भगवद्-भक्ति की अवधारणा
भगवद् प्राप्ति के लिये उसकी भक्ति करने की अवधारणा उपनिषद् काल में पनपी। श्रीमद्भगवद्गीता ने उसे दार्शनिक आधार प्रदान किया। भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है- ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् व्रज।’ अर्थात् सब धर्मों को छोड़कर मेेरी शरण में आ। अर्थात् मेरी भक्ति कर। गीता के बारहवें अध्याय में भक्ति का अत्यन्त सौम्य निरूपण किया गया है। बौद्धों तथा जैनियों के धार्मिक आंदोलनों के कारण भक्ति प्रवाह अवरुद्ध होने लगा। शुंग, कण्व तथा गुप्त शासकों के काल में विष्णु भक्ति का पुनरुद्धार हुआ किंतु बाद में पुनः बौद्धों ने विष्णु भक्ति का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। बौद्धों के मत का खण्डन करने के लिये आठवीं शताब्दी ईस्वी में श्री शंकराचार्य ने ज्ञान का प्रकाश फैलाया। उनकी शिक्षाओं ने बौद्धों के प्रभाव को तो नष्ट किया ही, साथ ही हिन्दू धर्म में भक्ति के स्थान पर ज्ञान का बोलबाला हो गया। ग्यारहवीं शताब्दी में शंकराचार्य की शिक्षाओं के विरुद्ध घोर प्रतिक्रिया आरम्भ हुई और हिन्दू धर्म, ज्ञान रूपी नदी के तटों का बंधन तोड़कर भक्ति मार्ग पर चलने लगा।
भक्ति आन्दोलन का पुनरुद्धार
दिल्ली सल्तनत के काल में भारत भूमि पर भक्ति आंदोलन का पुनरुद्धार हुआ। इसके बाद भक्ति आंदोलन तब तक वेगवती नदी के समान प्रवाहरत रहा जब तक कि पंद्रहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत कमजोर न पड़ गई। इस भक्ति आंदोलन के प्रभाव से हिन्दुओं को नवीन मनोबल प्राप्त हुआ तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रांतीय राज्यों का उदय हुआ। इनमें से अनेक राज्य हिन्दू राजपूतों द्वारा शासित थे। उनके सरंक्षण में हिन्दू धर्म के भीतर भक्ति आंदोलन अपने चरम को पहुँच गया।
भक्ति आन्दोलन के पुनरुद्धार के कारण
भक्ति आन्दोलन के पुनरुद्धार के निम्नलिखित कारण प्रतीत होते हैं-
(1) हारे को हरि नाम: बर्नीयर ने तारीखे फीरोजशाही में लिखा है- ‘हिन्दुओं के पास धन संचित करने के लिये कोई साधन नहीं रह गये थे। उनमें से अधिकांश को निर्धनता, अभावों एवं अजीविका के लिये निरंतर संघर्ष में जीवन बिताना पड़ता था। हिन्दू प्रजा के रहन-सहन का स्तर बहुत निम्न कोटि का था। करों का सारा भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्य थे। अलाउद्दीन ने दोआब के हिन्दुओं से उपज का 50 प्रतिशत भाग बड़ी कठोरता से उगाहा था।’ इन विकट परिस्थतियों में हिन्दुओं में हारे को हरिनाम अर्थात् परास्त एवं कमजोर व्यक्ति का आसरा स्वयं परमेश्वर है, की भावना ने जन्म लिया तथा हिन्दुओं ने अपने कष्टों को कम करने के लिये ईश्वर की शरण में जाने का मार्ग पकड़ा। फलतः सल्तनत काल में हिन्दू धर्म में भक्ति आंदोलन का पुनरुद्धार हुआ।
(2.) क्रियात्मक शक्ति के नियोजन की आवश्यकता: जब हिन्दुओं को बड़ी संख्या में राजकीय सेवाओं से निकाल दिया गया, उनकी खेती बाड़ी चौपट हो गई। खेत व घर मुसलमानों द्वारा छीन लिये गये, उन्हें सम्पत्ति कमाने तथा रखने के अधिकारों से वंचित कर दिया गया तब हिन्दुओं के पास अपनी क्रियात्मक शक्ति को नियोजित करने का कोई अन्य उचित माध्यम नहीं रहा। ऐसी स्थिति में संकटापन्न एवं विपन्न हिन्दुओं ने स्वयं को भगवद्-भक्ति में नियोजित किया। इस प्रकार भक्ति भावना की अपार धारा प्रवाहित हो चली।
(3.) सूफी सम्प्रदाय का तात्त्विक प्रभाव: तत्त्व रूप में सूफी मत भारतीय वेदांत के काफी निकट है। इसलिये यह संभव नहीं था कि हिन्दू जनता, सूफियों से असम्पृक्त रह जाती। दिल्ली सल्तनत के विस्तार के साथ-साथ भारत में सूफी सम्प्रदाय का प्रचार भी बढ़ा। सूफी प्रचारक अल्लाह से प्रेम एवं उपासना पर बल देते थे और समस्त मानवों को समान समझते थे। जब हिन्दू, सूफी प्रचारकों के सम्पर्क में आये तब वे उनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए। फलतः हिन्दू लोग भी ईश्वर की भक्ति पर जोर देने लगे।
(4.) सबके लिये सुलभ मार्ग की आवश्यकता: उस काल में हिन्दू धर्म की जटिलता, बाह्याडम्बरों एवं जाति प्रथा से तंग आकर बहुत से हिन्दू स्वेच्छा से मुसलमान बनने लगे। तब हिन्दू धर्म सुधारकों ने इस बात को अनुभव किया कि हिन्दू धर्म को सब लोगों के लिये सुगम बनाना होगा ताकि लोग इसे छोड़कर अन्य धर्म न अपनायें। इसलिये ईश्वर की सरल भक्ति का मार्ग विस्तारित किया गया जो सबके लिये सुलभ थी और सबको बराबर स्थान देती थी।
(5.) गुलामी के कष्टों को भूलने का साधन: दिल्ली सल्तनत के शासकों द्वारा हिन्दुओं को आभूषण पहनने, घोड़े पर चढ़ने, राजकीय सेवा करने, सम्पत्ति रखने आदि अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। यह पराधीनता उन्हें सालती थी। भक्ति-मार्ग उनकी पराधीनता के विस्मरण का एक अच्छा साधन सिद्ध हुआ। ईश्वर की प्राप्ति तथा मोक्ष को सर्वप्रधान मानकर यह प्रचारित किया जाने लगा कि इसकी प्राप्ति केवल ईश्वर की दया अथवा भक्ति से हो सकती है।
(6.) परस्पर सहयोग की आवश्यकता: मनुष्य सामाजिक प्राणी है, साथ-साथ रहने से उसे एक दूसरे के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। यह तभी संभव है जब दोनों के बीच कटुता नहीं हो। जिस तरह सूफियों में दूसरे धर्म के लोगों के प्रति कटुता नहीं थी उसी प्रकार भगवद्-भक्ति का आधार भी समस्त प्राणियों को ईश्वर की संतान मानकर उनसे प्रेम करने की प्रेरणा ही है। इस भावना को निरंतर विस्तारित करने की आवश्यकता थी, इसलिये भक्ति आंदोलन निरंतर आगे बढ़ता रहा।
भक्ति आन्दोलन की रूप-रेखा
श्रीमद्भगवत्गीता में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बताये गये हैं- ज्ञान, प्रेम और उपासना। इनमें से ज्ञान मार्ग सर्वाधिक कठिन है और भक्ति मार्ग सर्वाधिक सरल है। भक्ति अपने उपास्यदेव के प्रति भक्त की अपार श्रद्धा तथा असीम प्रेम है। इस भक्ति से प्रसाद प्राप्त होता है। प्रसाद उपास्यदेव की अपने भक्त के ऊपर विशेष कृपा है जिससे उसे मोक्ष मिलता है। सल्तनत काल में भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तकों ने हिन्दू धर्म के आडम्बरों तथा जटिलताओं को दूर कर उसे सरल तथा स्पष्ट बनाने के प्रयास किया। इन लोगों ने एकेश्वरवाद को अपनाया अर्थात् एक ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया। ईश्वर की भक्ति विष्णु तथा उनके अवतारों- राम अथवा कृष्ण के रूप में की गई। हिन्दू धर्म सुधारकों का विश्वास था कि मोक्ष केवल ईश्वर की दया से प्राप्त हो सकता है। भक्ति मार्गी सुधारकों ने नाम तथा गुरु की महत्ता पर बल दिया। उनके उपदेशों में भक्ति भावना की प्रधानता है तथा अहंकार का अभाव है। भक्तों ने स्वयं को अपने उपास्य देव की प्रेयसी घोषित किया।
भक्ति मार्ग की शाखाएँ
ईश्वर प्राप्ति के तीन प्रधान साधनों- ज्ञान, प्रेम तथा उपासना को आधार बनाकर भक्ति की तीन शाखाएं प्रवाहित हुईं- ज्ञान मार्गी, प्रेम मार्गी तथा भक्ति मार्गी।
ज्ञान मार्गी शाखा: ज्ञान मार्गी शाखा के संतों ने हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बाह्याडम्बरों तथा मिथ्याचारों की आलोचना करके दोनों को एक दूसरे के निकट लाने का प्रयत्न किया। इस शाखा के प्रधान प्रवर्तक कबीर थे। वे एकेश्वरवादी तथा निर्गुण-निराकार ब्रह्म के उपासक थे। उन्होंने नाम तथा गुरु दोनों की महत्ता को स्वीकार किया।
प्रेम मार्गी शाखा: प्रेम मार्गी शाखा के सन्तों ने ईश्वर को अपने प्रेम पात्र के रूप में देखने का प्रयत्न किया है। इन सन्तों ने सर्वेश्वरवाद को पुष्ट किया। अर्थात् सम्पूर्ण संसार ईश्वर है। इन सन्तों ने भौतिक प्रेम द्वारा ईश्वरीय प्रेम का प्रतिपादन किया। उन्होंने हिन्दू तथा सूफी सिद्धांतों का समन्वय करके हिन्दुओं तथा मुसलमानों को एक दूसरे के निकट लाने का प्रयास किया।
भक्ति मार्गी शाखा: भक्ति मार्गी शाखा के सन्त अपने इष्टदेव की पूजा तथा उपासना में लीन रहते थे। वे देश तथा जाति का कल्याण ईश्वर भजन में ही पाते थे। भक्ति मार्गी सन्तों को राज-दरबार के ऐश्वर्य के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। न उनका मुसलमानों से कोई विरोध था और न उनसे मेल करने का किसी प्रकार का आग्रह था। इन सन्तों ने विष्णु एवं उनके अवतारों राम तथा कृष्ण के सगुण-साकार स्वरूप की भक्ति की। भक्ति मार्गी संत अपने इष्टदेव का गुणगान करना अपना परम धर्म समझते थे। इन सन्तों ने अपने कर्मों तथा गुणों की अपेक्षा भगवत् कृपा को अधिक महत्व दिया। भक्ति मार्गी सन्तों की दो शाखायें हैं- राम भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति शाखा। राम भक्ति शाखा के सन्तों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी अतिशय विनयशीलता तथा मर्यादाशीलता है। इन सन्तों ने विभिन्न मत मतान्तरों, उपासना-पद्धतियों तथा विचार धाराओं में समन्वय स्थापित किया तथा हिन्दू जाति को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। कृष्ण भक्ति शाखा के सन्तों ने श्रीकृष्ण की लीलाओं का गुण गान किया और श्रीकृष्ण की उपासना पर बल दिया। रामानुजाचार्य, रामानंदाचार्य तथा तुलसीदास, राम भक्ति मार्गी सन्त थे जबकि निम्बार्काचार्य, चैतन्यमहाप्रभु तथा सूरदास, कृष्ण भक्ति मार्गी सन्त थे।
मध्य युगीन भक्ति सम्प्रदाय
मध्य युगीन भक्ति सम्प्रदायों में रामानुजाचार्य का श्री सम्प्रदाय, विष्णु गोस्वामी का रुद्र सम्प्रदाय, निम्बार्काचार्य का निम्बार्क सम्प्रदाय, माधवाचार्य का द्वैतवादी माध्व सम्प्रदाय, रामानंद का विशिष्टाद्वैतवादी रामानन्द सम्प्रदाय, वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैतवादी पुष्टि सम्प्रदाय, चैतन्य महाप्रभु का गौड़ीय सम्प्रदाय अथवा चैतन्य सम्प्रदाय, हितहरिवंश का राधावल्लभी सम्प्रदाय तथा हरिदासी सम्प्रदाय महत्वपूर्ण हैं।
भक्ति मार्गी सन्त
रामानुजाचार्य: भक्ति मार्ग के सबसे बड़े समर्थक स्वामी रामानुजाचार्य थे। उनका जन्म 1016 ई. में हुआ था। रामानुज सगुण मार्गी उपासक तथा विशिष्टाद्वैतवादी तत्त्व चिंतक थे। वे ईश्वर को प्रेम तथा सौन्दर्य के रूप में मानते थे। वे विष्णु तथा लक्ष्मी की पूजा के समर्थक थे। उनका मानना था विष्णु सर्वेश्वर हैं। वे मनुष्य पर दया करके इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। रामानुज राम को विष्णु का अवतार मानते थे और राम की पूजा पर जोर देते थे। उनका कहना था कि पूजा तथा भक्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
निम्बार्काचार्य: भक्ति मार्ग के दूसरे समर्थक निम्बार्काचार्य थे। वे रामानुज के समकालीन थे। रामानुज की भांति निम्बार्क ने भी शंकराचार्य के सिद्धान्तों का खण्डन किया। निम्बाकाचार्य मध्यम मार्गी थे। वे द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद दोनों में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि जीवात्मा तथा परमात्मा एक दूसरे से भिन्न तथा अभिन्न दोनों है। ब्रह्म इस विश्व का रचयिता है। निम्बाकाचार्य कृष्ण मार्गी थे और कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानते थे। उनके विचार से कृष्ण भक्ति से मोक्ष मिल सकता है।
माधवाचार्य: तीसरे भक्ति मार्गी सन्त माधवाचार्य थे। उनका जन्म 1200 ई. में हुआ। वे विष्णु के उपासक थे। उनके विचार में मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य हरि का दर्शन प्राप्त करना है। हरि दर्शन से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। माधव के विचार में ज्ञान से भक्ति प्राप्त होती है और भक्ति से मोक्ष मिलता है।
रामानन्दाचार्य: रामानन्द राम मार्गी शाखा के सन्त थे। उनका जन्म चौहदवीं शताब्दी में हुआ था जब तुगलक सुल्तानों को भयानक विपत्तियों का सामना करना पड़ा था। रामानन्द के विचार रामानुज के विचारों से भी अधिक क्रान्तिकारी थे। रामानन्द वैष्णव थे परन्तु वे जाति प्रथा को नहीं मानते थे। रामानन्दी लोग राम तथा सीता की पूजा करते हैं।
वल्लभाचार्य: वल्लभाचार्य कृष्ण मार्गी शाखा के सन्त थे। यह कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे और उन्हें विष्णु का अवतार मानते थे। वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत का उपदेश दिया था। उनका कहना था कि ईश्वर से प्रेम तथा उसकी भक्ति करके हम ईश्वर की दया को प्राप्त कर सकते है। यद्यपि वल्लभाचार्य ने संसार के भोग-विलास त्याग कर विरक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश दिया था परन्तु उनके अनुयायी इसका अनुसरण नहीं कर सके।
चैतन्य महाप्रभु: चैतन्य महाप्रभु वल्लभाचार्य के समकालीन थे। वे बंगाल के सबसे बड़े धर्म सुधारक थे। उनका मानव के भ्रातृत्व में दृढ़ विश्वास था। वे जाति प्रथा के घोर विरोधी थे। उनके विचार में केवल कर्म से कुछ नहीं होता। मोक्ष प्राप्ति के लिए हरि भक्ति तथा उनका गुणगान करना आवश्यक है। प्रेम तथा लीला इस सम्प्रदाय की विशेषताएँ हैं। चैतन्य निम्बार्काचार्य की भांति भेदाभेद के सिद्धान्त को मानते थे अर्थात् जीवात्मा एक दूसरे से भिन्न तथा अभिन्न दोनों है। केवल भक्ति के बल से ही मानव की आत्मा श्रीकृष्ण तक पहुँच सकती है। मनुष्य की आत्मा ही राधा है। उसे श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन रहना चाहिए। दास के रूप में, मित्र के रूप में तथा प्रेम के रूप में श्रीकृष्ण से प्रेम करना मानव जीवन का प्रधान लक्ष्य है।
कबीर: रामानन्द के शिष्यों में कबीर का नाम अग्रण्य है। उनका जन्म 1398 ई. में काशी में एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ था। माता द्वारा लोकलाज के कारण त्याग दिये जाने से कबीर एक जुलाहे के घर में पलकर बड़े हुए थे। कबीर बहुत बड़े सुधारक थे। वे अद्वैतवादी थे तथा निर्गुण-निराकार ब्रह्म के उपासक थे। वे जाति-पाँति के भेदभाव को नहीं मानते थे। वे मूर्ति-पूजा और बाह्याडम्बर से घृणा करते थे। उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को पाखण्ड तथा आडम्बर छोड़ने तथा ईश्वर की सच्ची भक्ति करने का उपदेश दिया। इससे हिन्दू तथा मुसमलान दोनों ही उनके शिष्य हो गये। 1518 ई. में उनका निधन हुआ। इस प्रकार उनकी आयु 120 वर्ष मानी जाती है।
मीरा: नारी भक्तों में मीरा का नाम अग्रणी है। उनका जन्म मेड़ता के राजपरिवार में 1498 ई. में हुआ तथा विवाह मेवाड़ राजपरिवार में हुआ था। वे बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थीं। उन्होंने राजसी वैभव त्याग कर वैराग्य धारण किया तथा चमार जाति में जन्मे संत रैदास को अपना गुरु बनाया। वे जाति-पांति तथा ऊँच नीच में विश्वास नहीं करती थीं। उन्होंने ईश्वर के सगुण-साकार स्वरूप की भक्ति की। वे उच्चकोटि की कवयित्री थीं। उनके भजन आज भी बड़े प्रेम एवं चाव से गाए जाते हैं।
नामदेव: दक्षिण के सन्तों में नामदेव का नाम अग्रणी है। उन्होंने ईश्वर के एक होने का उपदेश दिया। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे तथा बाह्याडम्बर को उचित नहीं मानते थे। ईश्वर में उनकी अटल भक्ति थी और वे इसी को मोक्ष का साधन मानते थे।
गुरु नानक: पंजाब के सन्तों में गुरु नानक का नाम अग्रणी है। उनका जन्म 1469 ई. में पंजाब के तलवण्डी गांव में हुआ। वे सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरु थे। उनकी शिक्षाएँ ‘आदि ग्रन्थ’ में पाई जाती हैं। नानक एकेश्वरवादी थे और जाति-पाँति के भेद भाव को नहीं मानते थे। वे मूर्ति पूजा के भी घोर विरोधी थे। सिक्ख धर्म के अनुसार मनुष्य को सरल तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करना चाहिए। नानक का कहना था कि संसार में रह कर तथा सुन्दर गृहस्थ का जीवन व्यतीत कर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
भक्ति आन्दोलन का प्रभाव
भक्ति आन्दोलन का भारतीयों के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा-
(1.) हिन्दू जाति में साहस का संसार: हिन्दू जनता मुस्लिम शासन द्वारा किये जा रहे दमन के कारण नैराश्य की नदी में डूब रही थी। भगवद्गीता से प्रसूत ईश्-भक्ति का अवलम्बन प्राप्त हो जाने से उसमें मुसलमानों के अत्याचारों को सहन करने की शक्ति उत्पन्न हो गई।
(2.) मुसलमानों के अत्याचारों में कमी: भक्ति मार्गी सन्तों के उपदेशों का मुसलमानों पर भी प्रभाव पड़ा। इन सन्तों ने ईश्वर के एक होने का उपदेश दिया और बताया कि एक ईश्वर तक पहुँचने के लिये विभिन्न धर्म विभिन्न मार्ग की तरह हैं। इससे मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर किये जा रहे अत्याचारों में कमी हुई।
(3.) बाह्याडम्बरों में कमी: भक्तिमार्गी सन्तों ने धर्म में बाह्याडम्बरों की घोर निन्दा की और जीवन को सरल तथा आचरण को शुद्ध बनाने का उपदेश दिया। इन उपदेशों का हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा।
(4.) वर्ग भेद तथा संकीर्णता में कमी: भक्तिमार्गी सन्तों ने जाति प्रथा तथा ऊँच-नीच के भेदभाव की निन्दा की। इससे सामाजिक वर्ग भेद तथा संकीर्णता में कमी आई।
(5.) मूर्ति-पूजा का खंडन: कबीर, नामदेव तथा नानक आदि संत निर्गुण-निराकार ईश्वर की पूजा में विश्वास रखते थे। उन्होंने मूर्ति-पूजा का खंडन किया जिससे मुसलमानों को घृणा थी और जिसके उन्मूलन का उन्होंने अथक प्रयास किया था। इस कारण मुसलमानों के मन की कटुता में कमी आई।
(6.) उदारता के भावों का संचार: भक्ति मार्गी सन्तों के उपदेशों के फलस्वरूप हिन्दुओं तथा मुसलमानों में उदारता की भावनाओं का संचार होने लगा और वे एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता प्रदर्शित करने लगे।
(7.) हिन्दू-धर्म तथा इस्लाम में समन्वय का प्रादुर्भाव: भक्ति मार्गी सन्तों तथा सूफी प्रचारकों के उपदेशों के फलस्वरूप हिन्दू धर्म तथा इस्लाम में समन्वय का अविर्भाव हुआ। इससे हिन्दुओं तथा मुसलमानों की पारस्परिक कटुता में कमी आई जिसका भारतीय संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
(8.) धर्मों की मौलिक एकता का प्रदर्शन: भक्तिमार्गी सन्तों तथा सूफी प्रचारकों ने एकेश्वरवाद, ईश्वर प्रेम एवं भक्ति पर जोर देकर दोनों धर्मो की मौलिक एकता प्रदर्शित की। इसका हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों पर प्रभाव पड़ा और वे एक दूसरे को समझने का प्रयत्न करने लगे।
(9.) जातीय एवं व्यक्तिगत गौरव की उत्पति: भक्ति मार्गी सन्तों द्वारा विष्णु एवं उसके अवतारों के भक्त वत्सल होने तथा अत्याचारी का दमन करने के लिये अवतार लेने का संदेश बड़ी मजबूती से जनमसामान्य तक पहुँचाया गया। इससे हिन्दुओं में जातीय एवं व्यक्तिगत गौरव उत्पन्न हुआ। वे निर्बल की रक्षा करना ईश्वरीय गुण मानने लगे और स्वयं को भी इस कार्य के लिये प्रस्तुत करने लगे। उन्होंने गौ, स्त्री तथा शरणागत की रक्षा को ईश कृपा प्राप्त करने का माध्यम माना।
(10.) प्रान्तीय भाषाओं का विकास: भक्ति मार्गी सन्तों ने अपने उपदेश जन सामान्य तक पहुँचाने के लिये लोक भाषाओं को अपनाया। फलतः प्रान्तीय भाषाओं तथा हिन्दी भाषा की प्रगति को बड़ा बल मिला और विविध प्रकार के साहित्य की उन्नति हुई।
(11.) दलित समझी जाने वाली जातियों को नवजीवन: सन्तों के उपदेशों से भारत की दलित समझी जाने वाली जातियों में नवीन उत्साह तथा नवीन आशा जागृत हुई। भक्ति, प्रपत्ति और शरणागति के मार्ग का अवलम्बन करके हर वर्ग एवं हर जाति का मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता था। इस आन्दोलन ने भारतीय समाज में उच्च एवं निम्न जातियों के बीच बढ़ती हुई खाई को कम किया तथा हिन्दू समाज में नवीन आशा का संचार किया।
(12.) राष्ट्रीय भावना की जागृति: भक्ति आन्दोलन का राजनीतिक प्रभाव भी बहुत बड़ा पड़ा। इसी आन्दोलन के परिणामस्वरूप पंजाब तथा महाराष्ट्र में मुगल काल में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हुए। इस आन्दोलन को पंजाब में गुरु गोविन्दसिंह ने और महाराष्ट्र में शिवाजी ने चलाया था। यह प्रभाव ब्रिटिश शासन काल में भी चलता रहा।