।
ब्रिटिश लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है- ‘हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोड़ों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकड़ने में सफलता नहीं मिली।’
ग्वालियर से निकलकर तात्या ने चम्बल पार की और राजस्थान के टोंक, बूँदी तथा भीलवाड़ा गया। वह जयपुर राज्य पर अधिकार करना चाहता था किंतु जब उसे ज्ञात हुआ कि मेजर जनरल राबर्ट्स पहले ही जयपुर पहुँच गया है तो वह उदयपुर की तरफ चल पड़ा। जनरल राबर्ट्स ने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा।
तात्या को आशा थी कि उसे कोटा तथा जयपुर के राजाओं से सहायता मिलेगी किंतु कोटा के महाराव से किसी तरह की सहायता न मिलने पर तात्या टोपे ने लालसोट का रुख किया। कर्नल होम्स उसके पीछे लगा रहा। जब तात्या टोंक पहुंचा तो टोंक के नवाब ने नगर के दरवाजे बंद कर लिये किंतु टोंक की सेना ने तात्या का स्वागत किया। तात्या ने टोंक नगर पर अधिकार कर लिया।
टोंक से निकलकर तात्या टोपे मेवाड़ की ओर मुड़ा। 14 अगस्त 1858 को मेवाड़ राज्य के कांकरोली गांव में तात्या की अंग्रेज सेना से जबर्दस्त मुठभेड हुई जिसमें तात्या पुनः परास्त हो गया। इस पर वह गिंगली एवं भीण्डर होता हुआ प्रतापगढ़ पहुंचा। यहाँ से तात्या चम्बल नदी की ओर भागा।
यह अगस्त का महीना था तथा चम्बल में भयानक बाढ़ आई हुई थी, फिर भी तात्या ने चम्बल को पार करके झालावाड़ राज्य में प्रवेश किया। झालावाड़ के महाराजराणा पृथ्वीसिंह ने तात्या की कोई सहायता नहीं की। इस पर तात्या ने झलावाड़ की राजधानी झालरापाटन पर अधिकार कर लिया। तात्या ने झालावाड़ पर अधिकार करके महाराजराणा से भारी धनराशि वसूल की और 30 तोपों पर अधिकार कर लिया।
झालावाड़ की सेना तथा जनता ने तात्या का स्वागत किया और उसकी भरसक सहायता भी की। रॉबर्ट, हैम्बिल्टन, माइकल तथा होम्स आदि अंग्रेज सेनापति अपनी-अपनी सेनाओं के साथ तात्या टोपे के पीछे लगे हुए थे। यहाँ से तात्या इंदौर होते हुए नर्मदा पार करके महाराष्ट्र जाना चाहता था किंतु मेजर जनरल माइकल ने राजगढ़ के निकट तात्या को घेर लिया।
तात्या तथा उसकी सेना वहाँ से भी बच निकलने में सफल हो गई। तात्या ने ब्यावरा पहुँचकर मोर्चा-बंदी की। अंग्रेजी सेना ने तात्या पर भीषण आक्रमण किया जिससे तात्या की सेना परास्त हो गई। अंग्रेजों ने तात्या की 27 तोपें छीन लीं। तात्या बेतवा घाटी होता हुआ सिरोंज चला गया और वहाँ पर एक सप्ताह विश्राम करके ईशागढ़ पहुँचा।
ईशागढ़ से तात्या की सेना दो भागों में बँट गयी। एक टुकड़ी नाना साहब के छोटे भाई बाला राव की कमान में ललितपुर चली गयी और दूसरी टुकड़ी तात्या टोपे की कमान में चंदेरी पहुंच गई। तात्या का विश्वास था कि चंदेरी में सिंधिया की सेना के कुछ और सिपाही उसके साथ हो जाएंगे परंतु ऐसा नहीं हुआ तो तात्या मगावली चला गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता