जिस समय मार्क्विस वेलेजली (1798-1805 ई.) को बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया, उस समय कम्पनी की अहस्तक्षेप की नीति के कारण भारत में कम्पनी का प्रभाव क्षीण हो चला था। भारत की प्रमुख शक्तियाँ कम्पनी का विरोध कर रहीं थी। मैसूर का शासक टीपू, जिसने कार्नवालिस के समय अँग्रेजों से परास्त होकर श्रीरंगपट्टम की सन्धि की थी, अब श्रीरंगपट्टम की सन्धि का अपमान का बदला लेने की तैयारी कर रहा था। हैदराबाद का निजाम भी अँग्रेजों से नाराज था, क्योंकि मराठों के विरुद्ध हुए युद्ध में अँग्रेजों ने उसकी कोई सहायता नहीं की थी। मराठे भी दक्षिण में अँग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभाव को समाप्त करने की तैयारी कर रहे थे। भारत में नियुक्ति के समय वेलेजली की आयु 37 वर्ष थी। वह सामा्रज्यवादी, महत्वाकांक्षी तथा अत्यंत कूटनीतिज्ञ व्यक्ति था। कम्पनी विस्तार के विषय में उसकी तुलना उसके पूर्ववर्ती क्लाइव एवं वारेन हेस्टिंग्ज तथा पश्चवर्ती लार्ड डलहौजी से की जा सकती है। वेलेजली ने सहायक संधियों के माध्यम से हैदराबाद के निजाम, अवध के नवाब, मराठों के पेशवा, राजपूताने के अलवर, भरतपुर, जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर और त्रावणकोर के राजा सहित अनेक राजाओं और नवाबों पर कम्पनी की सर्वोच्चता स्थापित की।
अहस्तक्षेप की नीति का परित्याग
माना जाता है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट्ट ने लॉर्ड वेलेजली को आदेश दिये थे कि वह भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करे तथा अमरीका के स्वतंत्रता संग्राम में इंग्लैण्ड ने जो प्रतिष्ठा खोई है, उसे भारत में साम्राज्य विस्तार कर पुनः प्राप्त करे। भारत में कम्पनी की सत्ता स्थापित करने के लिए फ्रांसीसियों के प्रभाव को समाप्त करना आवश्यक था। इसलिए लॉर्ड वेलेजली ने भारत आते ही पिट्स इण्डिया एक्ट की धारा 34 का अर्थ बताते हुए कहा कि- ‘इस धारा के शब्दों अथवा इसकी भावना से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि यह उचित और न्यायसंगत साधनों से राज्य विस्तार के विरुद्ध है।’
सहायक सन्धि प्रथा से पूर्ववर्ती संधियाँ
लॉर्ड वेलेजली भारत में कम्पनी राज्य का विस्तार करने के दृढ़ संकल्प के साथ आया था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारतीय राज्यों पर कम्पनी के आधिपत्य को स्पष्ट रूप से स्थापित करना आवश्यक था। इसलिए वेलेजली ने सहायक सन्धि प्रथा को जन्म दिया। कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि यह वेलेजली की मौलिक नीति नहीं थी। जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे ने लिखा है- ‘वेलेजली ने मराठों की चौथ और सरदेशमुखी प्रणाली को देखकर ही इस नीति का निर्माण किया था।’
कुछ इतिहासकार फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले को इस नीति का जन्मदाता मानते हैं, क्योंकि उसने भारतीय नरेशों से उपहार और भेंटेंआदि ग्रहण करके उन्हें सैनिक सहायता देने की प्रथा आरम्भ की थी। अल्फ्रेड लॉयल के अनुसार 1765 ई. से 1801 ई. के मध्य चार चरणों में सहायक सन्धि प्रथा का क्रमिक विकास हुआ-
(1.) ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारतीय शासकों के साथ की गई संधियों के पहले चरण में, कम्पनी अपने मित्र भारतीय शासक को आवश्यकता होने पर सैनिक सहायता देती थी और बदले में उससे एक निश्चित धनराशि प्राप्त करती थी। ऐसी सन्धियाँ 1765 ई. में अवध के साथ तथा 1768 ई. में निजाम के साथ की गईं।
(2.) द्वितीय चरण में यह परिवर्तन किया गया कि कम्पनी से सन्धि करने वाले भारतीय शासक की सुरक्षा के लिए एक स्थायी सेना कम्पनी अपने ही क्षेत्र में रखने का आश्वासन देती थी और उसके बदले में उस भारतीय शासक से वार्षिक निश्चित धनराशि प्राप्त करती थी। कम्पनी की सेना को मित्र राज्य की सीमा में नहीं रखकर कम्पनी राज्य की सीमा में रखा जाता था। वारेन हेस्टिंग्ज ने 1773 ई. में अवध के नवाब से ऐसी ही सन्धि की थी तथा अवध के नवाब ने रोहिल्लों के विरुद्ध युद्ध में कम्पनी की इस सेना का प्रयोग किया था।
(3.) आगे चलकर तीसरे चरण में, कम्पनी ने अपनी सेना को सन्धि करने वाले राज्य की सीमा में ही नियुक्त करना आरम्भ कर दिया, जिस राज्य की सुरक्षा का दायित्व कम्पनी अपने ऊपर लेती थी। 1798 ई. में वेलेजली ने निजाम के साथ इसी प्रकार की सन्धि की और निजाम से इस सेना का वार्षिक व्यय लेना निश्चित किया।
(4.) संधियों के चौथे चरण में, कम्पनी सन्धि करने वाले राज्य से, सेना का खर्च निश्चित धन के रूप में लेने के स्थान पर राज्य का निश्चित आय का भूभाग स्थायी रूप से अपने अधिकार में रखने लगी। इस प्रकार की सन्धि 1801 ई. में अवध के नवाब से की गई। उससे गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर, फर्रूखाबाद, इटावा, बरेली और मुरादाबाद के जिले प्राप्त किये गये।
सहायक संधि प्रथा के आविष्कार का वास्तविक उद्देश्य
वेलेजली की सहायक सन्धि की प्रथा, उपरोक्त क्रम में पांचवा चरण कही जा सकती है। क्योंकि उसकी नीति उपर्युक्त समस्त चरणों से थोड़ी भिन्न थी। उसके पूर्व की गई सन्धियों के समय कम्पनी का उद्देश्य सीमित था। वह कम-से-कम खर्च में अपने क्षेत्रों की सुरक्षा के उपाय खोज रही थी, जिसे सुरक्षा घेरे की नीति कहा गया है। अर्थात् कम्पनी के क्षेत्रों के चारों ओर मित्र राज्यों का सुरक्षा घेरा स्थापित किया गया। इसलिए सन्धि करने वाले राज्य की स्वतंत्रता तथा उसकी सार्वभौम सत्ता को कम करने का प्रयास नहीं किया गया था, जबकि वेलेजली की सहायक सन्धि प्रथा का उद्देश्य सन्धि करने का प्रयास नहीं था, अपितु सन्धि करने वाले राज्य पर कम्पनी के आधिपत्य को थोपना तथा उस राज्य की शासन व्यवस्था को कम्पनी के नियंत्रण में लाना था। अर्थात् इस प्रथा का उद्देश्य कम्पनी द्वारा देशी राज्य की घेराबंदी करना था।
जगन्नाथ प्रसाद मिश्र ने वेलेजली की सहायक सन्धि प्रथा की तुलना एक मकड़ी के जाले से करते हुए लिखा है– ‘जिस प्रकार मकड़ी के जाले में फँसने के बाद कोई भी कीड़ा बाहर नहीं निकल पाता, उसी प्रकार जो भारतीय राज्य सहायक सन्धि के जाल में एक बार फँसा, वह कभी भी उससे बाहर नहीं निकल सका। जाले में बैठी हुई मकड़ी जैसे अपने जाल में फँसे शिकार को अपनी सुविधानुसार कभी भी दबोच सकती है, उसी प्रकार कम्पनी ने भी, जब भी आवश्यक समझा, भारतीय राज्य पर अपना फंदा कड़ा कर दिया।’
जगन्नाथ प्रसाद मिश्र के उक्त कथन से स्पष्ट है कि वेलेजली की सहायक सन्धि प्रथा, उसके पहले के अधिकारियों द्वारा की जा रही संधियों से नितांत भिन्न थी।
सहायक सन्धि प्रथा का जन्म
सहायक सन्धि की शर्तें
वेलेजली ने देशी राज्यों के शासकों के साथ अलग-अलग सहायक सन्धियाँ कीं। इन संधियों की अधिकांश शर्तें एक जैसी थीं। सहायक सन्धि की मुख्य शर्तें इस प्रकार से थीं-
(1.) सैद्धांतिक रूप से सहायक संधि, कम्पनी और सम्बन्धित राज्य के बीच समानता के आधार पर होती थी किंतु वास्तव में देशी राज्य के शासक को कम्पनी की अधीनस्थ मित्रता स्वीकार करनी पड़ती थी।
(2.) देशी राज्य के वैदेशिक मामलों पर कम्पनी का नियंत्रण हो जाता था। देशी राज्य, कम्पनी सरकार की अनुमति के बिना न तो किसी अन्य शासक से युद्ध कर सकता था और न किसी प्रकार का राजनैतिक समझौता कर सकता था। इस प्रकार सन्धि करने वाले राज्य की बाह्य स्वतंत्रता समाप्त हो जाती थी।
(3.) देशी राज्य को अँग्रेजों के अतिरिक्त अन्य किसी यूरोपियन को अपने यहाँ नौकरी में रखने अथवा निवास करने की अनुमति देने का अधिकार नहीं होता था। इस शर्त का मुख्य उद्देश्य देशी राज्यों में फ्रांसीसियों के प्रभाव को समाप्त करना था।
(4.) देशी राज्य को अपने व्यय पर राज्य में कम्पनी की एक सेना रखनी पड़ती थी। यदि कोई राज्य इस सहायक सेना के व्यय के लिए धन नहीं दे सकता, तो उस धनराशि के बराबर आय का अपना भू-भाग कम्पनी को सौंपना पड़ता था।
(5.) देशी राज्य में कम्पनी की तरफ से एक अधिकारी नियुक्त किया जाता था जिसे रेजीडेन्ट अथवा पॉलिटिकल एजेन्ट कहते थे। वह राज्य की राजधानी में अथवा उसके निकट रहता था। वह राज्य तथा कम्पनी के बीच कड़ी का काम करता था तथा यह देखता था कि राज्य के द्वारा संधि की शर्तों का पालन किया जा रहा है अथवा नहीं! आगे चलकर ये अधिकारी देशी राज्य में उत्तराधिकार के मामलों में अनाधिकार हस्तक्षेप करने लगे तथा अपने इच्छित व्यक्ति को गद्दी पर बैठाने लगे।
(6.) इस सन्धि को स्वीकार करने वाले देशी राज्य को कम्पनी यह आश्वासन देती थी कि यदि उस राज्य पर कोई अन्य शक्ति आक्रमण करती है तो कम्पनी उस राज्य की रक्षा करेगी। यदि उस राज्य में आन्तरिक विद्रोह हो जाता है तो कम्पनी उस विद्रोह को समाप्त करने में सहयोग करेगी।
(7.) कम्पनी अपने मित्र राज्य को यह आश्वासन देती थी कि कि उस राज्य के आन्तरिक प्रशासन में कभी हस्तक्षेप नहीं करेगी।
(8.) दोनों पक्ष घनिष्ठ मित्रता बनाये रखने का वादा करते थे तथा एक पक्ष के मित्र या शत्रु, दूसरे पक्ष के मित्र या शत्रु मानने की बात स्वीकार करते थे।
वेलेजली के बाद जब लॉर्ड हेस्टिंग्ज (1813-1823 ई.) भारत आया तब उसने देखा कि प्रत्येक देशी राज्य किसी न किसी शक्ति को (अर्थात् मराठों, मुगलों, फ्रांसिसियों, डचों आदि को) खिराज अर्थात् वार्षिक कर चुकाता है। अतः हेस्टिंग्ज ने सहायक संधि में एक और शर्त जोड़ दी कि कम्पनी से सहायक संधि करने वाले देशी राज्य के द्वारा अनिवार्य रूप से खिराज की वह राशि कम्पनी को चुकानी पड़ेगी जो उसके पूर्ववर्ती शक्ति को चुकाई जाती रही है।
सहायक सन्धि प्रथा की समीक्षा
सहायक संधि की प्रथा भारत के देशी राज्यों के लिये विष तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिये अमृत सिद्ध हुई। इसके निम्नलिखित प्रमुख परिणाम निकले-
(1.) देशी राज्यों का शोषण: वेलेजली द्वारा आरम्भ की गई सहायक सन्धि प्रथा, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साम्राज्य विस्तार के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई। देशी राज्य इन संधियों के मकड़ जाल में फंसकर अपनी सम्प्रभुता गंवा बैठे। अँग्रेजों ने शासन की जिम्मेदारी तो भारतीय राज्यों पर ही रखी किंतु उन्हें संरक्षण देने के नाम पर उनका भरपूर शोषण किया। इस प्रकार कम्पनी ने भारतीय राज्यों पर, भारतीय राज्यों के शासन तंत्र के माध्यम से शासन किया।
(2.) बिना किसी व्यय के सेना का निर्माण: उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में यूरोप में नेपोलियन बोनापार्ट की शक्ति में तेजी से वृद्धि हो रही थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भय था कि कहीं नेपोलियन भारत पर आक्रमण न कर दे। अतः कम्पनी अपनी सैनिक शक्ति में विस्तार करना चाहती थी किन्तु कम्पनी के लिये विशाल सेना का खर्च वहन कर पाना सम्भव नहीं था। वेलेजली ने बड़ी चतुराई से यह काम कर लिया। उसने सहायक प्रथा के द्वारा कम्पनी की सेना में वृद्धि भी कर ली और उसका खर्च भी कम्पनी को वहन नहीं करना पड़ा। यद्यपि भारतीय राज्यों में कम्पनी की सेना उस राज्य की सुरक्षा के लिए रखी जाती थी, किन्तु इस सेना का प्रयोग करने का अधिकार केवल कम्पनी के पास था। इतना ही नहीं, आवश्यकता होने पर कम्पनी उस सेना का प्रयोग उस राज्य के विरुद्ध भी करती थी। सहायक संधियों का आविष्कार करने से पहले, कम्पनी की सेना कम्पनी राज्य के भीतर रहती थी तथा उसे एक स्थान से दूरस्थ स्थान पर भेजने में बड़ी कठिनाई होती थी। सहायक संधियों के बाद कम्पनी की सेना सन्धि करने वाले हर राज्य में नियुक्त रहती थी। इस कारण उन्हें किसी भी निकटवर्ती क्षेत्र में बड़ी आसानी से भेजा जाने लगा। वेलेजली ने बाद में स्वीकार किया था कि 22,000 सेना को कम्पनी की आर्थिक स्थिति पर कोई प्रभाव डाले बिना किसी भी भारतीय राज्य के विरुद्ध भेजा जा सकता है।
(3.) सैनिक सीमाओं का विस्तार: सहायक सन्धियों के सफल रहने से कम्पनी की सैनिक सीमाएँ उसकी राजनैतिक सीमाओं से भी आगे निकल गईं। 1805 ई. में कम्पनी की राजनैतिक सीमा बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा कुछ गिने-चुने स्थानों तक सीमित थी किन्तु उसकी सैनिक सीमा उत्तर भारत में अवध व रोहिलखण्ड तक तथा दक्षिण में कर्नाटक तक फैल गई। इस कारण कम्पनी की राजनैतिक सीमाएँ पूर्णतः सुरक्षित हो गईं। इस व्यवस्था से कम्पनी को अपनी राजनैतिक सीमाओं के और अधिक विस्तार का अवसर मिल गया। निजाम के साथ सहायक सन्धि हो जाने के बाद वेलेजली के लिए मैसूर विजय करना सरल हो गया। इसी प्रकार अवध के साथ सन्धि होने के बाद रोहिलखण्ड, आगरा तथा दिल्ली पर सरलता से अधिकार कर लिया गया।
(4.) देशी राज्यों के क्षेत्रों को हड़पने में सुविधा: कम्पनी द्वारा जिन देशी राज्यों से सहायक सन्धियाँ की गईं, उनसे सैनिक व्यय के नाम पर विस्तृत-भू-भाग स्थायी रूप से कम्पनी ने अपने अधिकार में ले लिये। इससे कम्पनी का साम्राज्य विस्तार होता चला गया। जो देशी राज्य सहायक सेना का खर्च समय पर नहीं चुका पाता था, कम्पनी उस राज्य के उपजाऊ और सम्पन्न प्रदेशों को स्थायी रूप से अपने अधीन कर लेती थी। राज्य के उपजाऊ हिस्से कम्पनी द्वारा हड़प लिये जाने के बाद, देशी राज्यों की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि वे अपना शासन भी सुचारू रूप से नहीं चला सके।
(5.) राज्यों के शासन पर अधिकार: राज्यों में अव्यवस्था फैलने पर कम्पनी ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया और राज्यों का वित्तीय प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। देशी शासक इतने सहम गये कि उन्हें कम्पनी के अधिकारियों से यह पूछने तक का साहस नहीं होता था कि वे उनके राज्य में कितना राजस्व एकत्रित कर रहे हैं और उसे कहाँ खर्च कर रहे हैं।
(6.) देशी राज्यों में अलगाव: सन्धि करने वाले देशी राज्यों की विदेश नीति पर कम्पनी का नियंत्रण हो जाने से प्रत्येक देशी राज्य एक दूसरे से पूरी तरह अलग-थलग पड़ गया। इन अलग-थलग पड़े राज्यों का कम्पनी के रेजीडेण्ट्स और पोलिटिकल एजेण्ट्स ने जमकर शोषण किया।
(7.) फ्रांसीसियों का दमन: इन सन्धियों के फलस्वरूप देशी राज्यों द्वारा फ्रान्सीसी आदि विदेशी शक्तियों से संधि कर लिये जाने की आशंका समाप्त हो गई। समस्त देशी राज्यों से फ्रांसीसियों को निकला दिया गया जिससे भारतीय राज्यों में फ्रांसीसियों का अस्तित्त्व समाप्त हो गया। इसी प्रकार ईरानियों एवं सिंधी मुसलमानों को भी देशी राज्यों की सेवाओं से निकाल दिया गया जो उत्तर भारत के राज्यों में उत्पातों की जड़ समझे जाते थे।
(8.) देशी राज्यों की सैनिक शक्ति का क्षरण: देशी राज्य अपने क्षेत्र में कम्पनी की जो सेना रखते थे, उसका पूरा व्यय देशी राज्य को वहन करना होता था। ड्यूक ऑफ वेलिंगटन ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा था कि राज्यों में नियुक्त सहायक सेना का खर्च अँग्रेजी सेना और अधिकारियों के खर्च से बहुत अधिक था। भारतीय राज्यों ने इस खर्च के भार को उठाने के लिये अपनी सेना में कमी कर दी तथा जनता पर करों का भार बढ़ा दिया। इस प्रकार भारतीय राज्यों की सैनिक शक्ति स्वतः क्षीण हो गई और वे कम्पनी की सहायक सेना पर निर्भर हो गये।
(9.) देशी शासकों की शासन से विमुखता: सहायक सन्धि व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय राज्यों ने अपने राज्य में कम्पनी का एक रेजीडेन्ट अथवा पोलिटिकल एजेन्ट रखना स्वीकार किया था। कम्पनी के ये प्रतिनिधि राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर शासकों को सलाह देने लगे और राज्यों के आन्तरिक मामलों मे हस्तक्षेप करने लगे। फलस्वरूप देशी राजाओं ने राज्य के शासन कार्य में रुचि लेना बन्द कर दिया तथा राज्यों के अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने ब्रिटिश रेजीडेन्ट के आदेशों पर कार्य करना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार अँग्रेज अधिकारियों ने भारतीय शासकों को शासन कार्य से विमुख कर दिया और स्वयं शासन में सर्वेसर्वा बन गये।
(10.) राष्ट्रीय चरित्र का हनन: सहायक सन्धि व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय राज्यों के आनतरिक विद्रोह तथा बाह्य आक्रमण से रक्षा करने का दायित्व कम्पनी ने ग्रहण कर लिया था। अतः अब भारतीय शासकों को न तो आन्तरिक शान्ति बनाये रखने की चिन्ता थी और न बाह्य आक्रमण से सुरक्षा प्राप्त करने की। फलस्वरूप भारतीय शासक अकर्मण्य एवं आलसी हो गये। कम्पनी ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये इन अकर्मण्य एवं विलासिता-प्रिय राजओं को उनके पदों पर बने रहने दिया। टॉमस मुनरो ने लिखा है– ‘इन राज्यों ने स्वतंत्रता और राष्ट्रीय चरित्र का त्याग करके अपनी सुरक्षा खरीद ली थी।’ शासकों की अकर्मण्यता और विलासिता के कारण देशी राज्य पिछड़ते चले गये और कम्पनी का नियंत्रण दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ होता चला गया। राज्य की जनता को, अकर्मण्य और विलासी शासकों को पदच्युत करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया। क्योंकि यदि राज्य की जनता अपने शासक के विरुद्ध विद्रोह करती थी तो कम्पनी की सहायक सेना उनके विद्रोह को कुचलने के लिए हर समय तैयार रहती थी। रेजीडेन्ट के हस्तक्षेप के कारण राज्य की जनता को प्रशासन में भाग लेने से भी वंचित कर दिया गया। ‘
देशी राज्यों से की गई सहायक सन्धियों की क्रियान्विति
लॉर्ड वेलेजली (1798 से 1805 ई.) ने अपने कार्यकाल में जिन भारतीय राज्यों से सहायक सन्धियाँ की थी, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-
(1.) हैदराबाद: सर जॉन शोर (1793 से 1798 ई.) के काल में हैदराबाद का निजाम ईस्ट इण्डिया कम्पनी से नाराज हो गया था किन्तु वेलेजली के कार्यकाल में निजाम आंतरिक कठिनाइयों से घिर गया। इसलिये 1799 ई. में जब वेलेजली ने निजाम के समक्ष सहायक संधि का प्रस्ताव रखा तो निजाम ने उसे स्वीकार कर लिया। इस प्रकार हैदराबाद, सहायक संधि करने वाला प्रथम राज्य बन गया। इस सन्धि के अनुसार निजाम के राज्य में कम्पनी की तरफ से सहायक सेना की छः बटालियनें रखी गईं। इस सेना के व्यय हेतु निजाम ने कम्पनी को 24,17,000 रुपये वार्षिक देना स्वीकार कर लिया। फ्रांसीसियों को हैदराबाद से निकाल दिया गया तथा सहायक सन्धि की अन्य धाराएँ भी निजाम पर लागू कर दी गईं। 1800 ई. में कम्पनी की सहायक सेना के खर्च के लिए निजाम को वे समस्त प्रदेश कम्पनी को सौंपने पड़े, जो निजाम को मैसूर के युद्धों के पश्चात् प्राप्त हुए थे। इस प्रकार निजाम तथा उसके राज्य पर अँग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया और उसकी मराठों के साथ गठबन्धन करने की सम्भावना सदा के लिए समाप्त हो गई।
(2.) अवध: अवध, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चंगुल में 1765 ई. में ही फँस चुका था। वेलेजली अवध को अँग्रेजों के पूर्ण नियंत्रण में लाना चाहता था। उसने सुरक्षा के नाम पर नवाब शुजाउद्दौला के समक्ष सहायक सेना बढ़ाने का प्रस्ताव रखा। नवाब ने इस प्रस्ताव पर आनाकानी की। इस पर वेलेजली ने नवाब को आतंकित करने के लिए कानपुर और इलाहाबाद से सेनाएँ भेज दीं। विवश होकर शुजाउद्दौला को सन्धि पर हस्ताक्षर करने पड़े। इस संधि के अनुसार नवाब की सेना कम करके कम्पनी की सेना में वृद्धि कर दी गई। इस सेना के व्यय के लिए नवाब को गंगा और यमुना के बीच का निचला दोआब, गोरखपुर तथा रोहिलखण्ड प्रदेश अँग्रेजों को सौंपने पड़े। इस प्रकार अवध को चारों ओर से ब्रिटिश प्रदेशों से घेर लिया गया। 1765 ई. की संधि के बाद अवध के शासकों ने कभी भी कम्पनी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की थी फिर भी अवध में सहायक सेना लगातार बढ़ायी जाती रही। इस सेना के खर्च के अतिरिक्त धनराशि की माँग भी बढ़ाई जाती रही तथा उस मांग की पूर्ति के लिये अवध के उपजाऊ भू-भागों पर कम्पनी अधिकार करती चली गई। ये समस्त बातें अवध के साथ पूर्व में की गई सन्धियों का खुला उल्लंघन था। ब्रिटिश सांसद फाक्सडोन ने वेलेजली के इस कार्य को डकैती की संज्ञा दी। इतिहासकार डॉडवेल ने लिखा है- ‘अवध के प्रति वेलेजली की नीति तानाशही वृत्तियों में सर्वाधिक निकृष्ट थी।’ इस लूटखसोट से अवध राज्य का आधा भू-भाग कम्पनी के नियंत्रण में चला गया तथा अवध की सेना लगभग समाप्त हो गई। अवध पूरी तरह से कम्पनी के आश्रित हो गया, जिसका लाभ आगे चलकर डलहौजी ने उठाया।
(3.) मैसूर: मैसूर राज्य मूलतः हिन्दू शासित राज्य था जिसे उसके सेनापति हैदरअली ने हड़प लिया था। अँग्रेजों और मैसूर राज्य के बीच 1766-1769, 1780-1784, 1790-1792 तथा 1799 ई. में चार युद्ध हुए। चौथा युद्ध वेलेजली के समय में हुआ जिसमें टीपू मारा गया। वेलेजली ने मैसूर राज्य के कुछ भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्र में सम्मिलित कर लिये तथा कुछ भाग हैदराबाद के निजाम को दे दिये। वेलेजली ने मैसूर राज्य के कुछ भाग मराठों को देने का भी प्रस्ताव किया किन्तु मराठों ने ये प्रदेश लेने से मना कर दिया। इस पर वे प्रदेश भी कम्पनी और निजाम के बीच बाँट दिये गये। शेष बचा मध्य-मैसूर हिन्दू राज्य के रूप में पुनर्स्थापित किया गया तथा उसका शासन, मैसूर के प्राचीन हिन्दू राजवंश के वंशज कृष्णराव वाडियार (तृतीय) को देकर उसके साथ सहायक सन्धि कर ली गई। इस सन्धि के अनुसार मैसूर राज्य में एक सहायक सेना रखी गई, जिसके व्यय के लिए मैसूर राज्य ने 22 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार कर लिया।
(4.) मराठा संघ राज्य: पेशवा माधवराव (द्वितीय) की मृत्यु (1796 ई.) के बाद पेशवा बाजीराव (द्वितीय) (1796-1818 ई.) पर प्रभाव स्थापित करने हेतु दौलतराव सिन्धिया (1794-1828 ई.) और यशवंतराव होलकर (प्रथम) (1799-1811 ई.) के बीच प्रतिद्वन्द्विता आरम्भ हो गई। पेशवा ने दौलतराव सिन्धिया का संरक्षण स्वीकार कर लिया तथा यशवंतराव होलकर के भाई बिठुजी होलकर की हत्या करवा दी। होलकर ने अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए पूना पर आक्रमण किया। पेशवा पूना से भाग कर बसीन चला गया तथा वेलेजली से सहायता माँगी। वेलेजली ने इस शर्त पर सहायता देना स्वीकार किया कि पेशवा को सहायक सन्धि स्वीकार करनी पड़ेगी। पेशवा ने वेलेजली की शर्त स्वीकार करते हुए दिसम्बर 1802 में कम्पनी से बसीन की सन्धि कर ली जिसमें उसने सहायक सन्धि की सारी शर्र्तें स्वीकार कर लीं। इस सन्धि के बाद हुए द्वितीय मराठा युद्ध (1802 ई.) में नागपुर के शासक भौंसले ने परास्त होकर देवगढ़ की सन्धि (1803 ई.) और ग्वालियर के शासक सिन्धिया ने सुर्जीअर्जन गाँव की सन्धि (30 दिसम्बर 1803) कर ली। उन्होंने भी सहायक सन्धि की समस्त शर्तें स्वीकार कर लीं।
(5.) तंजोर: तंजोर मराठों के अधीन एक छोटा राज्य था। जिस समय वेलेजली भारत आया उस समय तंजोर में उत्तराधिकार के लिये संघर्ष चल रहा था। वेलेजली को उसमें हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। उसने सरफौजी नामक व्यक्ति को वहाँ का उत्तराधिकारी घोषित करके उसे तंजोर की गद्दी पर बैठा दिया तथा अक्टूबर 1799 में उसके साथ सहायक सन्धि कर ली।
(6.) सूरत: मध्यकाल में सूरत मुगल सल्तनत का अंग था। मुगल सल्तनत के पतनोन्मुख होने पर सूरत के मुगल सूबेदार ने स्वयं को सूरत का नवाब घोषित कर दिया। सैद्धान्तिक रूप से वह मुगल बादशाह के अधीन ही रहा। सूरत में मराठों की लूटमार के कारण 1759 ई. में मुगल बादशाह ने सूरत की सुरक्षा का भार ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दिया। सूरत की सुरक्षा हेतु कम्पनी ने वहाँ अपनी सेना तैनात कर दी जिसका खर्च सूरत के नवाब को देना पड़ता था। जनवरी 1799 में सूरत के नवाब निजामुद्दीन मुहम्मदखाँ की मृत्यु हो गयी और उसका छोटा भाई कुतुबुद्दौला निर्विरोध रूप से सूरत की गद्दी पर बैठा। वेलेजली ने उस पर दबाव डालकर उसके साथ भी एक सन्धि कर ली जिसके अनुसार नवाब ने अपना सैनिक व असैनिक प्रशासन कम्पनी को सौंप दिया। कम्पनी ने नवाब को एक लाख रुपया वार्षिक पेंशन देना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार सूरत भी कम्पनी का आश्रित राज्य बन गया।
(7.) कर्नाटक: कर्नाटक का नवाब मोहम्मद अली बहुत पहलेे से अपनी राजधानी अर्काट छोड़कर मद्रास के एक उपनगर में एक शानदार महल में रहने लगा था। वह अपनी शान-शौकत और ऐशो-आराम पर रुपया खर्च करने के लिये कम्पनी से कर्ज लेता था। वेलेजली के आने के समय तक उसके ऊपर कम्पनी का इतना कर्ज चढ़ चुका था कि उसे कम्पनी को ब्याज के रूप में 6,23,000 पौण्ड चुकाने थे। 1795 ई. में नवाब मोहम्मद अली की मृत्यु के बाद उम्दात-उल-उमरा गद्दी पर बैठा। वेलेजली ने नवाब के साथ एक सन्धि करके उसकी जो भूमि कम्पनी के पास गिरवी पड़ी थी, उसे स्थायी रूप से कम्पनी को हस्तान्तरित करने को कहा।
नवाब ने वेलेजली के प्रस्ताव को स्वीकार करने से मना कर दिया। इस पर वेलेजली ने नवाब पर अँग्रेजों के विरुद्ध षड्यन्त्र करने का आरोप लगाया। इससे पहले कि वेलेजली कुछ करता, जुलाई 1801 में नवाब की मृत्यु हो गई तथा अली हुसैन कर्नाटक की गद्दी पर बैठा। अली हुसैन ने भी वेलेजली के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर वेलेजली ने अली हुसैन को गद्दी से उतारकर नवाब के भतीजे अजीमुद्दौला को कर्नाटक का नवाब बना दिया। 25 जुलाई 1801 को अजीमुद्दौला से सन्धि करके कम्पनी ने कर्नाटक का सैनिक व असैनिक प्रशासन अपने नियंत्रण में ले लिया तथा कर्नाटक के राजस्व का 1/5 भाग नवाब को पेंशन के रूप में देना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार कर्नाटक भी अँग्रेजों का आश्रित राज्य बन गया।
(8.) राजपूताना के राज्य राज्य: कम्पनी द्वारा 1803 ई. में अलवर, भरतपुर, जयपुर तथा जोधपुर राज्यों के साथ, 1804 ई. में धौलपुर तथा प्रतापगढ़ राज्यों के साथ 1805 ई. में पुनः भरतपुर राज्य के साथ संधि की गयी। वेलेजली ने मराठों को घेरने के लिये ये संधियाँ की थीं किंतु सुर्जीअर्जन गांव की संधि के बाद वेलेजली की रुचि राजपूताना राज्यों में समाप्त हो गई इस कारण ये संधियाँ कभी लागू नहीं हो सकीं। अँग्रेज अधिकारी संधियों के उत्तरदायित्व से सुविधानुसार विमुक्त हो गये तथा उन्होंने संधि उल्लंघन का दोष अपने मित्रों पर डाल दिया।
भरतपुर की संधि की विफलता
जनरल लेक ने जसवंतराव होलकर को घेरने के लिये 1803 ई. में भरतपुर के जाट राजा रणजीतसिंह के साथ संधि की थी। 1804 ई. में होलकर अँग्रेजों से परास्त होकर भरतपुर में शरण लेने आया। रणजीतसिंह ने होलकर तथा उसकी सेना को अपने यहाँ शरण दी। वेलेजली चाहता था कि होलकर अँग्रेजों को सौंपा जाये किंतु महाराजा रणजीतसिंह ने ऐसा करने से मना कर दिया। इस पर 7 जनवरी 1805 को जनरल लेक ने भरतपुर के दुर्ग पर तोपों से आक्रमण किया। जाटों ने अँग्रेजों को पीछे धकेल दिया। प्रथम आक्रमण में असफल रहने पर अँग्रेज सेना ने 14 दिन तक भरतपुर दुर्ग पर तोप के गोलों की भयानक वर्षा की जिससे 21 जनवरी 1805 को नीमदागेट के पास का भाग टूट गया। इसे देखकर भरतपुर के सैनिकों ने और अधिक दृढ़ता से युद्ध किया। जाटों का प्रतिरोध इतना प्रबल था कि अँग्रेज सेना नगर में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। इस प्रकार जनरल लेक न तो भरतपुर के शासक को अधीन कर सका और न होलकर की शक्ति को समाप्त कर सका। विवश होकर अप्रैल 1805 में वेलेजी को भरतपुर से सन्धि करनी पड़ी। इस असफलता के कारण इंग्लैण्ड में वेलेजली की कटु आलोचना हुई। प्रधानमंत्री पिट्ट ने भी वेलेजली की कटु आलोचना की। 1805 ई. में वेलेजली त्यागपत्र देकर इंग्लैण्ड लौट गया।
वेलेजली की सफलताओं का मूल्यांकन
वेलेजली केवल सात वर्ष भारत का गवर्नर जनरल रहा किंतु उसकी सफताएँ आश्चर्यजनक थीं। उसने टीपू सुल्तान को कुचल कर मैसूर राज्य पर अधिकार कर लिया। उसने हैदराबाद नवाब की सेवा में रहने वाले 14 हजार फ्रांसीसी सैनिकों को निःशस्त्र करके उन पर निर्णायक विजय प्राप्त की। उसने कर्नाटक तथा अवध को सहायक संधियों के लिये विवश किया। अवध के नवाब का तो आधा राज्य ही कम्पनी के क्षेत्र में मिला लिया। उसने दिल्ली पर आक्रमण करके बादशाह शाहआलम (द्वितीय) को अपने अधीन कर लिया। उसने मराठों के संघ को छिन्न-भिन्न कर दिया। इस प्रकार वेलेजली ने होलकर तथा भरतपुर के अतिरिक्त समस्त शत्रुओं एवं प्रतिद्वंद्वियों को परास्त करके ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रभाव लगभग सम्पूर्ण दक्षिण एवं उत्तर भारत पर स्थापित कर दिया फिर भी इंग्लैण्ड में उसकी सरहाना नहीं हुई।
थॉमस क्रीवी ने कहा- ‘मारक्विस इंग्लैण्ड के लिये बहुत बड़ा दुर्भाग्य सिद्ध हुआ है।’
क्रोकर ने उसकी शानदार अयोग्यता की चर्चा की। कम्पनी के संचालकों एवं कोर्ट के डायरेक्टरों ने उसकी प्रशंसा में एक भी शब्द नहीं कहा। इंग्लैण्ड की संसद में वेलेजली पर कई आरोप लगाकर अभियोग स्थापित किया गया। यह मुकदमा दो वर्ष तक चलता रहा जिसके कारण वेलेजली को मानसिक दुःख उठाना पड़ा। वेलेजली के भारत से जाने के तीस वर्ष बाद इंग्लैण्ड वासियों ने वेलेजली की सेवाओं का महत्व समझा तथा उसकी प्रशंसा होने लगी।
वेलेजली के जीवनी लेखक पी. ई.रॉबट्स ने लिखा है- ‘वेलेजली एक आश्चर्यजनक सफल प्रशासक था जो शानदार योग्यता का स्वामी था।’