शिवाजी का पुत्र सम्भाजी, लम्बे समय तक शहजादे मुअज्जम के सम्पर्क में रहने के कारण कुव्यसनों का शिकार हो गया था। एक बार एक सुंदर ब्राह्मण स्त्री किसी धार्मिक आयोजन में भाग लेने के लिए शिवाजी के राजमहल में आई। सम्भाजी ने बलपूर्वक उसका शील भंग किया। सम्भाजी का दुराचरण किसी भी प्रकार सह्य नहीं था।
जब शिवाजी को सम्भाजी का दुराचरण ज्ञात हुआ तो उसने सम्भाजी को बंदी बनाकर पन्हाला दुर्ग में पटक दिया। शिवाजी बहुत दिनों से अपने राज्य का बंटावारा करने की सोच रहा था। वह चाहता था कि कनार्टक का हिस्सा सम्भाजी को तथा महाराष्ट्र का हिस्सा अवयस्क राजाराम को दिया जाए किंतु इसी बीच सम्भाजी ने यह कुकृत्य कर दिया।
इसलिए शिवाजी ने यह योजना स्थगित कर दी। जब दिलेर खाँ को ज्ञात हुआ कि शिवाजी ने सम्भाजी को पन्हाला दुर्ग में बंदी बनाकर रखा है तो दिलेर खाँ ने पत्रों के माध्यम से सम्भाजी से सम्पर्क किया। 13 दिसम्बर 1678 को रात के समय सम्भाजी ने अपनी पत्नी येसुबाई को पुरुषों के वस्त्र धारण करवाए तथा दोनों व्यक्ति अंधेरे का लाभ उठाकर दुर्ग से भाग निकले।
जब दिलेर खाँ को इसकी सूचना मिली तो वह सम्भाजी की अगवानी करके अपने शिविर में ले गया। उसने औरंगजेब को पूरी घटना की जानकारी लिख भेजी तथा अनुशंसा की कि सम्भाजी को 7000 के मनसब पर मुगलों की सेवा में रखा जाए। बादशाह, दिलेरखाँ की इस सफलता से बहुत प्रसन्न हुआ किंतु उसे यह शंका भी हुई कि कहीं यह शिवाजी की कोई चाल न हो!
जब शिवाजी को सम्भाजी के पलायन की जानकारी मिली तो उन्होंने अपने आदमी सम्भाजी को ढूंढने भेजे किंतु दिलेर खाँ ने सम्भाजी के आगमन की सूचना इतनी गुप्त रखी कि शिवाजी के आदमी सम्भाजी का कोई समाचार प्राप्त नहीं कर सके। सम्भाजी को ढूंढने के लिए गुप्तचरों को काम पर लगाया गया।
कुछ ही दिनों में शिवाजी को सम्भाजी के दिलेर खाँ के शिविर में होने की सूचना मिल गई। शिवाजी ने सम्भाजी को प्राप्त करने के लिए अपनी दो सैनिक टुकड़ियों के साथ मुगल शिविर पर आक्रमण किया। इन दोनों टुकड़ियों ने, दिलेर खाँ की सेना के पृष्ठ भाग को बिखरने के लिए दो तरफ से एक साथ आक्रमण किया।
इनमें से एक सेना का नेतृत्व शिवाजी स्वयं कर रहा था तथा दूसरा दल आनंदजी मकाजी कर रहा था। इस अभियान में शिवाजी को सफलता नहीं मिली।
कुछ समय पश्चात् दिलेर खाँ ने बीजापुर पर अभियान किया। सम्भाजी भी इस अभियान में दिलेर खाँ के साथ रहा। मार्ग में भूपालगढ़ का दुर्ग आया जहाँ शिवाजी ने अपना बहुत सा कोष संचित कर रखा था। शिवाजी द्वारा नियुक्त फिरंगोजी नरसाल नामक दुर्गपति इस दुर्ग की रक्षा करता था।
सम्भाजी ने दिलेर खाँ को बता दिया कि इस दुर्ग में शिवाजी का बहुत बड़ा खजाना रखा हुआ है। दिलेर खाँ ने दुर्ग पर धावा बोल दिया। फिरंगोजी नरसाल चिंता में पड़ गया। क्योंकि यदि वह दुर्ग पर घेरा डालकर बैठी मुगल सेना पर तोपों से गोले छोड़ता तो सम्भाजी के भी मारे जाने का खतरा था।
इसलिए फिरंगोजी नरसाल दुर्ग छोड़कर अलग हो गया और 23 अप्रेल 1679 को दिलेर खाँ ने सरलता से भूपालगढ़ पर अधिकार कर लिया। दिलेर खाँ ने दुर्ग में स्थित समस्त लोगों की हत्या करवाई तथा राज्यकोष को लूट लिया।
जब शिवाजी को भूपालगढ़ के समाचार मिले तो उसने फिरंगोजी नरसाल में कसकर फटकार लगाई कि उसने सम्भाजी जैसे पापी को गोली क्यों नहीं मार दी! जीत के मद से भरा हुआ दिलेर खाँ अब सिद्दी मसूद के इलाके में पहुंचा। सिद्दी मसूद को ज्ञात था कि वह दिलेर खाँ की शक्ति के आगे तिनके जैसी बिसात भी नहीं रखता।
इसलिए उसने शिवाजी को भावुक पत्र लिखकर अपनी रक्षा की गुहार लगाई। शिवाजी ने पत्र के मिलते ही अपने दो सैन्य-दल दिलेर खाँ से लड़ने के लिए रवाना किए। शिवाजी के सैनिकों ने दिलेर खाँ में कसकर मार लगाई जिससे तिलमिला कर दिलेर खाँ वहाँ से घेरा उठाकर वापस लौट लिया।
मार्ग में उसने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार करने की योजना बनाई। दिलेर खाँ की सेना जिस गांव से गुजरती उसे लूटती तथा पूरी तरह बर्बाद कर देती। बहुत से साहूकार अपने धन तथा परिवारों को लेकर तिकोटा में जा छिपे किंतु दिलेर खाँ ने उन्हें ढूंढ लिया और पकड़ कर भयानक यातनाएं दीं।
बहुत से स्त्री-पुरुषों ने इन यातनाओं से बचने के लिए कुओं तथा बावड़ियों में छलांग लगा दी। दिलेर खाँ की सेना ने कई हजार स्त्री-पुरुष बंदी बना लिए तथा उनसे मुक्ति धन की मांग की।
सम्भाजी, दिलेर खाँ की सेना को यह सब करते हुए देखता था तो उसकी आत्मा चीत्कार करने लगती थी। यह उसके पिता की प्रजा थी जो सम्भाजी की आंखों के सामने लुट-पिट और मर रही थी। दिलेर खाँ को सूचना मिली कि अठनी गांव में काफी धन मिलने की संभावना है।
इसलिए दिलेर खाँ ने अपनी सेना को अठनी गांव पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। इस गांव में दिलेर खाँ की सेना ने हिन्दू प्रजा पर अमानुषिक अत्याचार किए जिन्हें देखकर सम्भाजी पूरी तरह टूट गया।
अठनी गांव के हिन्दुओं ने सम्भाजी के पैरों में गिरकर उससे प्रार्थना की कि वह हिन्दुओं को दिलेर खाँ के क्रूर अत्याचारों से बचाए। सम्भाजी ने दिलेर खाँ से अनुरोध किया वह प्रजा पर अत्याचार नहीं करे किंतु दिलेर खाँ ने सम्भाजी का अनुरोध ठुकरा दिया।
जब शिवाजी ने देखा कि दिलेर खाँ हिन्दू प्रजा पर अत्याचार कर रहा है तो शिवाजी ने भी औरंगाबाद के निकट जलनापुर पर भीषण आक्रमण किया। यह नगर मुगलों के अधिकार में था तथा यहाँ बहुत से धनी व्यापारी रहा करते थे। शिवाजी ने नियम बना रखा था कि वे जनता पर अत्याचार नहीं करते थे तथा सामान्य जन को नहीं लूटते थे किंतु इस बार शिवाजी ने इस नियम को तोड़ा ताकि दिलेर खाँ को हिन्दू प्रजा पर अत्याचार करने से रोका जा सके।
कुछ मुस्लिम व्यापारी बहुत सारा धन लेकर एक दरगाह में घुस गए। उन्हें ज्ञात था कि शिवाजी धार्मिक स्थानों पर आक्रमण नहीं करता किंतु इस बार शिवाजी के सैनिक भी दरगाह में घुस गए और उन्होंने उन मुसलमान व्यापारियों को पकड़ लिया।
वहाँ सैयद जान मुहम्मद नामक मौलवी रहता था, उसने शिवाजी से मना किया कि वह धार्मिक स्थल में ऐसा नहीं करे किंतु शिवाजी के सैनिकों ने मौलवी का भी अपमान किया।
जलनापुर से शिवाजी को बहुत सा सोना-चांदी हीरे-जवाहरात, आभूषण आदि मिले। बड़ी संख्या में हाथी, घोड़े, ऊंट भी शिवाजी की सेना के हाथ लगे जिन्हें लेकर यह सेना लौटने लगी किंतु एक मुगल सेनापति रनमस्त खाँ ने एक विशाल सेना लेकर शिवाजी की सेना पर पीछे से आक्रमण किया।
उसने औरंगाबाद में पड़ी विशाल मुगल सेना को भी बुलावा भेजा। उसकी योजना शिवाजी की सेना पर चारों ओर से घेरा डालने की थी। ताकि इस मैदानी लड़ाई में शिवाजी को घेरकर मारा जा सके। मुगलों की सेना में कार्यरत केशरीसिंह नामक एक हिन्दू सैनिक ने शिवाजी को गुप्त संदेश भेजा कि वे यहीं पर घेर लिए जाने वाले हैं। अतः यहाँ रुकें नहीं, जितनी जल्दी हो सकें निकल जाएं, औरंगाबाद से और मुगल सेना आ रही है।
विशाल मुगल सेना से मैदानी युद्ध में पार पाना, शिवाजी के लिए संभव नहीं था। इस शिवाजी के साथ बहुत कम सैनिक थे। इसलिए शिवाजी ने निम्बालकर को आदेश दिया कि वह 5 हजार सैनिकों के साथ मुगलों का रास्ता रोके, मैं शेष सेना के साथ आगे बढ़ता हूँ। निम्बालकर मोर्चा बांधकर बैठ गया और शिवाजी स्थानीय लोगों की सहायता से एक गुप्त पहाड़ी मार्ग से शेष सेना को लेकर रातों रात वहाँ से निकल गया। वह तीन दिन तथा तीन रात तक लगातार चलता रहा। लूट का सारा सामान भी मार्ग में छोड़ देना पड़ा।
शिवाजी, सम्भाजी को दिलेर खाँ के चंगुल से निकालने के लिए लगातार प्रयासरत था। उसने औरंगजेब को सूचित किया कि दिलेर खाँ तथा सम्भाजी बीजापुर से हारकर भाग गए हैं। औरंगजेब यह सूचना पाते ही आग-बबूला हो गया और उसने दिलेर खाँ को संदेश भेजा कि सम्भाजी को बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया जाए।
उसने दिलेर खाँ को भी दक्षिण से हटा दिया तथा उसके स्थान पर पुनः बहादुर खाँ को नियुक्त कर दिया। औरंगजेब के आदेशों को सुनते ही सम्भाजी भारी संकट में पड़ गया। उसने महादजी निम्बालकर नामक एक मराठा सरदार से बात की। महादजी सम्भाजी का रिश्तेदार था तथा इस समय दिलेर खाँ के यहाँ नौकरी कर रहा था।
उसने सम्भाजी को चेताया कि औरंगजेब हर हाल में सम्भाजी की हत्या करवाएगा। सम्भाजी का दुराचरण इतना गंभीर था कि स्वयं संभाजी को लगता था कि शिवाजी उसकी हत्या करवा सकते हैं। एक रात को सम्भाजी ने अपनी पत्नी को पुरुषों के कपड़े धारण करने के लिए कहा और दोनों अवसर पाकर अठनी गांव के मुगल शिविर से भाग निकले।
सम्भाजी तथा उसकी पत्नी येसुबाई, छत्रपति शिवाजी के पास न जाकर शिवाजी के मित्र सिद्दी मसूद के पास गए तथा उससे सहायता करने हेतु प्रार्थना की। सिद्दी मसूद ने सम्भाजी तथा उसकी स्त्री को शरण दी तथा शिवाजी को सूचना भिजवाई। जब दिलेर खाँ को यह सूचना मिली तो उसने सिद्दी मसूद को एक मोटी रिश्वत का लालच दिया तथा उसके बदले में सम्भाजी तथा उसकी स्त्री को सौंपने के लिए कहा।
सम्भाजी को इस बात का पता चल गया। अब यहाँ भी उसके प्राण संकट में थे। इसलिए 20 नवम्बर 1679 की अर्द्धरात्रि में सम्भाजी अपनी पत्नी के साथ एक बार पुनः भाग लिया। मार्ग में इस दम्पत्ति की भेंट शिवाजी के एक सैन्य दल से हुई। यह दल सम्भाजी को ही ढूंढता फिर रहा था।
सम्भाजी ने इन सैनिकों के समक्ष समर्पण कर दिया तथा यह दल 14 दिसम्बर को सम्भाजी तथा उसकी पत्नी को लेकर पन्हाला दुर्ग पहुंचा। शिवाजी के आदेशानुसार सम्भाजी को पुनः बंदी अवस्था में रखा गया।
पन्हाला दुर्ग से निकलने के बाद सम्भाजी लगभग एक वर्ष तक मुगल शिविर में रहा था किंतु भाग्य की ठोकरें खाता हुआ वह पुनः इसी दुर्ग में बंदी बना लिया गया था। इस बार शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग की सुरक्षा के विशेष प्रबन्ध किए ताकि दिलेर खाँ, सम्भाजी को लेकर न भाग जाए। सम्भाजी का दुराचरण उसे अपने पिता की नजरों में इतना अधिक गिरा चुका था कि संभाजी अपने पिता से क्षमायाचना करने के योग्य भी नहीं रह गया था।
इसी बीच शिवाजी को रघुनाथ पण्डित के माध्यम से सूचना मिली कि व्यंकोजी राजकाज से उदासीन हो गया है, वह एकांत में बैठकर समय व्यतीत करता है तथा उसकी इच्छा सन्यास धारण करने की है। भाई की ऐसी स्थिति जानकर शिवाजी को दुःख हुआ।
उसने व्यंकोजी को कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होने के लिए मार्मिक पत्र लिखा और समझाया कि हमारे पिता का आदर्श, कर्म करते रहने का था। तुम्हें एकांत में बैठकर दिन नहीं निकालना चाहिए अपितु विपत्तियों का सामना करते हुए कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होना चाहिए।
क्या तुम यह देखना चाहोगे कि शत्रु तुम्हारी सेनाओं को पछाड़ दें, तुम्हारी सम्पत्ति छीन लें और तुम्हारे शरीर को भी क्षति पहुंचाए! मैं तुमसे बड़ा हूँ, मैं हर तरह से तुम्हारी रक्षा करूंगा। तुम्हें मुझसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। रघुनाथ पण्डित योग्य व्यक्ति है, उसके परामर्श करके निर्णय लो।
यदि तुम्हें यश और कीर्ति मिली तो मुझे बहुुत प्रसन्नता होगी। स्वयं को संभालो। यह शिवाजी की तरफ से व्यंकोजी को अंतिम पत्र सिद्ध हुआ क्योंकि शिवाजी को फिर कभी व्यंकोजी के समाचार जानने और सलाह देने का अवसर नहीं मिला।