Sunday, September 8, 2024
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40. मेलुह्ह

  – ‘वह जो भित्ती दिखायी दे रही है, वही मेलुह्ह पुर की प्राचीर है। लगभग एक प्रहर में हम वहाँ होंगे। हमारे स्पश आज प्रातः ही वहाँ पहुँच गये थे। किसी भी क्षण वे हमें लौटते हुए मिलेंगे।’ सेनप सुनील ने अपना अश्व आर्य सुरथ के अश्व के बराबर लाते हुए कहा। लगभग पूरे एक पक्ष तक प्लावन से घिरे रहने के पश्चात् आज ही चतरंगिणी मेलुह्ह के लिये प्रस्थान कर पायी थी।

  – ‘आपको उस सैंधव शिल्पी का स्मरण है आर्य ?’ राजन् सुरथ ने अपने अश्व की गति कम कर ली ताकि वार्तालाप में सुगमता रहे।

  – ‘कौन, वह जो निर्वस्त्र अवस्था में मिला था! ‘

  – ‘हाँ, वही। वह मेलुह्ह का ही रहने वाला तो था। आपको क्या लगता है, क्या उसने पुजारी से प्रतिशोध ले लिया होगा ?’

  – ‘यह तो वहाँ पहुँच कर ही ज्ञात……….।’

सेनप सुनील की बात अधूरी रह गयी। अचानक पश्चिम दिशा से शलभों [1] का विशाल समूह उड़ता हुआ ठीक उनके ऊपर आ गया। कोटि-कोटि शलभ। कहाँ से आये होंगे इतने सारे शलभ एक साथ!

  – ‘बचिये राजन् इन विकराल शलभों से बचिये।’ सेनप सुनील अश्व से नीचे कूद गये। उन्होंने राजन् सुरथ के चारों ओर भुजाओं का घेरा बना लिया। भुजाओं का यह क्षीण वलय किसी भी अर्थ में राजन् की सुरक्षा करने में समर्थ नहीं था। फिर भी इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था। शलभों ने आकाश को पूरी तरह आच्छादित कर लिया जिससे चारों ओर अंधकार छा गया। राजन् सुरथ भी अश्व त्याग कर धरित्री पर आ गये।

  – ‘ऐसे नहीं आर्य। ऐसे रक्षा नहीं होगी। अपना उत्तरीय उतार कर उससे शरीर ढकिये और धरित्री पर बैठ जाइये।’ राजन् ने सेनप सुनील को आदेश दिया। 

कुछ ही समय में उन्हें ज्ञात हो गया कि ये शलभ उन्हें हानि पहुँचाये बिना आगे बढ़ रहे हैं। जब पूरा समूह उनके सिर के ऊपर से होता हुआ पूर्व की ओर चला गया तो पुनः प्रकाश हुआ। राजन् सुरथ के मस्तक पर चिंता की रेखायें थीं। ये शलभ तो जहाँ भी जायेंगे उस क्षेत्र की वनस्पति को नष्ट कर देंगे। उस क्षेत्र की प्रजा का जीवन संकट में पड़ जायेगा। चिंतित राजन् पुनः अश्व पर आरूढ़ होकर कुछ दूर ही चले होंगे कि सामने से एक स्पश आता हुआ दिखायी दिया। उसने अश्व से नीचे उतर कर राजन् का अभिवादन किया।

  – ‘क्या समाचार हैं आर्य ?’ राजन् ने स्पश के अभिवान का उत्तर देकर पूछा।

  – ‘बड़ी असमंजस की स्थिति है राजन्।’

  – ‘असमंजस! कैसा असमंजस! स्पष्ट कहो आर्य।’

  – ‘सम्पूर्ण पुर रिक्त है। कहीं कोई प्राणी नहीं है। श्वान और विडाल [2] भी दिखायी नहीं देते। गृद्धों [3] और शृगालों [4] के समूह मांस के लोथ खींच-खींच कर खा रहे हैं।’

  – ‘क्या किसी सैन्य ने आक्रमण किया था पुर पर ?’

  – ‘सैन्य आक्रमण के चिह्न दिखायी नहीं देते। फिर भी एक भी अक्षत शव देखने को नहीं मिला। गृद्धों ने सभी शवों को पूरी तरह चीर-फाड़ दिया है।’

  – ‘किंतु पुर के श्वान, मार्जार [5] और अन्य पशु। वे कैसे मारे गये होंगे ?’

  – ‘सम्पूर्ण पुर प्लावन में बह गया लगता है। भवनों में गीली रेत तथा शैवाल [6] जमा है और उनमें मज्जूक [7] तथा चिच्चिक [8] बोल रहे हैं। अधिक संभावना तो यही है कि पुरवासी प्लावन में डूब जाने से मरे होंगे।’

  – ‘निःसंदेह यही हुआ होगा।’ आर्य सुरथ ने शोक से सिर हिलाया।

  – ‘इसका अर्थ है कि अब आगे बढ़ने का कोई लाभ नहीं है!’ सेनप सुनील ने पूछा।

  – ‘हाँ आर्य। यहाँ से आगे जाना निरर्थक है।’ स्पश ने उत्तर दिया।

  – ‘नहीं-नहीं हम वहाँ अवश्य जायेंगे। आप ऐस करें आर्य। चतुरंगिणी को यहीं से लौट जाने के आदेश दें। हम पुर तक होकर आते हैं।’ राजन् सुरथ ने अपने अश्व को आगे बढ़ाते हुए कहा।

चैंक पड़े सेनप सुनील और स्पश दोनों ही। राजन् सुरथ का स्वर अचानक ही विकृत हो आया था। क्या हुआ राजन् को! लगता है उन्हें सैंधव पुर के नष्ट हो जाने की सूचना पाकर व्यथा हुई है! सेनप सुनील ने अपना अश्व राजन् के पीछे लगा दिया। स्पश चतुरंगिणी को रोकने का कार्य उन्होंने स्पश पर छोड़ दिया।

राजन् सुरथ ने अपने अश्व की गति असाधारण रूप से तीव्र कर ली। कुछ ही देर में वे मेलुह्ह के मुख्य द्वार पर थे। पुर में प्रवेश करते ही उनका सामना गृद्धों तथा शृगालों के समूह और शवों की दुर्गंध से हुआ। चारों ओर मृत्यु के चिह्न दिखायी देते थे। ऐसा लगता था जैसे कोई नदी नहीं अपितु हस्तियों का विशाल समूह पुर को रौंद कर निकल गया है।

क्या हुआ होगा शिल्पी और उसकी नृत्यांगना का! क्या वे दोनों भी प्लावन में बह गये होंगे! कहाँ गया होगा उनका स्वामी किलात! राजन् सुरथ ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते थे, त्यों-त्यों उनकी उत्तेजना बढ़ती जाती थी। अचानक उनके अश्व ने ठोकर खायी। राजन् सुरथ ने झुक कर देखा पंक [9] से सनी हुई एक प्रस्तर प्रतिमा अश्व के पैरों में पड़ी है। वे अश्व की पीठ त्याग कर नीचे उतर आये और प्रतिमा को सीधे खड़ा किया। संभवतः किसी नृत्यांगना की प्रतिमा है।

पंक से सनी हुई यह प्रतिमा राजन् सुरथ को विलक्षण सी लगी। उन्होंने पास के खड्ड में एकत्र जल से प्रतिमा को धोया। पंक का आवरण हटते ही एक अत्यंत भव्य और सुंदर शिल्प निकल आया। इतनी सुंदर प्रतिमा! किस की हो सकती है यह! कहीं यह वही प्रतिमा तो नहीं जिसका उल्लेख शिल्पी प्रतनु ने किया था। लगती तो वही है, यह नृत्यरत प्रतीत होती है किंतु ……….किंतु यह प्रतिमा खण्डित क्यों हैं ? एक प्रश्न प्लावन के जल की भांति उनके मस्त्ष्कि में वलय बनाता हुआ तेजी से घूमने लगा।


[1] टिड्डी।

[2] बिल्ली।

[3] गीध।

[4] गीदड़।

[5] बिल्ली।

[6] काई।

[7] मेंढक।

[8] सूक्ष्म जंतु जो ची-ची की ध्वनि करता है।

[9] कीचड़।

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