Thursday, November 21, 2024
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सभ्यता एवं संस्कृति का अर्थ – अध्याय 1(ब)

पर्यावरण, सभ्यता एवं संस्कृति का सम्बन्ध

प्राकृतिक परिवेश को पर्यावरण कहते हैं। चूँकि मनुष्य किसी न किसी विशिष्ट प्रकार के पर्यावरण के भीतर रहता है इसलिए पर्यावरण, सभ्यता एवं संस्कृति अन्योन्याश्रित हैं। अर्थात् ये तीनों तत्त्व एक दूसरे से प्रभावित होते हैं तथा एक दूसरे के आश्रित हो जाते हैं। इनमें से किसी एक के बदलने से दूसरा एवं तीसरा स्वतः बदल जाता है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि सृष्टि के आरम्भ में पर्यावरण सभ्यता को जन्म देता है। दूसरे चरण में सभ्यता, संस्कृति को जन्म देती है तथा तीसरे चरण में संस्कृति पर्यावरण को संवारती या विनष्ट करती है।

पर्यावरण का सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रभाव

किसी क्षेत्र के पर्यावरण का उस क्षेत्र की सभ्यता एवं संस्कृति पर गहरा प्रभाव होता है। उदाहरण के लिए ठण्डे प्रदेश के लोग अपने घरों को इस प्रकार बनायेंगे कि उनके घरों में वायु का सीधा प्रवेश न हो जबकि गर्म प्रदेश के लोग अपने घरों को इस प्रकार बनायेंगे कि उनके घरों में वायु का सीधा और निर्बाध प्रवेश हो।

ठण्डे प्रदेशों में निवास करने वाले लोग अपने खान-पान में मांस एवं मदिरा को अधिक मात्रा में सम्मिलित करना पसंद करेंगे जबकि गर्म प्रदेश के निवासी अपने खान-पान में वनस्पति, दूध-दही एवं छाछ को अधिक सम्मिलित करेंगे। ठण्डे प्रदेश के लोग ऊनी, मोटे और चुस्त कपड़े पहना पसंद करेंगे जबकि गर्म प्रदेश के लोग सूती, पतले तथा ढीले कपड़े पहनेंगे।

ठण्डे प्रदेश के लोग चर्च में जूते पहनकर जाना पसंद करेंगे जबकि गर्म प्रदेश के लोग अपने जूते मंदिरों से बाहर उतारना पसंद करेंगे। बाह्य पर्यावरण के कारण अपनाई गई खान-पान एवं रहन-सहन की आदतों का मनुष्य की कार्य क्षमता एवं उसकी बौद्धिक क्षमता पर गहरा असर होता है।

जिन लोगों के भोजन में मदिरा का समावेश होगा तथा जो चुस्त कपड़े पहनेंगे, वे अधिक समय तक काम करेंगे किंतु वे स्वभाव से उग्र होंगे तथा भौतिक प्रगति पर अधिक ध्यान देंगे। जबकि जिन लोगों के भोजन में दही एवं छाछ का समावेश होगा तथा कपड़े ढीले होंगे, उनका शरीर तुलनात्मक दृष्टि से कम समय तक काम कर सकेगा किंतु उनकी प्रवृत्ति शांत होगी तथा वे आध्यात्मिक प्रगति पर अधिक ध्यान देंगे।

इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मानव और प्रकृति के बीच के सम्बन्धों की प्रतिक्रिया केवल भौतिक नहीं होती, अपितु बौद्धिक भी होती है।

सभ्यता एवं संस्कृति का पर्यावरण पर प्रभाव

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जिस प्रकार पर्यावरण का सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रभाव होता है, उसी प्रकार सभ्यता एवं संस्कृति का पर्यावरण पर गहरा प्रभाव होता है। किसी भी भू-भाग में रहने वाले मानव समुदाय की आदतें, स्वभाव, प्रवृत्तियाँ, रीति-रिवाज, परम्पराएं, धार्मिक विश्वास, तीज-त्यौहार, पर्व, अनुष्ठान आदि विभिन्न तत्त्व, सभ्यता एवं संस्कृति के ऐसे अंग हैं जो धरती के पर्यावरण को गहराई तक प्रभावित करते हैं।

उदाहरण के लिए राजस्थान के सामंती परिवेश में शेरों, शूकरों एवं हरिणों का शिकार एक परम्परा के रूप में प्रचलित रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि जंगल असुरक्षित हो गए और भारी मात्रा में इंसान द्वारा सहज रूप से काट कर नष्ट कर दिए गए।

आजादी के बाद पनपी उपभोक्तावादी संस्कृति, तेजी से बढ़ती जनसंख्या, बेरोजगारी का प्रसार तथा वनों के प्रति आदर के अभाव ने जंगलों को तेजी से गायब किया। आज भारत में 23.28 प्रतिशत जंगल हैं किंतु राजस्थान में केवल 9.54 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल बचे हैं।

संस्कृति में बदलाव

ऊपर हम पढ़ आए हैं कि मानव जाति ने जो कुछ भी भूतकाल से परम्पराओं, आदतों और जीवन शैली के रूप में ग्रहण किया है और जिन परम्पराओं तथा आदतों को मानव जाति वर्तमान समय में व्यवहार में ला रही है, वही हमारी संस्कृति है। कुछ समय बाद मनुष्य इनमें से बहुत सी परम्पराओं को भूल जाएगा और अपनी आदतों को बदल लेगा। इस कारण भविष्य काल में संस्कृति का रूप भी बदल जाएगा। इस दृष्टि से संस्कृति गतिशील तत्त्व है। यह पल-पल बदलती है किंतु इसके बदलाव की आहट प्रायः तुरन्त सुनाई नहीं देती।

वैदिक-काल में हमारी संस्कृति कुछ और तरह की थी। बुद्ध के काल में संस्कृति का रूप अलग हो गया। गुप्त काल में भारतीय संस्कृति में बहुत बड़ा बदलाव आया। मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमणों एवं अंग्रेजों के आगमन आदि से हुए राजनीतिक एवं आर्थिक बदलावों ने हमारी संस्कृति को आमूलचूल बदल दिया। प्राकृतिक आपदाओं एवं वैज्ञानिक खोजों सहित विभिन्न कारक, मानव की संस्कृति को प्रभावित करते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता है, हमारी संस्कृति में बदलाव आता है फिर भी किसी समाज की संस्कृति अक्षय रहती है।

अक्षय रहने वाली संस्कृति की तुलना उस स्त्री से की जा सकती है जो हजारों साल की हो जाने पर भी कभी बूढ़ी नहीं होती। वह क्षण-क्षण अपना नया शृंगार करके नवीन रूप धारण करती है। वह ना-ना प्रकार के विचारों और व्यवहारों से स्वयं को सजाती एवं संवारती है। नवीन विचार एवं व्यवहार संस्कृति के लिए नवीन आभूषणों का काम करते हैं।

संस्कृति सदैव भूतकाल की आदतें छोड़़ती जाती है तथा जीवन जीने के नवीन तरीकों का विकास करती हुई, कभी भी अपनी आकर्षण शक्ति को नहीं खोती। जब किसी काल खण्ड में संस्कृति में एक साथ बड़े परिवर्तन होते हैं तो उन्हें सांस्कृतिक क्रांति कहा जाता है।

संतुलित सभ्यता एवं संस्कृति

जिन समुदायों में प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी का चिंतन किया जाता है, उस क्षेत्र की सभ्यता एवं संस्कृति इस प्रकार विकसित होती हैं कि उनसे पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुँचती। अपितु पर्यावरण की सुरक्षा होती है।

भारत में वृक्षों, नदियों, समुद्रों तथा पर्वतों की पूजा करने से लेकर गायों को रोटी देने, कबूतरों एवं चिड़ियों को दाना डालने, गर्मियों में पक्षियों के लिए पानी के परिण्डे बांधने, बच्छ बारस को बछड़ों की पूजा करने, श्राद्ध पक्ष में कौओं को ग्रास देने, नाग पंचमी पर नागों की पूजा करने जैसे धार्मिक विधान बनाए गए जिनसे मानव में प्रकृति के प्रति संवेदना, आदर और कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है।

भारतीय संस्कृति में सादगी पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। सादा जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति कभी भी अपनी आवश्यकताओं को इतना नहीं बढ़ायेगा कि पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। संत पीपा का यह दोहा इस मानसिकता को बहुत अच्छी तरह व्याख्यायित करता है-

स्वामी होना  सहज  है,  दुरलभ  होणो  दास।

पीपा हरि के नाम बिन, कटे न जम की फांस।।

असंतुलित सभ्यता एवं संस्कृति

जिस सभ्यता अथवा संस्कृति में ऊर्जा की अधिकतम खपत हो, वह संस्कृति धरती के पर्यावरण में गंभीर असंतुलन उत्पन्न करती है। पश्चिमी देशों में विकसित उपभोक्तावादी संस्कृति, ऊर्जा के अधिकतम खपत के सिद्धांत पर खड़ी हुई है। इस संस्कृति ने धरती के पर्यावरण को अत्यधिक क्षति पहुँचाई है।

इस संस्कृति का आधार एक ऐसी मानसिकता है जो मनुष्य को व्यक्तिवादी होने तथा अधिकतम वस्तुओं के उपभोग के माध्यम से स्वयं को सुखी एवं भव्यतर बनाने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी संस्कृति में इस बात पर विचार ही नहीं किया जाता कि व्यक्तिवादी होने एवं अधिकतम सुख अथवा भव्यता प्राप्त करने की होड़़ में प्रकृति एवं पर्यावरण का किस बेरहमी से शोषण किया जा रहा है तथा उसके संतुलन को किस तरह से सदैव के लिए नष्ट किया जा रहा है।

पश्चिमी देशों एवं अमरीका में विकसित ‘फास्ट फूड कल्चर’, ‘यूज एण्ड थ्रो कल्चर’ तथा ‘डिस्पोजेबल कल्चर’ पर्यावरण को स्थाई रूप से क्षति पहुँचाते हैं। कहा जा सकता है कि उपभोक्तावादी संस्कृति, धरती के पर्यावरण में भयानक असंतुलन उत्पन्न करती है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति के विरोध में ईसा मसीह द्वारा दो हजार साल पहले कही गई यह बात आज भी सुसंगत है- ‘सुईं के छेद में से ऊँट भले ही निकल जाए किंतु एक अमीर आदमी स्वर्ग में प्रवेश नहीं पा सकता।’

असंतुलित एवं संतुलित संस्कृतियों के उदाहरण

प्रकृति के संसाधनों को क्षति पहुँचाए बिना उनका उपयोग करना, पर्यावरणीय संस्कृति का अंग है जबकि यूज एण्ड थ्रो कल्चर, डिस्पोजेबल कल्चर, उपभोक्तावादी मानसिकता एवं बाजारीकरण की प्रवृत्तियां पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाली एवं विनाशकारी संस्कृति है।

कागज की थैलियों, मिट्टी के सकोरों तथा पत्तों के दोनों का उपयोग पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण हैं तो पॉलिथीन कैरी बैग्ज, प्लास्टिक की तश्तरियां तथा थर्मोकोल के गिलास, यूज एण्ड थ्रो कल्चर का उदाहरण हैं।

फाउण्टेन इंक पैन का उपयोग पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण है तो बॉल पॉइण्ट पैन डिस्पोजेबल कल्चर का उदाहरण है। नीम और बबूल की दांतुन पर्यावरणीय संस्कृति का उदाहरण है तो टूथपेस्ट का उपयोग उपभोक्तावादी एवं बाजारीकरण की संस्कृति का उदाहरण है।

मल त्याग के बाद पानी से प्रक्षालन पर्यावरणीय संस्कृति है तो कागज का प्रयोग यूज एण्ड थ्रो कल्चर है। शेविंग के बाद केवल ब्लेड बदलना, पर्यावरण के लिए कम क्षतिकारक है जबकि पूरा रेजर ही फैंक देना, पर्यावरण के लिए अधिक विनाशकारी है।

भारत में किसी इंजन या मशीन के खराब हो जाने पर उसे ठीक करवाया जाता है और ऐसा लगातार तब तक किया जाता है जब तक कि उसे ठीक करवाना असंभव अथवा अधिक खर्चीला न हो जाए किंतु अमरीका का आम आदमी, कम्पयूटर खराब होते ही कूड़े के ढेर में, कार खराब होते ही डम्पिंग यार्ड में, घड़ी, कैलकुलेटर, सिलाई मशीन आदि खराब होते ही घर से बाहर फैंक देता है जिन्हें नगरपालिका जैसी संस्थाओं द्वारा गाड़ियों में ढोकर समुद्र तक पहुंचाया जाता है। इससे समुद्र में इतना प्रदूषण होता है कि बड़ी संख्या में समुद्री जीव मर जाते हैं।

एक आम भारतीय अपनी कार को तब तक ठीक करवाता रहता है जब तक कि उसे बेच देने का कोई बड़ा कारण उत्पन्न नहीं हो जाता किंतु उसे कभी भी कूड़े के ढेर या समुद्र में नहीं फैंका जाता। उसका पुर्जा-पुर्जा अलग करके किसी न किसी रूप में प्रयोग में लाने लायक बना लिया जाता है या फिर उसके सामान को पुनर्चक्रण (रीसाइकिलिंग) में डाल दिया जाता है। भारत में कबाड़ियों द्वारा घर-घर जाकर खरीदी जाने वाली अखबारी रद्दी और खाली बोतलें श्रम आधारित भारतीय संस्कृति के पूँजीवादी अमरीकी कल्चर से अलग होने का सबसे बड़ा प्रमाण हैं।

भारतीय रोटी को प्याज, लहसुन, चटनी, मिर्च, अचार, उबले हुए आलू तथा छाछ जैसी सस्ती चीजों के साथ खाया जा सकता है जबकि ब्रेड के लिए बटर और जैम की आवश्यकता होती है जो पर्यावरणीय संस्कृति की बजाए पूँजीवादी संस्कृति के उपकरण हैं। अब भारत में भी इसी पूँजीवादी संस्कृति का प्रसार हो गया है।

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