शिल्पी प्रतनु और नृत्यांगना रोमा ने सावधानी से कई बार काल गणना की और आश्वस्त हो जाने पर कि प्रतनु के निष्कासन की दो वर्ष की अवधि पूर्ण हो गयी है, प्रतनु ने आज ही किलात से मिलने का निर्णय लिया। पशुपति महालय के प्रातःकालीन पूजन के पश्चात् प्रतनु किलात की सेवा में उपस्थित हुआ। किलात का अनुशासन पाकर अनुचर प्रतनु को किलात के कक्ष तक ले गया। प्रतनु ने देखा कि दो वर्ष पहले उसके द्वारा बनायी हुई देवी रोमा की प्रतिमा ज्यों की त्यों कक्ष के उसी कोने में रखी है, जहाँ उसने उसे पिछली बार देखा था। किलात एक ऊँचे आसन पर बैठा हुआ था। प्रतनु ने पृथ्वी पर जानु रखकर पशुपति महालय के प्रधान पुजारी किलात को प्रणिपात किया।
– ‘युवक तुम्हारे पुनः मोहेन-जो-दड़ो आगमन से मैं प्रसन्न हूँ। तुम जैसे प्रतिभाशाली शिल्पी को मैं इतना कठोर दण्ड नहीं देना चाहता था किंतु देवी रोमा के संतोष के लिये ऐसा करना आवश्यक हो गया था।’ किलात को आशा नहीं थी कि दो वर्ष के पश्चात् यह युवा शिल्पी पुनः मोहेन-जो-दड़ो में लौटकर आयेगा। एक तरह से वह प्रतनु को देखकर चैंका ही था।
– ‘आप सैंधव सभ्यता के संरक्षक हैं, आप जो भी करें आपके लिये सर्वथा उचित है। जो व्यतीत हो गया है मैं उस पर अब चर्चा नहीं करना चाहता। इस समय तो मैं विशेष प्रयोजन से आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।’ प्रतनु ने अपने शब्दों को न चाहते हुए भी कोमल बनाये रखना उचित समझा।
– ‘यदि मैं तुम्हारे किंचित् भी कार्य आ सकूँ, तो मुझे प्रसन्नता होगी। तुम निर्भय होकर अपना मंतव्य मुझसे कह सकते हो। तुम्हारे प्रपितामह ने सैंधवों की बड़ी सेवा की है।’
– ‘मैं यही आशा लेकर आपकी सेवा में आया हूँ। मैं स्वामी से प्रार्थना करता हूँ कि पशुपति महालय की मुख्य नृत्यांगना देवी रोमा को मुझे अर्पित कर दिया जाये।’ निःसंकोच होकर प्रतनु ने अपनी बात किलात के समक्ष कही।
– ‘यह क्या कह रहे हो युवक ? क्या तुम देवी रोमा से रुष्ट हो उससे प्रतिकार लेना चाहते हो ?’
– ‘नहीं! मैं देवी रोमा से किंचित् भी रुष्ट नहीं। न ही मैं उनसे कोई प्रतिकार लेना चाहता हूँ। मेरा उनसे अनुराग है। इसी कारण उनका प्रत्यर्पण [1] चाहता हूँ। विवाह करूंगा मैं उनसे। ‘
– ‘क्या तुम्हें पशुपति महालय की नृत्यांगनाओं के प्रत्यर्पण नियमों की जानकारी है ?’
– ‘मुझे कुछ-कुछ जानकारी है स्वामी।’
– ‘सर्व प्रथम तो उस देवांगना की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है, जिसका कि प्रत्यर्पण चाहा जा रहा है। क्या देवी रोमा अपने प्रत्यर्पण के लिये सहमत होंगी ?’
– ‘देवी रोमा अपने प्रत्यर्पण के लिये सहमत हैं स्वामी।’
– ‘मिथ्या बोलते हो तुम। रोमा कभी भी तुम्हारे लिये अपने प्रत्यर्पण हेतु प्रस्तुत नहीं हो सकती।’ शिल्पी की बात सुनकर बुरी तरह चैंका किलात।
– ‘आप चाहें तो देवी से उनकी सहमति की पुष्टि कर सकते हैं।’ किलात के स्वर में उत्तेजना आ जाने पर भी प्रतनु संयत ही बना रहा।
उसी समय किलात ने अपना अनुचर देवी रोमा के आवास की ओर दौड़ाया। किलात को लगा कि वह किसी षड़यंत्र में घिर गया है। यह चतुर शिल्पी अकारण ही रोमा के प्रत्यर्पण की मांग नहीं कर सकता। कहीं न कहीं, कोई न कोई अभिसंधि[2] अवश्य हुई है। संभवतः यही कारण रहा है कि रोमा ने किसी न किसी उपाय से अब तक स्वयं को किलात से दूर बनाये रखा है। अन्यथा पशुपति महालय की किसी भी नृत्यांगना ने इतना दुःसाहस कभी नहीं किया कि वह किलात के एक आदेश पर स्वयं को प्रस्तुत न करे।
– ‘दासी रोमा स्वामी के चरणों में प्रणाम निवेदन करती है।’ रोमा ने नतजानु हो किलात का अभिवादन किया। रोमा को देखकर किलात अपने विचारों से बाहर आया।
– ‘देवी! क्या तुम इन्हें पहचानती हो ?’
– ‘हाँ स्वामी! ये वही शिल्पी प्रतनु हैं जिन्होंने मातृदेवी के वेश युक्त मेरी प्रतिमा का शिल्पांकन किया था।’
– ‘बिल्कुल ठीक पहचाना तुमने। ये वही शिल्पी हैं किंतु ये तुम्हारे प्रत्यर्पण की मांग कर रहे हैं।’
– ‘पशुपति महालय की नृत्यांगनाओं के प्रत्यर्पण हेतु निवेदन करना सैंधवों का अधिकार है स्वामी।’ रोमा ने दृष्टि झुकाकर उत्तर दिया।
रोमा का प्रत्युत्तर सुनकर जैसे आकाश से गिरा किलात। उसका अनुमान सही था। इन दोनों के बीच कोई न कोई अभिसंधि अवश्य है।
– ‘क्या तुम शिल्पी प्रतनु के लिये स्वयं के प्रत्यर्पण हेतु प्रस्तुत हो ?’
– ‘हाँ स्वामी! प्रत्येक स्त्री के मन में यह अभिलाषा होती है कि वह गृहस्थी बसाये। महालय की नृत्यांगनाओं में कोई विरली ही होती है, जिसे यह अवसर प्राप्त होता है। पशुपति की अनुकम्पा से मुझे यह अवसर मिला है। मैं इस अवसर को खोना नहीं चाहूंगी।’
– ‘क्या शिल्पी तुम्हारे प्रत्यर्पण के लिये पशुपति महालय को पर्याप्त स्वर्णभार प्रस्तुत कर सकेगा!’
– ‘हाँ स्वामी! शिल्पी प्रतनु मेरे प्रत्यर्पण के लिये पर्याप्त स्वर्णभार प्रस्तुत कर सकेंगे।’
– ‘कितना ? कितना स्वर्णभार ?’ किलात को विश्वास ही नहीं हुआ। दो वर्ष के निर्वासन काल में एक शिल्पी कितना स्वर्ण भार जुटा सकता है!
– ‘आप आदेश करें स्वामी! कितना स्वर्णभार पशुपति के चरणों में अर्पित करना हेागा शिल्पी प्रतनु को मेरे प्रत्यर्पण के लिये!’ रोमा ने दर्प के साथ दृष्टि उठाकर किलात से पूछा। किलात ने अनुभव किया कि यह प्रश्न नहीं है, चुनौती है।
– ‘किंतु जो प्रश्न शिल्पी प्रतनु द्वारा पूछा जाना चाहिये, वह प्रश्न तुम क्यों पूछ रही हो ? स्वर्णभार शिल्पी द्वारा समर्पित किया जाना है न कि तुम्हारे द्वारा!’
रोमा को इस प्रश्न की आशंका पहले ही थी। इसीलिये उसने रात्रि में ही अपने समस्त स्वर्ण आभूषण शिल्पी प्रतनु के निवास पर पहुँचा दिये थे।
– ‘प्रश्न भले ही मेरे द्वारा किया गया हो किंतु स्वर्णभार शिल्पी ही अर्पित करेंगे।’ रोमा ने प्रत्युत्तर दिया।
– ‘ठीक है मैंने माना कि तुम प्रत्यर्पण के लिये प्रस्तुत हो और तुम्हारे प्रत्यर्पण के लिये यह शिल्पी पर्याप्त स्वर्णभार भी पशुपति को समर्पित कर सकता है किंतु प्रत्यर्पण के लिये यही दो बातें पर्याप्त नहीं हैं। महालय के प्रधान पुजारी को भी सहमत करना आवश्यक है कि वह महालय की नृत्यांगना का प्रत्यर्पण करे। शिल्पी प्रतनु ने मेरी सहमति नहीं ली है।’
– ‘आपकी सहमति के लिये ही तो मैं यहाँ प्रस्तुत हुआ हूँ स्वामी।’ शिल्पी प्रतनु ने शब्दों को विनम्र ही बनाये रखा।
– ‘किंतु मैं अपनी सहमति देने से मना करता हूँ। अब तुम जा सकते हो युवक।’ किलात ने आवेश से लगभग चीखते हुए अपनी बात पूरी की।
– ‘किंतु आप देवी रोमा का प्रत्यर्पण करना क्यों नहीं चाहते ?’
– ‘तुम मुझसे यह प्रश्न नहीं कर सकते युवक। पशुपति महालय के प्रधान पुजारी को क्या करना है और क्या नहीं, इसका निर्णय वे स्वयं लेते हैं और उसका कारण किसी को स्पष्ट नहीं करते।’
– ‘किंतु जब प्रश्न स्वयं मुझसे ही जुड़ा है तो मुझे सैंधव होने के नाते यह अधिकार है कि मैं यह जान सकूं कि आप देवी रोमा का प्रत्यर्पण केवल मुझे ही नहीं करेंगे अथवा किसी को भी नहीं करेंगे ? ‘
– ‘मैं तुम्हारे किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिये बाध्य नहीं हूँ।’
– ‘तो फिर मुझे आपको बाध्य करना होगा।’
– ‘तुझमें इतनी सामथ्र्य क्योंकर है उद्दण्ड युवक ?’
– ‘एक सैंधव होने के नाते मेरी यह सामथ्र्य है स्वामी।’ प्रतनु ने निर्भीक होकर उत्तर दिया।
किलात के विस्मय का पार न रहा। शिल्पी के आत्म विश्वास का आधार क्या है। क्या सचमुच यह इतना शक्तिशाली है कि मुझे विवश कर सके! क्या इसे किसी शक्तिशाली संगठन का बल प्राप्त है! अथवा यूँ ही यौवन के प्रवाह में मिथ्या प्रलाप कर रहा है! शिल्पी के चेहरे का दर्प बता रहा है कि कुछ न कुछ शक्ति इसके पास अवश्य है अन्यथा इसका ऐसा साहस कदापि न होता कि मुझे महालय में खड़े होकर चुनौती दे सके। दीर्घ आयु का सेवन कर चुका किलात इतना अनुभव तो रखता ही है कि परिस्थिति की वास्तविकता को समझे। अतः उसने उत्तर दिया- ‘ठीक है युवक! सैंधव होने के नाते तुम्हें अधिकार है कि तुम अपने स्वामी से प्रश्न करो किंतु मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर चन्द्रवृषभ आयोजन के बाद दूंगा।’
– ‘उचित है स्वामी, मैं चन्द्रवृषभ तक प्रतीक्षा कर लूंगा।’ प्रतनु ने किलात को नतजानु हो प्रणाम किया और महालय से बाहर हो गया।
[1] एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु प्राप्त करना अथवा देना।
[2] बुरा समझौता, षड़यंत्र, कुचक्र।