सिंधु नदी के तट पर स्थित मोहेन-जो-दड़ो! [1] आज से पाँच हजार साल पहले भारत भूमि पर पल्लवित और पुष्पित होने वाली सैंधव सभ्यता का एक प्रमुख और समृद्ध नगर। मोहेन-जो-दड़ो सिंधु तट से कुछ ऊँचाई पर बसा हुआ है ताकि सिंधु में प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ से सुरक्षित रह सके। सिंधु के प्लावन से बचने के लिये नगर को चारों ओर से ईंटों की विशाल प्राचीर से घेर दिया गया है तथा नगर से कुछ ही पूर्व सिंधु नदी पर एक विशाल बांध भी बना दिया गया है।[2] नगर प्राचीर न केवल सिंधु के जल को अपितु वन्य पशुओं को भी नगर में घुसने से रोकती है।
मोहेन-जो-दड़ो की बसावट का प्रमुख आधार हैं यहाँ की चैड़ी और एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई साफ-सुथरी सड़कें। [3] ये सड़कें एक दूसरे को जिस स्थान पर काटती हैं वहाँ नगर रक्षकों की चैकियाँ स्थापित हैं। इन चैकियों में अहिर्निश नगर रक्षकों का सशस्त्र पहरा रहता है। रात्रि में इन चैकियों पर प्रकाश की भी व्यवस्था रहती है ताकि कोई अपराधी अंधेरे का लाभ उठाकर नागरिकों को कष्ट न पहुँचाये। मोहेन-जो-दड़ो की सफाई व्यवस्था अन्य सैंधव नगरों से काफी उन्नत है। सड़कों के दोनों ओर बनी हुई पक्की नालियाँ ईंटों से ढकी हुई हैं। जहाँ ये नालियाँ एक दूसरे से समकोण पर मिलती हैं, वहाँ कुछ उथले खड्डे कर दिये गये हैं ताकि नालियों में बहकर आने वाला कचरा उन खड्डों में जमा हो जाये और उसके ऊपर से होकर पानी आगे बहता रहे, नालियों को तोड़कर मार्ग में न फैले। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कचरापात्र रखे हैं। जिन्हें नित्य ही प्रक्षालन-कर्मकारों द्वारा खाली किया जाता है।
नालियों से कुछ हटकर पक्की ईंटों के दो-तीन मंजिला भवन हैं जिनमें विविध व्यवसाय करने वाले सम्पन्न, कला-प्रिय, धर्म-परायण और रुचिवान सैंधव नागरिकों का निवास है। नागरिकों की धर्म-परायणता का परिचय मिलता है नगर में स्थित दैवीय चबूतरों और महालयों से। प्रजनन देवी[4] के मंदिरों के साथ-साथ प्रजनक देव [5] और पशुपति [6] के कई छोटे बड़े महालय नगर की शोभा और श्री में वृद्धि करते हैं।
प्रजनन देवी के मंदिर विविधाकार योनियों की आकृति में बने हैं [7] जिनमें विविधाकर योनियाँ स्थापित हैं। इन योनियों की पूजा मातृशक्ति के प्रतीक के रूप में होती है। कुछ मंदिरों में मातृदेवी की निर्वसन प्रतिमायें भी स्थापित हैं। [8] मातृदेवी ने सिर पर शृंग [9] धारण कर रखे हैं। किसी-किसी प्रतिमा के सिर पर शृंगों के स्थान पर त्रिशूल तथा किसी-किसी प्रतिमा के सिर पर कुल्हाड़ी बंधी हुई है। कुछ मंदिरों में स्थापति मातृदेवी की दिव्य देह पर पटका, मेखला तथा हार सुशोभित हैं। सैंकड़ों-सहस्रों वर्षों से सैंधव-जन प्रजनन देवी अर्थात् मातृदेवी की पूजा करते आये हैं। मातृदेवी! जिसने जन्म दिया है न केवल समस्त नर-नारियों को अपितु समस्त पशु-पक्षियों और वनस्पतियों को भी। सम्पूर्ण सृष्टि उसी के गर्भ से निकली है। मातृदेवी के मुख्य मंदिर में मातृदेवी की विशाल प्रतिमा स्थापित है जिसके गर्भ से वनस्पतियों का उत्स हो रहा है तथा चारों ओर विविध पशु-पक्षी तथा नर-नारी नमस्कार की मुद्रा में बैठे हैं जो इस बात के द्योतक हैं कि मातृदेवी न केवल सैंधव-जनों की प्रजनन देवी के रूप में पूजित हैं अपितु वे ही वनस्पतियों एवं पशु-पक्षियों से पूरित इस सम्पूर्ण सृष्टि की आदि देवी-प्रजनन देवी हैं। [10]
प्रजनक देव के मंदिरों में विविधाकार लिंग स्थापित हैं जिनकी पूजा पितृशक्ति के प्रतीक के रूप में होती है। कुछ मंदिरों में स्वयं पशुपति पितृदेव के रूप में स्थापित हैं। पशुपति सिर पर सींग तथा गले में सर्पों की माला धारण किये हुए हैं। [11] पितृदेव के शरीर पर भी किसी तरह के वस्त्र अथवा आभूषण नहीं हैं। ऊँचे कूबड़ वाला वृषभ पशुपति का मुख्य वाहन है जिसके एक सींग पर त्रिशूल तथा दूसरे सींग पर डमरू बंधा हुआ है। पशुपति की विशाल जटायें चारों दिशाओं में उन्मुक्त भाव से लहरा रही हैं जो इस बात की घोषणा करती हुई प्रतीत होती हैं कि पशुपति ही समस्त दिशाओं के स्वामी हैं।
नगर के ठीक मध्य में मोहेन-जो-दड़ो का प्रमुख पशुपति महालय स्थित है जिसमें प्रधान पुजारी किलात रहता है। इसी महालय से सैंधव सभ्यता के दक्षिणी भाग का शासन चलता है। [12] उत्तरी भाग का शासन चलाने के लिये हरियूपिया में अलग से एक और विशाल पशुपति महालय स्थापित किया गया है जिसे सैंधव राज्य की उत्तरी राजधानी कहा जा सकता है। [13]
मोहेन-जो-दड़ो के पशुपति महालय का प्रधान पुजारी किलात सैंधव सभ्यता के महान दार्शनिक कोल्या की सातवीं पीढ़ी का वंशज है। कोल्या सैंधव सभ्यता का अनुभवी पुरोहित, गूढ़ उपदेशक, सुप्रसिद्ध न्यायकर्ता और दृढ़ प्रशासक था। वह विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करता हुआ दीर्घ समय तक सैंधवों की उन्नति में संलग्न रहा। वह परुष्णि नदी के ऊपरी किनारे का रहने वाला था। उसका पुर भी आर्यों द्वारा नष्ट कर दिया गया था। अब वहाँ आर्यों का जन निवास करता है। पशुपति महालय की स्थापना करने से पूर्व उसने विभिन्न प्रांतरों का भ्रमण करके अपने आप को दिव्य अनुभवों से सम्पन्न किया था। उसी ने सैंधवों को एक सुगठित लिपि का निर्माण करके दिया ताकि सैंधव जनों द्वारा संचित ज्ञान केवल मौखिक रूप में नहीं रहे तथा कुछ समय बाद विस्मृत न कर दिया जाये।
कोल्या ने ही सैंधवों को मिट्टी की पट्टियों पर लिखना और पट्टियों को आग में तपाकर सुरक्षित रखना सिखाया। [14] उसने यह कला पश्चिमी प्रांतरों की यात्रा के दौरान श्वेत जाति के लोगों से सीखी थी। [15] कोल्या ने सैंधवों को ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में जितना आगे बढ़ाया, वह सैंधवों में सहस्रों वर्षों तक स्मरण किये जाने के लिये पर्याप्त है। यही कारण है कि कोल्या के पश्चात् उसी के वंशज पशुपति महालय के प्रधान पुजारी होते आये हैं।
पशुपति के प्रमुख महालय से कुछ हटकर विशाल स्नानागर बने हुए हैं जिनमें विशेष पर्वों पर नागरिक एवं पुजारी स्नान करते हैं। यह एक आश्चर्य ही प्रतीत होता है कि वर्ष पर्यन्त प्रवाहित होने वाली विशाल नदी के तट पर स्थित होने के उपरांत भी मोहेन-जो-दड़ो के प्रत्येक घर में एक कुआँ तथा स्नानागार है। सबसे अधिक आश्चर्यजनक तो ये कि नगर में सार्वजनिक उपयोग हेतु भी महालय की ओर से स्नानागार बने हुए हैं। ये स्नानागार न केवल विशाल अण्डाकार कुओं से अपितु विशाल आयताकार जलकुण्डों से भी युक्त हैं। मंदिरों में प्रवेश करने से पूर्व समस्त नागरिकों को इन कुण्डों एवं स्नानागारों में स्नान करके पवित्र होना होता है।
नगर में एक और आश्चर्य है जो देखते ही बनता है। यहाँ का कोई भी भवन मुख्य मार्ग पर नहीं खुलता। समस्त भवन के द्वार गलियों में खुलते हैं और गलियों से निकल कर मुख्य मार्ग तक आना होता है। नगर से बाहर एक ओर कुंभकारों और शिल्पकारों की बस्तियाँ हैं ताकि नागरिकों को आवां से निकलने वाले धुएं और छैनी हथौड़ियों से उत्पन्न होने वाले शोर से व्यवधान न हो। कृषकों और पशुपालकों की बस्तियाँ भी नगर के एक ओर बनी हुई हैं।
नगर से कुछ ही दूर सिंधु मंथर वेग से बह रही है जिसके निर्मल जल में विविध प्रकार की रुपहली मछलियों एवं कोकिल कण्ठी जल-पक्षियों की भरमार है। दिन में सिंधु की तरल तरंगों पर चमकती सूर्य रश्मियाँ और रात्रि में चन्द्रमा की ज्योत्सना सिंधु के सौंदर्य को शत-शत गुणा बढ़ा ही नहीं देतीं अपितु उसे रहस्यमय कांति भी प्रदान कर देती हैं। सिंधु के दोनों ओर दूर-दूर तक विशाल वन फैले हुए हैं जिनमें विविध प्रकार के पशु-पक्षियों का निवास है जो सिंधु के तट पर पानी पीने के लिये झुण्ड बनाकर आते रहते हैं। मोहेन-जो-दड़ो के नागरिक भी वन्य-उपज प्राप्त करने तथा आखेट खेलने के लिये वनों में जाते रहते हैं। [16] सिंधु के तट पर खड़े इन उदार वनों से मोहेन-जो-दड़ो वासियों की विविध आवश्यकतायें पूरी होती हैं। मोहेन-जो-दड़ो के मछुआरे बड़ी-बड़ी नौकाओं में बैठकर सिंधु के अथाह जल में दूर-दूर तक पाई जाने वाली मछलियाँ पकड़ने जाते हैं। उनके लौटने पर सिंधु तट पर उत्सव का सा दृश्य उपस्थित होता है।[17]
सैंधव सभ्यता के कृषकों ने सिंधु के उपजाऊ तटों पर विशाल खेत तैयार कर लिये हैं जिनमें शीतकाल में यव तथा ग्रीष्म काल में कर्पास एवं धान्य बोया जाता है। इक्षु वर्ष भर होता है जिसे विशाल कोल्हुओं में पेर कर इक्षु रस प्राप्त किया जाता है। सैंधवों को यव और इक्षु-रस के योग से निर्मित सुरा तथा फलों से निर्मित विविध प्रकार के आसव भी अत्यंत प्रिय हैं।
ऊषा के आगमन में अभी विलम्ब है किंतु सिंधु में झिलमाने वाले तारामण्डलों की आभा क्षीण हो चली है। सैंधव प्रदेश का विशाल खग-कुल [18] और सिंधु का सम्पूर्ण जल-कुल [19] अभी भी निद्रा में बेसुध है किंतु मोहेन-जो-दड़ो का जन-कुल [20] आज खग-कुल और जल-कुल के निद्रा त्यागने से पहले ही अपनी शैय्याएं त्यागने को तत्पर दिखाई देता है। यूँ तो नित्य ही सूर्योदय से पहले मोहेन-जो-दड़ो के नागरिक शैय्या त्याग कर अपने नित्य कर्मों में लग जाते है किंतु आज सूर्योदय से काफी पहले ही चहल-पहल आरंभ हो गयी है तो उसका कारण केवल यह नहीं कि आज पशुपति के प्रधान मंदिर का वार्षिकोत्सव है और सूर्योदय से काफी पहले उन्हें सिंधु पूजन के लिये सिंधु तट पर उपस्थित होना है अपितु यह कि मोहेन-जो-दड़ो के नागरिक पूरी रात इस उत्तेजना में सो नहीं सके हैं कि पशुपति महालय की प्रधान देवबाला रोमा और अन्य देवबालायें आज के वार्षिकोत्सव में चन्द्रवृषभ नृत्य करने वाली हैं।
मोहेन-जो-दड़ो वासियों को ही नहीं अपितु दूर-दूर तक बसे सैंधव नगरों एवं राजधानी मोहेनजोदड़ो तक के निवासियों को इस उत्सव की विशेष प्रतीक्षा रहती है। इस उत्सव में सम्मिलित होने के लिये सहस्रों नर-नारी प्रतिवर्ष सैंकड़ों योजन [21] लम्बा मार्ग तय करके मोहेन-जो-दड़ो पहुँचते हैं। सैंधव सभ्यता की राजधानियों मोहेनजोदड़ो एवं हरियूपिया के साथ-साथ अमरी, झूंकरदड़ो, ऐलाना, पेरियानो, चहुन्दड़ो, सुत्कोटड़ा आदि नगरों [22] से भी बड़े-बड़े कलाविद् और गुणीजन मोहेन-जो-दड़ो पहुँचते हैं और बड़े उत्साह से इस उत्सव में भाग लेते हैं। जब से मोहेन-जो-दड़ो पशुपति महालय की प्रधान नृत्यांगना रोमा की ख्याति सैंधव सभ्यता के नगरों में फैली है तब से मोहेन-जो-दड़ो के वैभव, श्री और ख्याति में कई गुणा वृद्धि हो गयी है।
इस बार भी मोहेन-जो-दड़ो में बाहर से आये अतिथियों की धूम-धाम है। इन अतिथियों में वयोवृद्ध कलाकार कला की नवीन ऊँचाइयों को देखने का रोमांच मन में लेकर आये हैं तो कई नगरों से पशुपति महालयों की देवबालायें देवी रोमा के नृत्य की बारीकियों को सीखने और उसे आत्मसात करने की अभिलाषा लेकर आई हैं। सहस्रों नर-नारी तो देवी रोमा की एक झलक पाने की चाव में अपने शकटों पर कई-कई दिनों की यात्रा करके आये हैं। मनचले रूपपिपासु युवकों की भी कमी नहीं जो देवी रोमा की सुंदर देह सम्पदा पर जी भर कर दृष्टिपात करके अपने नेत्रों को धन्य कर लेना चाहते हैं।
बाहर से आये अतिथियों से मोहेन-जो-दड़ो की अतिथिशालायें, महालय और विश्रामालय पूरी तरह से जन आप्लावित [23] हो गये हैं। जिन साधारण जन-गुल्मों [24] को किसी सुरक्षित स्थान में आश्रय लेने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है, उन्होंने जनपथ के किनारे मुक्त गगन के नीचे ही डेरा डाल दिया है। मुक्त गगन के नीचे डेरा लगाने वाले इन्हीं अतिथियों के बीच शर्करा-तट से आया युवा शिल्पी प्रतनु भी है। वह कल रात्रि में ही मोहेन-जो-दड़ो पहुँचा था। सौभाग्य से वरुण भी कल ही सिंधु तट पर पहुँचा। यदि प्रतनु को एक दिन भी विलम्ब हो जाता अथवा वरुण एक दिन भी पहले आ जाता तो प्रतनु पशुपति महालय के वार्षिकोत्सव में सम्मिलित होने से वंचित रह जाता। वह रात्रि में काफी विलम्ब से मोहेन-जो-दड़ो पहुँचा था और पूरे दिन भीगते रहने के कारण काफी थक गया था। अतः अपने लिये उपयुक्त आश्रय नहीं खोज पाया था। वह तो ठीक था कि उत्सव के कारण नगर प्राचीर [25] के कपाट [26] देर रात्रि तक खुले रखे गये थे अन्यथा उसे सम्पूर्ण रात्रि सिन्धु तट पर ही व्यतीत करनी पड़ती।
प्रतनु नहीं जानता था कि वह इतनी प्रसिद्धि पा चुका है कि यदि वह अपना परिचय नगर रक्षकों को देता तो उसके लिये आश्रय की अनुकूल व्यवस्था रात्रि में ही हो जाती। कुछ तो अपनी ख्याति से पूर्णतः परिचित न होने के कारण और कुछ इसलिये भी कि वह स्वाभिमानी और मौजी स्वभाव का व्यक्ति है, किसी से अपने लिये प्रार्थना करना उसके स्वभाव में नहीं है, उसने अपना डेरा जन-सामान्य के साथ मुक्त आकाश के नीचे लगाना ही अधिक उपयुक्त समझा, भले ही सम्पूर्ण रात्रि वरुण से भीगते हुए व्यतीत करनी पड़े।
चकित है शिल्पी मोहेन-जो-दड़ो को देखकर। कोई पुर इतना समृद्ध, इतना विशाल और इतना सुरक्षित हो सकता है, इसकी तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। उसके पूर्वजों का नगर कालीबंगा ही इसकी स्पर्धा[27] कर सकता था जिसकी समृद्धि और वैभव की कथायें उसने अपने पिता से कई-कई बार सुनी थीं। उसने सुना है कि उत्तरी राजधानी हरियूपिया भी इतना ही समृद्ध, इतना ही उन्न्त और इतना ही सुंदर पुर है।
मोहेन-जो-दड़ो और कालीबंगा के शिल्पियों की कथायें सुनकर ही प्रतनु के मन में शिल्पकला के प्रति अनन्य लगाव प्रकट हुआ। इसी लगाव का परिणाम था कि प्रतनु छैनी और हथौड़े का अप्रतिम [28] मायावी [29]शिल्पी बन गया। उसने अल्प आयु में ही अपने हस्त-लाघव [30] को इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया कि देवी रोमा की भांति उसकी भी चर्चा पूरे सप्त सैंधव प्रदेश में होने लगी। यह भी एक संयोग ही है कि यदि देवी रोमा सप्त सैंधव क्षेत्र के ठीक नैऋत्य कोण [31] में सिंधु के किनारे से अपनी सुगंध बिखेर रही हैं तो शिल्पी-प्रतनु सप्त सैंधव सभ्यता के धुर आग्नेय-कोण [32] में सरस्वती नदी की अंतिम शाखा शर्करा के किनारे अपनी दिव्य सुगंध लेकर विकसित हुआ है।
रह-रह कर किशोरावस्था के दिन उसकी आँखों के समक्ष आ खड़े होते हैं। किशोर प्रतनु चाहता था कि वह सहस्रों योजन की कष्टप्रद यात्रा करके मोहेन-जो-दड़ो के पशुपति महालय के वार्षिक उत्सव मे सम्मिलित हो तथा अपने पूर्वजों द्वारा बनाये गये पशुपति महालय को देखकर गर्व का अनुभव करे। युवा प्रतनु ने चाहा कि वह सौंदर्य की अनन्य प्रतिमा कही जाने वाली नृत्यांगना रोमा के सौंदर्य को निहारे। शिल्पी प्रतनु चाहता है कि वह बहु-विश्रुत [33] सैंधव नृत्यांगना देवी रोमा की सुंदर प्रतिमाओं का निर्माण कर उन्हें वर्तमान और भविष्य की अन्यान्य [34] सभ्यताओं तक पहुँचाये जिससे देवी रोमा के नृत्य कौशल की और प्रतनु के शिल्प कौशल की ख्याति देश और काल की वर्तमान सीमाओं को लांघकर भविष्य के आंगन तक पहुँचे और युगों-युगों तक स्मरण रखी जाये।
प्रतनु के बारे में विख्यात है कि कला उसकी छैनी में बसती है। प्रस्तर खण्ड का स्पर्श करते ही छैनी उसे सुंदर प्रतिमा में बदल देती है। प्रतनु जानता है कि ‘कला’ कभी छैनी में नहीं बसती। ‘कला’ तो शिल्पी के मन, मस्तिष्क और रक्त की प्रत्येक बूंद में बसती है। प्रत्येक क्षण वह ‘कला’ के परिमार्जन[35] और परिष्करण [36] के बारे में चिंतन करता रहता है।
परंपराओं को स्वीकार करने वाला प्रतनु ‘कला’ के बारे में विचित्र और परस्पर विरोधाभासी विचार रखता है। वह कहता है कि परंपरा से चलने वाली लोककलाओं में निरंतर विकास की संभावना नहीं होती। परंपरा के प्रति समर्पित रहने वाले मनुष्य का पूर्वाग्रह उसके विकास का मार्ग अवरुद्ध कर देता है। ‘कला’ का विकास होता है मनुष्य के तार्किक होने से। श्रद्धा के वशीभूत प्रसूत [37] हुई कला तो मिथ्याचार [38] के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।
‘कला’ के विलक्षण उपासक प्रतनु की प्रबल मान्यता है कि ‘कला’ वंशानुगत उपलब्धि नहीं है। वह तो व्यक्तिगत होती है। न तो जन्म के साथ कोई व्यक्ति ‘कला’ अपने साथ लेकर आता है और न कोई गुरु किसी शिष्य के मन में ‘कला’ के बीज बो सकता है। ‘कला’ का प्रस्फुटन [39] न तो प्रयास से होता है और न कल्पनाओं के अभ्यास से। अभ्यास और कल्पना ‘कला’ के परिमार्जन के उपकरण हैं किंतु ‘कला’ के प्राकट्य [40] के हेतु नहीं। ‘कला’ के प्रकटन की प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म है कि उसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है।
सैंधव सभ्यता के मायावी प्रतिमाकार प्रतनु की प्रबल मान्यता है कि ‘कला’ के प्राकट्य की संभावना ‘संवेदना’ की उच्च भाव-भूमि पर अभाव और आनन्द की विपरीत अनुभूतियों में होती है। यही कारण है कि ‘कला’ को जितना अवलम्ब[41] कल्पना का होता है उससे कहीं अधिक आश्रय साक्षात् [42] का होता है। कल्पना भले ही कितनी ही विचित्र क्यों न हो किंतु साक्षात् का आधार पाये बिना ‘कला’ कभी रमणीय [43] नहीं होती।
प्राप्ति और अप्राप्ति की अनुभूति, कल्पना का नहीं ‘साक्षात्’ का विषय है। प्रकृति प्रदत्त संवेदना की भाव-भूमि पर साक्षात् के बिम्बों के अभाव में केवल कल्पना कुक्कुटों से जन्मी ‘कला’ विशेषज्ञों और मर्मज्ञों के लिये भले ही समीक्ष्य एवं स्तुत्य बन जाये किंतु ‘कला’ के वास्तविक उपभोक्ता अर्थात साधारण जन के लिये वह उपयोगी नहीं बनती। इसीलिये प्रतनु चाहता है कि वह देवी रोमा जैसे विलक्षण साक्ष्य का उपयोग करके अपने शिल्प को इतनी ऊँचाई पर पहुँचा दे जहाँ ‘कला’ भी स्वयं को धन्य समझने लगे। प्राप्त करना चाहता है वह ‘कला’ के चरम को। देखना चाहता है वह ‘कला’ की उस ऊँचाई को जो अब तक अव्यक्त और अप्रकट है।
युवा प्रतनु चाहता तो सामान्य दिनों में भी मोहेन-जो-दड़ो आकर देवी रोमा का साक्षात्कार कर सकता था किंतु उसने सामान्य दिनों को नहीं चुनकर वार्षिकोत्सव के अवसर पर मोहेन-जो-दड़ो आने का निर्णय लिया तो इसके पीछे भी एक कारण है। सैंधव वासियों का यह वार्षिक समारोह मातृदेवी को प्रसन्न करने के लिये आयोजित किया जाता है जिसमें चन्द्रवृषभ नृत्य का आयोजन होता है। इस नृत्य में पशुपति महालयों की नृत्यांगनायें मातृदेवी के रूप में अर्थात् निर्वसना अवस्था में नृत्य करती हैं। [44] प्रतनु, देवी रोमा के इसी रूप की प्रतिमायें बनाना चाहता है। सौंदर्य अपने चरम उत्कर्ष के साथ निरूपित हो, ऐसी आकांक्षा है प्रतिमाकार प्रतनु की। वस्त्रों में ढंके सौंदर्य का कैसा निरूपण और कैसा परीक्षण! प्रच्छन्नता का निरूपण तो कल्पना कपोतों की सृजना करना मात्र है। कल्पना मिश्रित भावुकता का लिजलिजा उत्कीर्णन।
ऐलाना से मोहेन-जो-दड़ो तक की दीर्घ यात्रा से श्रांत और क्लांत है प्रतनु किंतु उसके मन में उत्साह का सागर लहरा रहा है। वह भी पथ पर डेरा डाले पथिकों के साथ ही नित्यकर्मों से निवृत्त होने में शीघ्रता कर रहा है। प्रतनु चाहता है कि आयोजन स्थल पर शीघ्र पहुँचे ताकि वह आगे की पंक्तियों में स्थान पा सके जहाँ से वह आयोजन को बिना किसी व्यवधान के देख सके।
प्रतनु चाहे तो उसे विशिष्ट जनों के लिये निर्धारित स्थल पर भी जगह मिल सकती है किंतु नीरस विशिष्ट जनों के मध्य बैठकर आयोजन देखने में आनंद नहीं आता प्रतनु को। वह चाहता है कि वह साधारण कहे और समझे जाने वाले सैंधवों के मध्य बैठकर उनकी रस भरी अनुकूल-प्रतिकूल टिप्पणियों को सुनते हुए कला का रसास्वादन करे। प्रतनु का मत है कि वास्तविक कलानुरागी तो साधारण कहा और समझा जाने वाला बहुसंख्यक समाज है जो अपना मत व्यक्त करते समय किसी लाभ हानि का गणित नहीं करता और न ही वह किसी शैली की विशिष्टता के सम्बन्ध में पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता है। उसे तो जो अच्छा लगा, अच्छा कहा और जो अच्छा नहीं लगा बिना किसी संशय के बुरा कहा।
[1] मोहेन-जो-दड़ो सिंधु घाटी सभ्यता का एक प्रमुख नगर था। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व 1922 ईस्वी में सिंधप्रांत में इसके अवशेषों का पता लगा था। अनुमान किया जाता है कि मोहेन-जो-दड़ो सिंधु साम्राज्य के दक्षिणी हिस्से की राजधानी थी। सिंधु साम्राज्य की उत्तरी राजधानी हड़प्पा पंजाब में रावी नदी के किनारे स्थित थी।अब ये दोनों ही स्थल पाकिस्तान में हैं।
[2] मोहेन-जो-दड़ो की खुदाई में एक बांध के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
[3] मोहेनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त मुख्य सड़क दस मीटर चौड़ी तथा 400 मीटर लम्बी है।
[4] मोहेन-जो-दड़ो तथा हड़प्पा आदि की खुदाई में बड़ी संख्या में छल्ले मिले हैं। ऐसे छल्ले कालीबंगा तथा बलूचिस्तान से भी पाये गये। ये छल्ले पत्थर, चीनी मिट्टी तथा सीप के बने हुए है तथा आधा इंच से लेकर चार इंच तक बड़े हैं। अधिकांश इतिहासकारों ने इन छल्लों को स्त्री योनि माना है जिनकी पूजा मातृशक्ति के रूप में बड़े पैमाने पर प्रचलित थी। भारत के अनेक स्थलों से भी मौर्यकालीन योनियाँ प्राप्त हुई हैं। इनके भीतर नग्न मातृदेवी की मूर्तियाँ अंकित हैं।
[5] मोहेन-जोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाई में बड़ी संख्या में लिंग प्राप्त हुए हैं। ये लिंग साधारण पत्थर, लाल पत्थर, नीले सैण्डस्टोन, चीनी मिट्टी तथा सीप आदि सामग्री से बने हुए हैं। ये देा प्रकार के हैं- फैलिक और बीटल्स। फैलिक लिंगों का शीर्ष भाग गोल है तथा वीटल्स लिंगों का शीर्ष भाग नुकीला है। कुछ लिंग तो इतने छोटे हैं कि उन्हें जेब में रखकर ले जाया जा सकता है तथा कुछ लिंग चार फुट तक ऊंचे हैं। उन दिनों लिंग पूजा सिंधु प्रदेश के अतिरिक्त मिस्र, यूनान और रोम आदि देशों में प्रचलित थी। ऋग्वेद में लिंग पूजा अथवा शिश्न पूजा का उल्लेख एक-दो अवसरों पर ही हुआ है तथा वहाँ भी इसे अनार्यों की ही पूजा दर्शाया गया है।
[6] पुरातत्ववेत्ता मैके को सिन्धु प्रदेश में एक मुद्रा मिली थी। इसके मध्य भाग में एक नग्नशरीरी व्यक्ति योगमुद्रा में बैठा है। इस योगी के तीन मुख है। इसके शीश पर त्रिशूल के समान कोई वस्तु है। योगी के बांई और एक गैंडा और एक भैंसा है तथा दाईं ओर एक हाथी और एक व्याघ्र हैं। सम्मुख एक हरिण है। योगी के ऊपर 6 शब्द लिखे हुए हैं। विद्वानों का विचार है कि यह चित्र शिव का है। शिव योगीश्वर हैं, त्रिशूलधारी हैं तथा पशुपति हैं। शिव का सम्बंध तीन की संख्या से है, वे त्र्यम्बक तथा त्रिनेत्र कहे जाते है। सिंध वासियों के लिये वे त्रिमुख थे। इस मुद्रा में ऊर्ध्व लिंग भी बना हुआ है।
[7] इस आकृति के पाँच मंदिर इराक में तथा एक मंदिर सीरिया में प्राप्त हुआ है। ये मंदिर सिंधुसभ्यता के समकालिक हैं तथा ईसा से 4000 से 3500 वर्ष पुराने माने जाते हैं। इक्षिणी ईराक के ओबेद नामक स्थान पर निंहुरसग देवी का मंदिर मिला है। यह दो ऊंची दीवारों से घिरा है तथा इसका रूप योनि के समान है।
[8] मोहेन-जो-दड़ो, हड़प्पा तथा चहुन्दड़ो आदि स्थलों की खुदाई में बड़ी संख्या में मिट्टी की बनी हुई नारी मूर्तियाँ निकली हैं इनमें से अधिकांश नग्न प्रायः हैं। कुछ मूर्तियों की कमर में पटका और मेखला तथा गले में हार सुशोभित हैं। ये मातृदेवी की मूर्तियाँ हैं। ऐसी मूर्तियाँ प्राचीन एशिया माइनर, मेसोपोटामिया, सीरिया, फिलीस्तीन, क्रीट, साइरस ,मिस्र आदि देशों से भी प्राप्त हुई हैं।
[9] सींग
[10] सिंधु सभ्यता में मातृदेवी का अंकन कई प्रकार से किया गया। कुछ मूर्तियों में वह स्तनपान करा रही है। एक मूर्ति में देवी के गर्भ से एक वृक्ष निकलता हुआ दिखाया गया है। मैके को एक मुद्रा मिली थी जिसमें एक वृक्ष के नीचे एक नारी अंकित है। यह चित्र वनस्पति जगत् की अधीश्वरी का ही है। इस प्रकार की कल्पना प्राचीन बैबिलोन और क्रीट आदि देशों में भी की गयी थी। मोहेन-जो-दड़ो से प्राप्त एक मूर्ति में देवी के शीश पर एक पक्षी पंख फैलाये बैठा है। मातृदेवी के कुछ अंकन पशुओं के साथ भी मिले हैं।
[11] सिंधु प्रदेश से प्राप्त चीनी मिट्टी की एक मुद्रा में एक योगासीन व्यक्ति के सम्मुख दो नाग बैठे दिखाये गये हैं। एक-एक नाग पार्श्व में बैठे हैं। एक मुद्रा में एक व्यक्ति को नाग की पूजा करते हुए दिखाया गया है। एक ताबीज पर चबूतरे पर लेटे हुए नाग का अंकन किया गया है। नागों के अन्य अंकन भी मिले हैं।
[12] मोहेन-जो-दड़ो से एक गढ़ी प्राप्त हुई है जो 20 से 40 फुट तक ऊंची एक कृत्रिम पहाड़ी पर स्थित है। इसके चारों ओर 43 फुट चौड़ा एक बांध बना हुआ है। इस गढ़ी के बाहर पक्की मीनारें भी बनी हुई हैं। गढ़ी के भीतर 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा तथा 8 फुट गहरा स्नानकुण्ड बना हुआ है। कुण्ड में जाने के लिये ईंटों की पक्की सीढि़यां बनी हुई हैं। कुण्ड का धरातल पक्की ईंटों से बना है, फर्श व दीवारों की जुड़ाई जिप्सम से की गई है तथा बाहर की ओर बिटुमिन से प्लास्टर किया गया है। कुण्ड के चारों ओर बरामदे हैं तथा बरामदों के पीछे कक्ष हैं। एक कक्ष में कुआँ भी मिला है। इन कक्षों के ऊपर एक और मंजिल बनी हुई थी। इस स्नानागार के पश्चिम में 150 फुट गुणा 75 फुट का एक भण्डार गृह मिला है। स्नानकुण्ड के उत्तर-पूर्व में 230 फुट लम्बा और 78 फुट चौड़ा राजप्रासाद भी मिला है। जिसकी दीवारें पौने सात फुटतक मोटी हैं। इसमें कई बरामदे कई कक्ष तथा स्नानागार मिले हैं। निकट ही एक और विशाल प्रासाद मिला है जो 230 फुट लम्बा और 115 फुट चौड़ा है इसमें दो आंगन, भण्डारागार तथा अनुचरों के छोटे कक्ष मिले हैं।
[13] हड़प्पा में भी एक गढ़ी के ध्वंसावशेष मिले हैं। यह लगभग समानान्तर चतुर्भुज के आकार की थी जो उत्तर से दक्षिण की ओर 460 गज लम्बी और पूर्व से पश्चिम की ओर 215 गज चौड़ी थी। इस समय भी इसकी ऊंचाई 45 से 50 फुट है।
[14] सिंधु सभ्यता के विभिन्न स्थलों की खुदाई में चीनी मिट्टी तथा सोप स्टोन से बनीं विभिन्न प्रकार की मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। इन मुद्राओं पर अंकित लेखों को अब तक नहीं पढ़ा जा सका है। साधारण मिट्टी से बनी मुद्रायें भी बड़ी संख्या में मिली हैं। इन पर विभिन्न चित्र एवं संकेताक्षर अंकित हैं।एक मुद्रा पर तीन मुख वाला योगी अंकित है। इसके ऊपरी भाग में 6 अक्षर लिखे हुए हैं। विद्वानों के अनुसार सिंधु सभ्यता की लिपि चित्र प्रधान थी और उसमें 400 वर्ण थे। इस लिपि में वर्णों के साथ-साथ संकेतात्मक चित्रों का भी प्रयोग हुआ है। इस लिपि के अनेक संकेतात्मक चिन्ह भारतवर्ष की प्राचीनतम आहत मुद्राओं पर भी मिलते हैं। दक्षिण भारत में आज भी बहुत से स्त्री-आभूषणों पर इस तरह के संकेताक्षर अंकित किये जाने का प्रचलन है।
[15] मैसोपोटामिया के एक शहर से सिंधु सभ्यता की मोहरें बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा में मक्खी की आकृति की एक गुरिया (मणि अथवा मनका) मिली है, ऐसी ही एक गुरिया मिस्र के एक पिरामिड से भी मिली है। ये इस बात का प्रमाण हैं कि सिंधु सभ्यता का सम्पर्क समकालिक सभ्यताओं से था।
[16] हड़प्पा से प्राप्त मिट्टी की एक मुद्रा पर शिकार का दृश्य अंकित है। मुद्रा के अग्रभाग पर बने एक मचान पर एक व्यक्ति बैठा हुआ है तथा वह मचान के नीचे स्थित एक बाघ पर आक्रमण की मुद्रा में है।मिट्टी की ही एक अन्य मुद्रा पर मानव-पशु युद्व का भयंकर चित्र अंकित है। एक ओर एक नग्न पुरूष है तो दूसरी ओर दो व्याघ्र। पुरूष अपने सिर पर शिरस्त्राण धारण किये हुए है तथा ब्याघ्रों के मुख पर क्रोध के भाव अंकित हैं। इस दृश्य को देखकर रोम के मानव-पशु द्वन्द्वों का स्मरण होता है।
[17] चहुन्दड़ो से प्राप्त एक मृदा पात्र पर एक मछुए का चित्र अंकित है। वह एक बांस पर जाल लपेटे हुए जा रहा है। उसके पैरों के समीप एक मछली और एक कछुआ अंकित हैं। मछली पकड़ने की कुछ कंटियां भी मिली हैं। मैके के अनुसार प्राचीन संसार में कोई कंटियां इनकी बराबरी नहीं कर सकतीं।
[18] आकाश में गमन करने वाले जीव
[19] जल में निवास करने वाले जीव
[20] मानव समुदाय
[21] भारत में दूरी नापने की प्राचीन इकाई, दो मील का एक कोस तथा चार कोस का एक योजन होता था। लीलावती के अनुसार बत्तीस हजार हाथ की दूरी का एक योजन होता था।
[22] इस सभ्यता के स्थल बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्खनित किये जा चुके हैं। इन समस्त स्थलों से सिंधुघाटी सभ्यता अथवा उसकी समकालिक सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो तृतीय कांस्य कालीन सभ्यता से साम्य रखते हैं।
[23] परिपूर्ण।
[24] नागरिकों के समूह।
[25] जब से मानव ने घुमक्कड़ स्वभाव त्याग कर एक स्थान पर रहना आरंभ किया तभी से मानव बस्ती के चारों ओर एक सुरक्षा दीवार खड़ी की जाने लगी। बाद में इसी सुरक्षा दीवार ने नगर प्राचीर अथवा परकोटे का रूप ले लिया। ताकि शत्रु अचानक ही नगर में प्रवेश न कर सके। उन्नीसवीं शताब्दी में वायुयान की खोज के साथ ही नगर प्राचीर का महत्व समाप्त हो गया।
[26] द्वार, नगर परकोटे के द्वार रात्रि में बंद कर दिये जाने की परम्परा थी।
[27] प्रतियोगिता, होड़।
[28] अनुपम, अद्वितीय।
[29] चमत्कारी।
[30] हाथ का कौशल।
[31] दक्षिण-पश्चिम।
[32] दक्षिण-पूर्व।
[33] विख्यात।
[34] दूसरी-तीसरी, नई-नई।
[35] मांज कर चमकाना अथवा अभ्यास से चमकाना।
[36] शुद्धि करना।
[37] जन्मी हुई।
[38] झूठ आचरण।
[39] अंकुरण।
[40] प्रकटीकरण।
[41] सहारा।
[42] सामने दिखाई देने वाली वस्तु।
[43] सुंदर।
[44] सिंधु सभ्यता के विभिन्न स्थलों पर की गई खुदाई में बड़ी संख्या में मृण्मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें नारी प्रायः नग्न रूप में ही प्रदर्शित की गई है। इनमें नर्तकियों, देवदासियों और उपासिकाओं की मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में हैं। इतिहासकारों का अनुमान है कि सिंधु प्रदेश के मंदिरों और पूजा गृहों से कुछ उपासिकायें और देवदासियाँ सम्बंधित रहती थीं। मोहेन-जो-दड़ो में पीतल की बनी हुई नर्तकियाँ मिली हैं।