बाल-बाल बचा प्रतनु। आर्यों का एक अश्वारोही दल काफी तीव्र गति से घोड़े फैंकता हुआ उन्हीं सघन वृक्षों के नीचे आकर रुका जिनकी छाया में प्रतनु विश्राम कर रहा था। वह तो ठीक था कि प्रतनु ने कुछ दूर से ही उन्हें देख लिया था। संख्या में वे छः-सात थे। तीव्र वेग से संचालित होने के कारण उनके अश्वों के क्षुर मृदा पर प्रचण्ड आघात करते हुए चले आ रहे थे। क्षुरों के आघात से प्रकम्पित हुई मृदा आकाश में विलम्बित होकर एक बड़ा सा गोला बना रही थी। यह गोला दूर से ही उनके चले आने की सूचना दे रहा था। सूर्य रश्मियों का स्पर्श पाकर रह-रह कर चमकते हुए उनके शिरस्त्राण और अस्त्र-शस्त्र धूलि के मोटे आवरण में से भी अपनी विकरालता का परिचय दे रहे थे।
प्रतनु के पास इतना समय नहीं था कि वहाँ से भाग खड़ा होता। ऐसा नहीं था कि पिशाचों द्वारा पकड़े जाने के बाद उसका आत्मविश्वास हिल गया था और अब वह अपरिचित व्यक्तियों का सामना करने में असमर्थ था किंतु इस निर्वसन अवस्था में ग्लानिवश वह किसी के समक्ष उपस्थित होने की स्थिति में नहीं था।
बुद्धि आपात् काल में ऐसे-ऐसे उपाय सुझा देती है जिनके बारे में प्रतनु जैसा व्यक्ति कभी सोच भी नहीं सकता। वह एक नातिदीर्घ [1] वृक्ष पर चढ़ गया। निर्वस्त्र प्रतनु स्वयं को पूरी तरह असहाय पा रहा था। उसे पिशाचों के चंगुल से निकले हुए तीन दिन हो चले थे। उदर पूर्ति हेतु वृक्षों की उदारता फलों के रूप में तथा नदियों की उदारता जल के रूप में उपलब्ध थी किंतु वस्त्र का प्रबंध अब तक नहीं हो पाया था। प्रतनु की इच्छा हुई कि वह इन आर्य अश्वारोहियों के समक्ष उपस्थित होकर उनसे वस्त्र की याचना करे।
याचना! इस विचार से ही सन्न रह गया प्रतनु। याचना का विचार उसके मस्तिष्क में आया कैसे! ठीक है कि प्रतनु बिना पण्य के कर्पास के वस्त्रों का प्रबंध नहीं कर सकता किंतु यदि उसके पास पण्य होते तो भी तो वह किस पणि के पास वस्त्र क्रय करने जाता! वस्त्रों का प्रबंध तो उसे बिना पण्य और बिना याचना के ही करना था। ऐसा ही उसने निश्चय किया था।
प्रतनु ने सोचा था कि किसी पशु को मारकर चर्म प्राप्त कर लेगा। यद्यपि अपने जीवन में उसने किसी पशु का वध नहीं किया था, न ही वह जानता था कि किसी पशु का वध कर पाना और उससे चर्म प्राप्त कर पाना उसके जैसे व्यक्ति के लिये उतना सहज नहीं है जितना वह समझ रहा है तथापि ऐसा विचारने के अतिरिक्त उसके पास उपाय ही क्या था! लाख चेष्टा करके भी प्रतनु न तो किसी पशु को पकड़ पाया था और न किसी पशु का वध कर पाया था। जब भी वह किसी पशु को देखता तो उसके वध के लिये प्रस्तर उठाता किंतु प्रस्तर का प्रहार करने से पहले ही उसके हाथ कांपने लगते और वह पशु को अपनी पकड़ से दूर जाने तक देखता ही रह जाता। पशु इतने उदार नहीं थे कि अपना चर्म उतार कर स्वयं प्रतनु को दे देते।
पत्तों की ओट से प्रतनु ने देखा कि आर्य अश्वारोहियों ने वल्गायें त्यागकर अश्वों को वृक्षों से बांध दिया। कृष्णायस से बने शिरस्त्राण और भाले वृक्षों के समीप रखकर समस्त आर्य सरिता के जल में उतर पड़े। सरिता को स्पर्श करने से पूर्व उन्होंने वरुण को नमन किया और सरिता का जल अपने नेत्रों और हृदय से लगाया। भली भांति निमज्जित होने के पश्चात् वे सूर्य को अघ्र्य देकर फिर से उन्हीं वृक्षों के नीचे आ बैठे और अश्वों की पीठ पर लदा भुना हुआ यव और मधु निकाल कर भोजन का उपक्रम करने लगे।
भुने हुए यव की गंध और मधु की उपस्थिति देखकर प्रतनु के मुंह में पानी भर आया। प्रतनु को लगा जाने कितने युग व्यतीत हो चले थे भुने हुए यव और मधु ग्रहण किये हुए। प्रतनु ने देखा कि भोजन सामग्री अपने समक्ष रखकर समस्त आर्य अश्वारोही पूर्व दिशा में मुख करके बैठ गये हैं और दोनों हाथ जोड़कर एवं नेत्र बंद करके प्रार्थना कर रहे हैं। यद्यपि वह आर्यों को मन ही मन अपना शत्रु मानता आया है किंतु आर्यों के मंत्र अच्छे लगे उसे। सधे हुए शब्द, सधी हुई वाणी और सधे हुए भाव। भले ही सैंधवों ने कितनी ही अच्छी प्रार्थनायें बना ली हों किंतु आर्यों के मंत्रों का सा माधुर्य उनमें नहीं।
– ‘ऊँ शन्नो देवीर भिष्टयेट्टापो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः।’ [2] आर्य सुरथ ने जल हाथ में लेकर उसे धरित्री पर छोड़ दिया।
प्रतनु की उपस्थिति से अनभिज्ञ आर्य भोजन ग्रहण करने लगे। उन्हें ज्ञात नहीं था कि कई दिनों से भूखा और निर्वस्त्र प्रतनु टकटकी बांध कर उन्हें देख रहा है अन्यथा पूर्णानन्द के अभिलाषी आर्य पथिक, क्षुधित और पीड़ित प्रतनु को आनंदित किये बिना स्वयं भोजन ग्रहण नहीं करते।
प्रतनु ने देखा कि आर्य अश्वारोहियों के मुख मण्डल पर सामान्यतः दिखाई देने वाले दर्प के स्थान पर चिंता व्याप्त है।
– ‘आर्य! मार्ग की विश्रांति के कारण भोजन में तृप्ति देने की क्षमता कई गुणा बढ़ क्यों जाती है ?’ आर्य सुनील ने राजन् सुरथ को सम्बोधित किया।
– ‘क्योंकि तृप्ति देने की क्षमता भोजन में नहीं अतृप्ति के भाव में होती है।’ राजन् सुरथ ने उत्तर दिया।
– ‘इसका अर्थ यह हुआ कि यात्रा से अतृप्ति का भाव उत्पन्न होता है! ‘
– ‘यात्रा से नहीं, यात्रा से उत्पन्न हुई विश्रांति से अतृप्ति का भाव उत्पन्न होता है।
– ‘इसका अर्थ तो यह भी हुआ कि अभाव में ही भाव का सर्जन होता है।’
– ‘निःसंदेह! अभाव का अनुभव नहीं हो तो भाव का निर्माण कैसे होगा! किंतु भोजन के समय गरिष्ठ वार्तालाप अनुचित है आर्य।’ राजन् सुरथ ने आर्य सुनील को टोका।
राजन् सुरथ की वर्जना पाकर समस्त आर्य अश्वारोही मौन धारण करके यव और मधु ग्रहण करने लगे। भोजन समाप्ति पर उद्विग्न आर्य सुनील ने पुनः राजन् सुरथ से प्रश्न किया। आर्य सुनील के लिये अधिक समय तक मौन रह पाना संभव नहीं होता- ‘राजन्! जिस प्रकार असुरों ने सोम का हरण कर लिया है, क्या एक दिन वे यव, शालि और मधु का भी हरण कर लेंगे ?’
– ‘असुरों को रोका नहीं गया तो वे किसी भी सीमा तक जाकर कोई भी अपकृत्य कर सकते हैं आर्य।’ राजन् सुरथ ने उत्तर दिया।
– ‘असुरों को रोकने के समस्त प्रयास निष्फल सिद्ध हुए हैं। ऐसा क्यों है ?’
– ‘क्योंकि हमने केवल आसुरी शक्तियों को दमित करना चाहा है, आसुरि प्रवृत्तियों को नहीं।’
– ‘आसुरि शक्तियों का दमन हम अपने अस्त्र-शस्त्रों से कर सकते हैं किंतु आसुरि प्रवृत्तियों का दमन आर्यों द्वारा किया जाना कैसे संभव है ? चित्त-वृत्ति और स्वभाव तो दैवकृत होते हैं।’ आर्य सुनील के लिये आर्य सुरथ के उत्तर उलझा देने वाले ही होते हैं।
– ‘आसुरि प्रवृत्तियों के दमन के लिये आवश्यक है असुरों में श्रेष्ठ भावों और श्रेष्ठ प्रवृत्तियों का संचरण करना। हमें आर्यों की सनातन शुचि और विद्या का प्रसार असुरों में भी करना होगा। इसके लिये उनमें ऋषि परम्परा आरंभ करनी होगी।’
– ‘असुरों में ऋषि परम्परा आरंभ करने के प्रयास महर्षि उषनस् [3] तथा ऋचीक और्व [4] ने भी तो किये थे किंतु श्रेष्ठ ऋषि होने पर भी वे असुरों को कोई श्रेष्ठ परम्परा नहीं दे सके। उसके बाद आर्यों को अपने प्रयास बन्द कर देने पड़े।’ आर्य सुनील ने कहा।
– ‘कोई भी अकेला प्रयास इस दिशा में पर्याप्त नहीं होगा। आसुरि शक्तियों को शमित करने और आसुरि प्रवृत्तियों को दमित करने के प्रयास साथ-साथ चलाने होंगे। यह एक सतत और दीर्घ काल तक चलने वाली प्रक्रिया है। इसके लिये ही तो हमने आर्यों को संगठित करने का अभियान आरंभ किया है।’ आर्य सुरथ ने प्रत्युत्तर दिया।
– ‘आर्यों को संगठित करने की आपकी योजना तो मुझे अच्छी लगती है किंतु उसके सफल होने में संदेह दिखायी देता है।’ आर्य सुनील ने आशंका व्यक्त की।
– ‘ऐसा क्यों आर्य ?’ आर्य सुरथ को किंचित आश्चर्य हुआ। ऐसा आज तक नहीं हुआ था कि आर्य सुनील ने स्पष्ट रूप से उनकी योजना के विफल हो जाने की आशंका व्यक्त की हो।
– ‘हम लोग जिस किसी भी आर्य-जन में आपकी योजना को लेकर गये हैं, वहाँ किसी भी जन से हमें विशेष समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। समस्त आर्य-जन संगठन के विचार का तो स्वागत करते हैं किंतु वे अपनी-अपनी स्वतंत्रता को लेकर चिंतित हैं।’
– ‘प्रत्येक नये कार्य के आरंभ में कुछ न कुछ कठिनाइयाँ आती ही हैं। यदि हम इन प्रारंभिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर लें तो आगे के मार्ग स्वयं ही खुल जायेंगे।’ राजन् सुरथ ने आर्य वीरों को सांत्वना देते हुए कहा।
– ‘यदि आर्य जनों ने यही हठ पकड़े रखा तो हमारे समक्ष और कौन सा उपाय रह जायेगा ?’ आर्य अतिरथ ने पूछा।’
– ‘यदि उन्होंने अपना हठ पकड़े रखा तो उन्हें बलपूर्वक संगठित करना होगा ………।’ राजन् सुरथ ने दृढ़ता पूर्वक उत्तर दिया किंतु वे अपनी बात पूरी करते, उससे पहले ही आर्य अतिरथ बोल पड़े- ‘ यदि अंत में बल का ही उपयोग करना है तो अभी क्यों नहीं! समय व्यर्थ करने का क्या लाभ ?’ आर्य अतिरथ योजना बनाने और उसके क्रियान्वयन में समय व्यर्थ करने में कम विश्वास करते हैं, तत्काल कार्यवाही करने में उनका अधिक विश्वास है। उनका मानना है कि आर्यों ने असुरों की समस्या को व्यर्थ ही इतना बढ़ा-चढ़ा हुआ मान रखा है। यदि असुरों के विरुद्ध तत्काल सैन्य अभियान छेड़ दिया जाये तो असुरों को सहज में ही नष्ट किया जा सकता है।
आर्य सुरथ ने आर्य अतिरथ की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उनका ध्यान कहीं और चला गया था। इस समय वे धरती पर रखे जल पात्र में बनती परछाईयों को सचेत होकर देख रहे थे। शीघ्र ही उन्हें विश्वास हो गया कि नाति-दीर्घ वृक्ष पर पत्तों के बीच कोई वानर बैठा है और टकटकी बांध कर उन्हें देखे जा रहा है। आर्य सुरथ ने दृष्टि ऊपर उठाई। थोड़े से प्रयास के बाद उन्होंने पेड़ पर चढ़े हुए प्रतनु को देख लिया। वानर के स्थान पर निर्वसन मानव को घने पत्तों के बीच छिपा हुआ देखकर आश्चर्य हुआ उन्हें। कौन हो सकता है यह! कहीं कोई असुर या पिशाच तो नहीं! उन्होंने भाला हाथ में लेकर, प्रतनु को नीचे आने के लिये ललकारा।
प्रतनु को लगा कि यदि वह तत्काल वृक्ष से नीचे नहीं उतरा तो निश्चित रूप से आर्य-दल का मुखिया भाले का प्रहार करेगा। वह चुपचाप नीचे उतरने लगा। वृक्ष से नीचे उतरते हुए निर्वसन प्रतनु की ग्लानि का कोई पार नहीं था। जिन प्राणियों ने उसे निर्वसन किया था वह तो स्वयं भी निर्वसन थे, उनमें देह-गोपन का कोई भाव नहीं था। वे असभ्य और बर्बर थे तथा उनसे प्रतनु की कोई शत्रुता भी नहीं थी किंतु इस समय जिन व्यक्तियों के समक्ष उसे निर्वसन उपस्थित होना पड़ रहा है वे स्वयं निर्वसन नहीं हैं। इनमें देह के गोपन का भाव पूरी तरह परिष्कृत है। इतना ही नहीं, इन्हें तो वह अपना शत्रु मानता आया है। शत्रु के समक्ष इस हेय अवस्था में! प्रतनु के शोक का पार न था।
वृक्ष से उतरते ही प्रतनु को आर्यों ने अपने तीक्ष्ण शस्त्रों की परिधि में ले लिया।
– ‘कौन है तू ?’ आर्य सुरथ ने प्रश्न किया।
– ‘एक पथिक! ‘
– ‘असुर है ?’
– ‘सैंधव हूँ।’
– ‘निर्वस्त्र और भयभीत क्यों है ?’
– ‘निर्वस्त्र अवश्य हूँ, भयभीत नहीं।’
– ‘तो यही बता निर्वस्त्र क्यों है ?’
– ‘परिस्थिति वश।’
– ‘कैसी परिस्थिति ?’
– ‘पथ भ्रमित हो पिशाचों की भूमि में पहुँच गया था, उन्हीं पिशाचों ने वस्त्र नष्ट कर दिये। किसी तरह प्राण सुरक्षित लेकर आया हूँ।’
– ‘वृक्ष पर क्यों चढ़ा हुआ था।’ पथिक को सभ्य समाज से सम्बन्धित जानकर राजन् सुरथ ने उसे वस्त्र प्रदान किया।
– ‘अपनी हीन अवस्था को शत्रु से छिपाने के लिये।’ प्रतनु ने राजन् सुरथ द्वारा दिया गया वस्त्र सावधानी से देह पर लपेटते हुए कहा। कर्पास निर्मित साधारणवस्त्र को पाकर उसे ऐसा अनुभव हो रहा था मानो बहुत बड़ी सम्पदा हाथ लग गयी हो।
– ‘शत्रु!’ आर्य सुनील ने जिज्ञासा व्यक्त की।
– ‘क्या तुम्हारा कोई शत्रु यहाँ भी उपस्थित है ?’ आर्य सुरथ ने सतर्क होते हुए पूछा।
– ‘हाँ।’
– ‘कौन है तुम्हारा शत्रु ?
– ‘आर्य सैंधवों के शत्रु नही हैं क्या ?’
– ‘आर्यों और सैंधवों के मध्य कोई शत्रुता नही है। आर्य तो किसी के शत्रु नहीं हैं।’
– ‘क्यों ? क्या आर्य असुरों के शत्रु नहीं हैं ?’
– ‘तुम्हारी ही बात मान ली जाये तो भी तुम्हें इससे क्या ? तुम तो असुर नहीं हो! ‘
– ‘आर्य असुरों के शत्रु हैं और सैंधव असुरों के मित्र हैं। इसी से आर्य सैंधवों के शत्रु हैं।’
– ‘मित्र का शत्रु स्वयं का शत्रु समझा जाये यह व्यक्तिगत व्यवहार में तो उचित है किंतु जब प्रश्न दो प्रजाओं का हो तो यह किंचित् मात्र भी आवश्यक नहीं कि मित्र का शत्रु, अपना भी शत्रु हो।’
– ‘क्या आर्यों ने सरस्वती के तट पर स्थित सैंधवों के प्राचीन पुर नष्ट नहीं किये ?’
– ‘तुम मगन [5] की बात कर रहे हो! ‘
– ‘हाँ। मैं कालीबंगा की ही बात कर रहा हूँ।’
– ‘कालीबंगा क्या ?’
– ‘जिसे तुम मगन कहते हो, वह हमारा कालीबंगा था।’
– ‘क्या तुम मगन के निवासी हो ?’
– ‘नहीं। मेरे माता-पिता वहाँ के निवासी थे। मेरा जन्म तो शर्करा के तट पर हुआ।’
शर्करा! विचार में पड़ गये आर्य सुरथ। उन्होंने सुना था कि सरस्वती की एक क्षीण शाखा द्रुमकुल्य में विलीन होने से पूर्व शर्करा के नाम से विख्यात है। उसके तट पर ईक्षु के विशाल क्षेत्र हैं। असुरगण उसी शर्करा को हाकरा कहते हैं।
– ‘देखो युवक! हो सकता है तुम्हारा कथन सही हो किंतु आर्यों और द्रविड़ों के मध्य यदि अतीत में कोई विवाद अथवा यु़द्ध हुआ है तो उसका अर्थ यह कदापि नहीं हो जाता कि प्रत्येक आर्य और प्रत्येक सैंधव भी व्यक्तिशः एक दूसरे के अनिवार्य शत्रु हो गये हैं। हमारी और तुम्हारी कोई शत्रुता नहीं। तुम चाहो तो हम मित्र हो सकते हैं।’
– ‘यदि मैं अपने पुर और अपनी प्रजा के शत्रुओं से मित्रता स्थापित करूंगा तो मैं पुर और प्रजा से विश्वासघात करूंगा।’
– ‘विश्वासघात तो उस अवस्था में होता है जब तुम शत्रु से मिलकर अपने पुर और प्रजा को हानि पहुँचाओ। हमसे तुम्हें अथवा तुम्हारे पुर और प्रजा को कोई हानि नहीं होगी।
प्रतनु को लगा कि आर्यों का मुखिया सही कह रहा है। इस समय आर्यों द्वारा शत्रुता का कोई कृत्य नहीं किया जा रहा है। इस समय वे शत्रु नहीं है अपितु मित्रता के अभिलाषी हैं।
आर्य सुरथ ने अनुभव किया कि यह जो कोई भी हो किंतु आर्यों को हानि पहुँचाने की स्थिति में नहीं है अपितु विपन्न अवस्था में होने के कारण सहायता प्राप्त करने का अधिकारी है। उन्होंने प्रतनु को एक और वस्त्र तथा भोजन प्रदान किया। प्रतनु को भी उनसे वस्त्र और भोजन प्राप्त करना अनुचित नहीं लगा। यदि अनुचित लगा होता तो भी आपात्काल में प्रतनु के समक्ष इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था।
आर्यों ने प्रतनु की यात्रा का विवरण आदि से अंत तक पूरा सुना। उन्हें यह सैंधव युवक साहसी और बुद्धिमान के साथ-साथ प्रशंसनीय भी जान पड़ा। साहस और बुद्धि के बल पर ही उसने शर्करा के तट से मेलुह्ह [6] तथा नागलोक तक की यात्रा की थी। साहस के बल पर ही उसने गरुड़ों के विरुद्ध नागों की सहायता की थी। इसी अदम्य साहस के बल पर ही वह अपने प्राणों को सुरक्षित लेकर पिशाचों के चंगुल से भाग निकलने में सफल हुआ था। इस विपन्न अवस्था में भी उसका विवेक पूर्णतः जाग्रत था और वह सैंधवों के पुजारी किलात से प्रतिकार लेने के लिये मेलुह्ह जा रहा था। आर्य प्रजा की ही भांति सैंधवों में भी आत्माभिमान की इतनी उच्च परम्परा है यह जानकर आर्यों को संतोष हुआ था किंतु साथ ही उन्हें यह जानकर कष्ट भी हुआ कि देव पूजन के नाम पर सैंधवों में इतनी विकृति उपस्थित है।
बहुत समय तक आर्य दल सैंधव प्रतनु से वार्तालाप करता रहा। विचित्र नागलोक का विवरण जानकर आर्यों को सुखद आश्चर्य हुआ। उन्हें यह ज्ञात था कि पश्चिमोत्तर की पर्वत शृंखलाओं में आर्यों से ही निकली दो शाखाओं-नागों और गरुड़ों की बस्तियाँ हैं जिनमें दीर्घ काल से संघर्ष होता आया हैं। ठीक वैसा ही जैसा आर्यों और असुरों में। नाग अपने विज्ञान के बल पर और गरुड़ अपनी शक्ति के बल पर समरांगण में एक दूसरे के समतुल्य हो जाते हैं। इसी कारण उनमें चिरकाल से कोई परिणामकारी युद्ध नहीं हो पाता। राजन् सुरथ को एक बार पुनः पुष्टि हो गयी कि अब भी वे दोनों प्रजायें संघर्ष रत हैं।
आर्य सुरथ ने प्रस्ताव किया कि यदि प्रतनु चाहे तो आर्यों का एक अश्व उसे दिया जा सकता है किंतु प्रतनु ने आर्यों से और सहायता प्राप्त करने से विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया।
जब प्रतनु आर्य अश्वारोहियों से विदा लेकर अपने गंतव्य के लिये पुनः आरंभ हुआ तो उसके मन में राजन् सुरथ के प्रति विनम्रता एवं सम्मान का भाव जाग्रत हो चुका था। विपन्न अवस्था में पड़े अपरिचत सैंधव पथिक के लिये इतना उदार भाव रखने वाले आर्य निश्चित रूप से शत्रुता करने के योग्य नहीं है।
[1] कम ऊँचा।
[2] सबको प्रकाशित और सबको आनंदित करने वाले सर्वव्यापी ईश्वर ! मनोवांछित आनन्द और पूर्णानन्द देने के लिये आप हमारे लिये कल्याणकारी हों। हे परमेश्वर! आप हम पर सुख की सदा वृष्टि करें।
[3] शुक्राचार्य ।
[4] शुक्राचार्य की वंश परंपरा में और्व ऋषि हुए। और्व के बहुत बाद में इसी वंश में च्यवन ऋषि हुए। इसी वंश में आगे चलकर जमदग्नि तथा परशुराम आदि श्रेष्ठ ऋषि हुए। मिश्र के पिरामिड से प्राप्त एक मुद्रा पर ऋषि च्यवन की जानकरी मिली है। अनुमानतः 1000 ईस्वी पूर्व के काल का कांसे का बना एक तरकश ईरान में मिला है जिसपर वरुण, मित्र, इंद्र, पर्जन्य आदि वैदिक देवताओं से सम्बन्धित गाथा को व्यक्त किया गया है। वैदिक ऋषि च्यवन का जीवनवृत्तांत भी इस तूणीर पर उत्कीर्ण है।
[5] मेसोपोटामिया के विभिन्न स्थलों से प्राप्त कीलाक्षर लिपि युक्त मृत्पट्टिकाओं में मगन से ताम्बा मंगवाये जाने का उल्लेख है। सैंधव सभ्यता का कालीबंगा नगर राजस्थान के खेतड़ी ताम्र क्षेत्र के अत्यंत निकट था अतः पर्याप्त संभव है कि उस काल में कालीबंगा के धातुकर्मी खेतड़ी से ताम्बा प्राप्त कर उसकी विविध सामग्री तैयार करके अन्य सभ्यताओं को निर्यात करते हों। इसी कारण मगन का साम्य कालीबंगा से किया गया है।
[6] मोहेन-जो-दड़ो।
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