17 मार्च 1527 को बाबर तथा सांगा की सेनाएं खानवा के मैदान में लगभग एक पहर तथा दो घड़ी दिन व्यतीत हो जाने पर एक दूसरे के बिल्कुल निकट आ गईं। आधुनिक शब्दावली में इसे लगभग प्रातः साढ़े नौ बजे का समय कह सकते हैं। अब किसी भी समय युद्ध आरम्भ हो सकता था।
इस युद्ध का इतिहास लिखने वाले समस्त लेखकों ने लिखा है कि युद्ध का आरम्भ राजपूतों ने किया। कुछ ख्यातों के अनुसार हिन्दुओं की ओर से युद्ध का पहला डंका मेड़ता के राजा वीरमदेव ने बजाया जो भगवान श्रीकृष्ण की भक्त मीरांबाई का ताऊ था।
राजपूतों ने बाबर की सेना के दाहिने पक्ष पर धावा बोलकर उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। इस पर बाबर ने राजपूतों के बायें पक्ष पर अपने चुने हुए सैनिकों को लगा दिया। इससे युद्ध ने विकराल रूप ले लिया। थोड़ी ही देर में राजपूतों की सेना में घुसने के लिये वामपक्ष तथा मध्यभाग का मार्ग खुल गया।
मुस्तफा रूमी ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए अपने तोपखाने को आगे बढ़ाया और राजपूत सेना पर गोलों तथा जलते हुए बारूद की वर्षा आरम्भ कर दी। मुगलों के बायें पक्ष पर भी भयानक युद्ध हो रहा था। इसी समय तूलगमा सेना ने हिन्दुओं पर पीछे से आक्रमण किया। देखते ही देखते हिन्दू सेना चारों ओर से घेर ली गई। हिन्दुओं के लिये तोपों की मार के समक्ष ठहरना असम्भव हो गया। वे तेजी से घटने लगे।
बाबर ने लिखा है कि काफिरों की सेना के बाएं बाजू ने इस्लामी सेना के दाएं बाजू पर निरंतर कड़े आक्रमण किए। वे गाजियों पर टूट-टूट पड़ते थे किंतु हर बार धकेल दिए जाते थे या विजय की तलवार द्वारा दोजख में जहाँ वे जलने के लिए फैंक दिए जाएंगे और जहाँ वे कष्ट में जीवन व्यतीत किया करेंगे, भेज दिए जाते थे। प्रत्येक जिहादी अपना उत्साह प्रदर्शित करने के लिए उद्यत था।
शेख जैनी ने लिखा है- ‘जब कुछ देर युद्ध होता रहा तो यह आदेश दिया गया कि शाही सेना के विशेष दस्ते जिनमें बड़े-बड़े योद्धा तथा निष्ठा के जंगल के सिंह थे और जो गाड़ियों के पीछे बंधे हुए सिंहों की भांति खड़े थे, केन्द्र की दाईं एवं बाईं ओर से निकलकर तुफंगचियों अर्थात् बंदूकचियों को बीच में छोड़कर दोनों ओर से युद्ध आरम्भ कर दें।’
वस्तुतः शेख जैनी ने जिन्हें विशेष शाही दस्ते लिखा है, वे तूलगमा की टुकड़ियां थीं जिन्हें युद्ध के बीच में अपनी सेना से अलग होकर शत्रु के पार्श्वों एवं पीछे के भाग पर धावा बोलने के लिए प्रशिक्षित किया गया था। शेख जैनी ने लिखा है- ‘जिस प्रकार उषा क्षितिज की दरार से निकलती है उसी प्रकार शाही सैनिक गाड़ियों के पीछे से निकले। उन्होंने उन अभागे काफिरों के रक्त को रणक्षेत्र में जो आकाश के समान था, बहा दिया और विद्रोहियों के सिरों को सितारों के अस्तित्व के समान मिटा दिया।’
जैनी ने लिखा है- ‘अली कुली ने जो अपने सैनिकों सहित केन्द्र में था, अत्यधिक पौरुष का प्रदर्शन किया। उसने लोहे के वस्त्र वाले काफिरों के शरीरों पर इतने बड़े-बड़े पत्थर फैंके जो उस तराजू पर रखने योग्य हैं जिन पर लोगों के कर्म तोले जाएंगे। जर्जबन एवं तुफंग अर्थात् बंदूक चलाने वालों ने भी गाड़ियों के पीछे से निकल कर काफिरों को मृत्यु का विष चखा दिया। पैदल सैनिकों ने भी एक बड़े ही खतरनाक स्थान से शत्रुदल में प्रविष्ट होकर स्वयं को सिंह सिद्ध किया। कुछ तोपें सेना के केन्द्र में भी रखी गई थीं, बादशाह उन्हें अपने साथ लेकर स्वयं शत्रु की सेना की ओर अग्रसर हुआ।’
शेख जैनी ने लिखा है- ‘जिस समय गाजी, काफिरों के सिर काट रहे थे, उस समय आकाशवाणी हुई कि यदि तुम विश्वास रखते हो तो तुम्हें अविश्वासियों पर विजय प्राप्त होगी। अल्लाह की ओर से सहायता एवं तत्काल विजय है, तुम यह सुखद समाचार मोमिनों के पास ले जाओ। इस आकाशवाणी को सुनकर गाजियों ने इतना जी लगाकर युद्ध किया कि फरिश्ते उनको शाबासी देने लगे तथा पतंगों के समान गाजियों के सिरों के चारों ओर चक्कर काटने लगे।’
इसी बीच राणा सांगा किसी हथियार की चपेट में आ जाने से बेहोश हो गया। इस पर मेड़ता का राजा वीरमदेव राठौड़ महाराणा सांगा को युद्ध भूमि में से निकाल ले गया। इस प्रयास में राजा वीरमदेव स्वयं बुरी तरह घायल हुआ और उसके दोनों भाई रायमल मेड़तिया एवं रतनसिंह मेड़तिया युद्ध-क्षेत्र में ही वीरगति को प्राप्त हुए।
पाठकों की सुविधा के लिए बताना समीचीन होगा कि राणा सांगा की एक रानी जोधपुर की राजकुमारी थी तथा जोधपुर के शासक राव गांगा की बहिन थी। राव गांगा किसी कारण से इस युद्ध में स्वयं नहीं जा सका था। इसलिए गांगा ने मेड़ता के राजा वीरमदेव को चार हजार सैनिक देकर सांगा की तरफ से लड़ने के लिए भेजा था जो कि गांगा के ही कुल का राजकुमार था।
कुछ ख्यातों में लिखा है कि खानवा के युद्ध-क्षेत्र में नगाड़े की पहली चोट वीरमदेव मेड़तिया ने ही की थी। वीरमदेव का छोटा भाई रतनसिंह विख्यात कृष्ण-भक्त मीराबाई का पिता था जो इस युद्ध में काम आया। मीराबाई का विवाह राणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज से हुआ था। भोजराज भी एक युद्ध में शत्रुओं से लड़ते हुए काम आया था।
जब राणा को युद्ध-क्षेत्र से बाहर ले जाया जाने लगा तो मेवाड़ी सरदारों ने सलूम्बर के रावत रत्नसिंह से अनुरोध किया कि वह राज्यचिह्न धारण करके हाथी पर सवार हो जाए ताकि राणा के पक्ष के सैनिक उस हाथी को देखकर युद्ध करते रहें। रावत रत्नसिंह महाराणा के ही कुल का राजा था।
रावत रत्नसिंह ने सरदारों का यह प्रस्ताव यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि- ‘मेरे पूर्वज मेवाड़ छोड़ चुके हैं, इसलिए मैं एक क्षण के लिए भी राज्यचिह्न धारण नहीं कर सकता किंतु तुम में से जो कोई भी मेवाड़ के राज्यचिह्न धारण करेगा मैं उसके लिए प्राण रहने तक शत्रु से लड़ूंगा।’
इस पर मेवाड़ के सरदारों ने हलवद के राजा झाला अज्जा को समस्त राज्य चिह्नों के साथ महाराणा के हाथी पर सवार कर दिया। हलवद गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में स्थित था। समस्त हिन्दू सेना झाला अज्जा को ही महाराणा समझकर युद्ध करती रही। थोड़ी देर के लिए राजपूतों के दल में खलबली मची किंतु अंत में वे बाबर की सेना को चीरते हुए बाबर के निकट पहुंच गए।
इसी समय राजपूतों पर तोपों से गोले बरसाए गए और राजपूतों को एक बार फिर पीछे हट जाना पड़ा। यह एक विचित्र लड़ाई थी। बंदूक से तीर लड़ रहे थे और तोपों से तलवारें लड़ रही थीं। यह मुकाबला किसी भी तरह बराबरी का नहीं था।
डूंगरपुर का राजा उदयसिंह, अंतरवेद के माणिकचंद चौहान और चंद्रभाण चौहान, रत्नसिंह चूण्डावत, झाला अज्जा, रामदास सोनगरा, परमार गोकलदास और खेतसी आदि अनेक हिन्दू राजा इस युद्ध में काम आये। इस प्रकार राजपूताना के अनेक राजाओं तथा उनकी सेनाओं ने इस युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी। हिन्दुओं की हार हुई तथा मुगलों ने डेरों तक उनका पीछा किया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता