सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार करने के बाद ई. 1591 में अकबर ने दक्षिण भारत के अहमदनगर, खानदेश, बीजापुर, बरार और गोलकुण्डा राज्यों पर अधिकार करने की नीयत से अपने दूत इन राज्यों को भिजवाये और उनसे राजस्व की मांग की। इस पर खानदेश के सुल्तान राजा अलीखाँ ने तो अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली किंतु शेष राज्यों ने अकबर को इन्कार भिजवा दिया।
इस पर ई. 1593 में अकबर ने शहजादा दानियाल को दक्षिण भारत के राज्यों पर विजय प्राप्त करने तथा उन्हें अपने साम्राज्य में शामिल करने के लिये भेजा। शहजादे की सेवा में खानखाना को नियुक्त किया गया। बादशाह ने दानियाल से पहले शहजादा मुराद को भी इसी काम के लिये भेज रखा था। यह निश्चित था कि दोनांे शहजादे दक्षिण में पहुँच कर शत्रु से लड़ने के बजाय आपस में लड़ेंगे।
बादशाह को अपनी भूल का शीघ्र ही अनुमान हो गया। उसने दानियाल को वापस बुला लिया और शहजादा मुराद इसी काम पर बना रहा। मुराद एक नम्बर का धोखेबाज, घमण्डी, स्वार्थी तथा अविश्वसनीय आदमी था। उसका नाम भले ही मुराद था किंतु वास्तव में तो वह पूरा नामुराद था। वह किसी से भी सीधे मुँह बात नहीं करता था। दूसरी ओर खानखाना स्वतंत्र प्रवृत्ति का और अपने निर्णय स्वयं लेने वाला आदमी था। इस प्रकार दो विपरीत प्रवृत्तियों के स्वामी एक साथ रख दिये गये। यदि मुराद बेर की झाड़ी था तो खानखाना केले का वृक्ष।
दिल्ली से आगरा पहुँचने पर खानखाना को परिवर्तन की जानकारी मिली। इस विपरीत नियुक्ति से खानखाना ने जान लिया कि चाहे जो हो, बेर की कंटीली झाड़ी केले के हरे भरे पेड़ को विक्षत करके रहेगी किंतु नियुक्ति की अदला बदली बीच मार्ग में और परिस्थितियों के वश हुई थी इसलिये खानखाना बादशाह से कुछ न कह सका और आगरा से अपनी सेना लेकर भेलसा होता हुआ उज्जैन पहुँचा। उधर मुराद गुजरात में खानखाना का रास्ता देख रहा था। जब उसने सुना कि खानखाना मालवा चला गया है तो वह बहुत आग बबूला हुआ। उसने खानखाना को चिट्ठी भिजवाई और ऐसा करने का कारण पूछा।
खानखाना ने जवाब भिजवाया कि खान देश का सुल्तान राजा अलीखाँ भी बादशाही फौज के साथ हो जायेगा। मैं उसको लेकर आता हूँ तब तक आप गुजरात में शिकार खेलें। शहजादा इस जवाब को सुनकर और भी भड़का और अकेला ही गुजरात से दक्षिण को चल दिया। खानखाना यह समाचार पाकर अपना तोपखाना, फीलखाना[1] और लाव-लश्कर उज्जैन में ही छोड़कर शहजादे के पीछे भागा।
अहमदनगर से तीस कोस उत्तर में चाँदोर के पास खानखाना शहजादे की सेवा में प्रस्तुत हुआ किंतु शहजादे ने खानखाना से मुलाकात करने से इन्कार कर दिया। खानखाना दो दिन तक मुराद के आदमियों से माथा खपाता रहा। अंत में मुराद ने खानखाना को अपने पास बुलाया और बड़ी बेरुखी से पेश आया। सलाम भी ढंग से नहीं लिया।
इस पर खानखाना और उसके आदमियों ने लड़ाई से हाथ खींच लिया। मुराद इतने नीच स्वभाव का आदमी था कि शहबाजखाँ कंबो और सादिक खाँ आदि अन्य मुगल सेनापति भी मुराद से हाथ खींच बैठे।
जब मुराद और खानखाना की सम्मिलित सेनाओं ने अहमदनगर से आधा कोस पहले पड़ाव डाला तो बहुत से स्थानीय जमींदार, व्यापारी और सेनापति आदि शहजादे और खानखाना से रक्षापत्र लेने के लिये आये। शहजादे और खानखाना ने अहमदनगर के प्रमुख लोगों को अभय दे दिया और कहा कि यदि चाँद बीबी लड़ने के लिये नहीं आयेगी तो नगर पर हमला नहीं किया जायेगा। मुगल सिपाहियों को शहर में लूट मचाने की मनाही कर दी गयी।
इधर तो शहजादा मुराद और खानखाना अदमदनगर को अभय प्रदान कर रहे थे और उधर दुष्ट शहबाजखाँ कंबो बिना शहजादे से अनुमति लिये चुपके से अहमदनगर के भीतर प्रविष्ट हो गया। उसके अनुशासन हीन और लालची सिपाहियों ने शहर में लूटपाट आरंभ कर दी।
जब खानखाना को यह समाचार ज्ञात हुआ तो वह किसी तरह शहर में प्रविष्टि हुआ और अपार परिश्रम करके मुगलिया सिपाहियों को लूटपाट करने से रोक कर बाहर लाया किंतु तब तक शहर में काफी नुक्सान हो चुका था। इससे शहरवालों का विश्वास मुगल सेनापतियों पर से हट गया और चाँदबीबी ने अहमदनगर के दरवाजे बंद करके मुगलों का सामना करने का निर्णय लिया।
दूसरे दिन मुराद ने अहमद नगर को घेर लिया। चाँद बीबी की ओर से शाहअली तथा अभंगरखाँ मोर्चे पर आये किंतु लड़ाई में हार कर पीछे हट गये। मुगलों की फूट अब खुलकर सामने आ गयी। जब चाँदबीबी के सिपाही हार कर भाग रहे थे तो मुगल सेनापति एक दूसरे से यह कह कर लड़ने लगे कि तू उनके पीछे जा – तू उनके पीछे जा किंतु कोई नहीं गया और चाँद बीबी के आदमी फिर से किले में सुरक्षित पहुँच गये।
अगले दिन मुगल सेनापतियों ने विचार किया कि यहाँ मुगलों की तीन बड़ी फौजें हैं- पहली मुराद की, दूसरी शहबाजखाँ कंबो की और तीसरी खानखाना की। इन तीनों में से एक किले पर घेरा डाले, दूसरी किले पर हमला करे तथा तीसरी सेना रास्तों को रोके किंतु यह योजना कार्यरूप नहीं ले सकी। मुराद युद्ध की योजना इस तरह से बनाता था कि विजय का श्रेय किसी भी तरह से खानखाना अथवा शहबाजखाँ कंबो न ले सके। इन योजनाओं को सुनकर खानखाना तो चुप हो जाता था और शहबाजखाँ उन योजनाओं का विरोध करने लगता था। इससे एक भी योजना कार्यरूप नहीं ले सकी।
मुराद के आदमियों ने मुराद को समझाया कि खानखाना इस लड़ाई को इस तरह चलाना चाहता है कि जीत का सेहरा शहजादे के सिर पर न बंध कर खानखाना के सिर पर बंधे। इस पर मुराद ने मुगल सेना का एक थाना कायम किया और खानखाना को उस पर बैठा दिया ताकि खानखाना अपनी जगह से हिल न सके।
उधर मुराद और उसकी सेना के अत्याचार देखकर चाँदबीबी ने बीजापुर के बादशाह से सहायता मांगी। इस पर अहमद नगर, बीजापुर और गोलकुण्डा ने मिलकर मुगल सेना के विरुद्ध मोर्चा बांधा। बीजापुर का बादशाह इस संयुक्त सेना का सेनापति नियुक्त हुआ। उसके नेतृत्व में साठ हजार घुड़सवारों और त्वरित गति से चलायमान तोपखाने की सेना मुगलों से लड़ने के लिये आयी।
मुराद ने इस सेना के आने से पहले ही अहमदनगर को लेने का विचार किया और खानखाना को बताये बिना अपने डेरे से लेकर किले की दीवार तक पाँच सुरंगें बिछा दीं। मुराद ने जुम्मे की नमाज पढ़ने के बाद इन सुरंगों में आग लगाने का निश्चय किया।
चाँदबीबी को इन सुरंगों का पता चल गया। उसने दो सुरंगों की बारूद तो शुक्रवार दोपहर से पहले ही निकलवा लीं। जब वह तीसरी सुरंग से बारूद निकलवा रही थी तब मुराद ने सुरंगों को आग दिखा दी। इससे किले की पचास गज की दीवार उड़ गयी। किले के भीतर सुरंग खोद रहे लोगों में से कुछ तो मौके पर ही मारे गये और बाकी के भाग खड़े हुए। सुलताना चाँद बीबी फौरन महल से निकली ओर तलवार लेकर वहीं आ खड़ी हुई। उसे देखने के लिये दोनों ओर के सिपाहियों की भीड़ जुट गयी।
उधर शहजादा और उसके अमीर शेष सुरंगों के फटने की प्रतीक्षा करते रहे और इधर चाँद बीबी ने तोपें, बान और बन्दूकें चुनकर रास्ता बंद कर दिया। खानखाना अपने थाने पर चुपचाप बैठा हुआ तमाशा देखता रहा। जब मुराद की फौज धावे के लिये आयी तो चाँद बीबी ने उस पर ऐसे बान और गोले मारे कि मुराद की सेना घबरा कर लौट गयी। चाँदबीबी पूरी रात किले के परकोटे पर खड़ी रही और उसने अपने सामने वह दीवार फिर से बनवा ली।
मुराद ने खानखाना को पूरी तरह से इस युद्ध से अलग रखा था। इसलिये वह पूरी तरह निष्क्रिय बना रहा। इस दौरान वह तभी क्रियाशील हुआ जब उससे कुछ करने के लिये कहा गया।
[1] हस्तिसेना।