ख्वाजा मोइनुद्दीन को उसी हुज्रा (कोठरी) में दफनाया गया जिसमें उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय प्रार्थनायें करने में व्यतीत किया था। इसी को अब मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह कहते हैं। आरंभ में यह कच्ची मजार के रूप में एक पहाड़ी पर स्थित थी जो झाड़ियों एवं पौधों से घिरी हुई थी। ख्वाजा हुसैन नागौरी ने उनकी समाधि पर एक मकबरा बनवाया।
दरगाह पर यात्राओं का सिलसिला
नागौर के सूफी हमीदुद्दीन, ख्वाजा मोइनुद्दीन के मुख्य खलीफाओं में से एक थे। वे ई.1274 ईस्वी तक जीवित रहे। वे तथा उनके अनुयायी ख्वाजा मोइनुद्दीन की मजार पर बरसों बरस यात्रा करते रहे। ख्वाजा की दरगाह के शुरुआती यात्रियों में शेख फरीदुद्दीन गंज ए शकर थे जिन्होंने ध्यान (मेडीटेशन) के लिये ख्वाजा की मजार के निकट स्थित एक चिल्ला (कोठरी नुमा गुफा) में काफी समय व्यतीत किया।
आज भी इसे बाबा फरीद का चिल्ला कहा जाता है। यह भी दावा किया जाता है कि ख्वाजा अजमेरी का मुख्य खलीफा शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, ख्वाजा मोइनुद्दीन की मजार की यात्रा करने वाला पहला मुख्य सूफी था।
यह भी कहा जाता है कि जिस वर्ष ख्वाजा मोइनुद्दीन का निधन हुआ, उसी वर्ष इल्तुतमिश ई.1227 में अजमेर आया। इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन महमूद ने नागौर तथा अजमेर के इक्तेदार इजुद्दीन बलबन के विद्रोह को कुचलने के लिये नागौर जाते समय अजमेर की यात्रा की।
अलाउद्दीन खलजी ने ई.1301 में रणथंभौर तथा ई.1303 में चित्तौड़ अभियान किया तथा राजस्थान में काफी समय व्यतीत किया। जैन स्रोतों के अनुसार अलाउद्दीन खलजी ने ख्वाजा मोइनुद्दीन की मजार की यात्रा की।
दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में से मुहम्मद बिन तुगलक ऐसा पहला सुल्तान था जिसकी इस मजार पर की गई यात्रा का सुस्पष्ट उल्लेख मिलता है। उसने ई.1332 में इस मजार की यात्रा की किंतु उसकी यात्रा धार्मिक उद्देश्य के लिये थी, या उसने जियारत की थी, इसका उल्लेख किसी भी समकालीन इस्लामी स्रोत में नहीं मिलता।
ई.1396 में गुजरात के तत्कालीन तुगलक गवर्नर जफर खां ने ख्वाजा की मजार की यात्रा की। वह मजार से तीन कोस पहले अपने घोड़े से उतर कर पैदल ही मजार तक गया तथा उसने विधि पूर्वक जियारत सम्पन्न की। साइमन डिग्बे ने इसे राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित यात्रा बताया है क्योंकि जफर खां की आंख दिल्ली के तख्त पर लगी हुई थी।
वह यह देखना चाहता था कि यदि अजमेर अधिकार में आ जाता है तो दिल्ली सल्तन के विरुद्ध उसकी ताकत में कितनी वृद्धि हो सकती है।
दिल्ली सल्तनत के पतन के बाद अजमेर राजपूतों के हाथों में आ गया। ई.1455 में माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी ने माण्डलगढ़ पर आक्रमण किया। अजमेर के खुद्दामों ने माण्डलगढ़ जाकर महमूद खिलजी से अनुरोध किया कि वे अजमेर को राजपूतों से छीन लें। महमूद उसी समय अजमेर के लिये चल पड़ा।
उसने ख्वाजा की दरगाह के ठीक सामने अपना डेरा जमाया और गढ़ बीठली को घेर लिया। चार दिन तक चली भयानक लड़ाई के बाद उसने दुर्गपति गजधर को मार डाला तथा गढ़ बीठली पर अधिकार कर लिया।
महमूद ने अपने सेनापति चिश्ती खां को अजमेर का चार्ज लेने के लिये कहा जो कि ख्वाजा अजमेरी के वंशजों में से था किंतु चिश्ती खां का परिवार माण्डू में रह रहा था, इसलिये उसने अजमेर का चार्ज लेने से मना कर दिया।
इस पर महमूद ने ख्वाजा नेमतुल्लाह को अजमेर का हाकिम नियुक्त किया तथा उसे सैफ खान की उपाधि दी। अजमेर में एक मुफ्ती तथा एक काजी की भी नियुक्ति की गई। ख्वाजा की दरगाह में एक मुदर्रिस की नियुक्ति की गई ताकि वह धार्मिक मामलों में आदेश दे सके।
दरगाह के बिल्कुल पास में एक मस्जिद बनाई गई तथा बुलंद दरवाजे का निर्माण किया गया जो आज भी मौजूद है। मजार तथा उसके आसपास के क्षेत्र को भी दुबारा से बनवाया गया। ख्वाजा के खुद्दाम को वजीफा भी निर्धारित किया गया। मांडू के शासकों ने मजार के निकट एक खानकाह का निर्माण करवाया।
ई.1351 में शेख बुरहानुद्दीन गरीब के शिष्य शेख जैनुद्दीन ने अजमेर दरगाह की यात्रा की। ई.1352 में शेख निजामुद्दीन औलिया के शिष्य मौलाना फखरुद्दीन जरदारी ने अजमेर दरगाह की यात्रा की। मखदूम जलालुद्दीन बुखारी, मीर सयैद जहाँगीर समनानी ने भी दरगाह की यात्रा की। सयैद मुहम्मद गेसू दराज ने उत्तर भारत की समस्त प्रमुख दरगाहों की यात्रा की जिनमें अजमेर की दरगाह भी सम्मिलित थी।
मगरीबी परम्परा के बाबा इशहाक ने ई.1377 में अजमेर दरगाह की यात्रा की। वह काफी दिनों तक अजमेर में रहा एवं ख्वाजा अजमेरी के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिये खाटू भी गया। उसका शिष्य एवं खलीफा शेख जमालुद्दीन अहमद खट्टो (ई. 1446-47) उन दिनों के बड़े सूफी संतों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था, उसने भी अजमेर दरगाह पर काफी समय व्यतीत किया।
माण्डू निवासी शेखुल इस्लाम सयैद नूरुद्दीन मुबारक गजनवी का पोता शाह नजमुद्दीन प्रमुख सुहरावर्दी फकीर था, उसने भी अजमेर दरगाह की संक्षिप्त यात्रा की। शह बदीउद्दीन मदार, मदारिया (कलंदरिया) परम्परा का प्रमुख संत था, उसने भी अजमेर दरगाह की यात्रा की। वह काकला पहाड़ पर ही डेरा जमाकर रहने लगा।
यह पहाड़ बाद में मदार टेकरी कहलाने लगा। उसके नाम पर आज भी अजमेर में मदार गेट, मदार रेलवे स्टेशन तथा मदार चिल्ला बने हुए हैं। अवध के शेख मीना तथा कालपी के मीर मुहम्मद ने भी अजमेर दरगाह की यात्रा की। इस प्रकार तेरहवीं शताब्दी से लेकर मध्य पंद्रहवीं शताब्दी तक देश के प्र्रमुख सूफी फकीरों एवं मुस्लिम शासकों ने अजमेर की यात्रा की। इनमें से कई लोग महीनों तथा बरसों तक अजमेर में रहे।
उन दिनों गुजरात, दिल्ली माण्डू तथा नागौर क्षेत्रों में रहने वाले साधारण मुसलमान भी दरगाह की यात्रा पर आया करते थे। हमीदुद्दीन नागौरी के वंशजों ने अजमेर दरगाह की विशेष रूप से यात्राएं कीं चाहे वे देश के किसी भी हिस्से में क्यों न रहते रहे हों। इनमें शेख कमालुद्दीन हुसैन नागौरी सर्वप्रमुख थे। इन्हें शेख हुसैन नागौरी भी कहा जाता है।
इन दिनों अजमेर में अशांति होने के कारण काफी लोग अजमेर छोड़कर चले गये। ख्वाजा के बहुत से वंशज भी अजमेर से चले गये। दरगाह पर भी केवल खुद्दाम ही बचे थे। पहाड़ों से शेर निकल कर दरगाह में घूमा करते थे। शेख हुसैन नागौरी ने अजमेर दरगाह में कुछ निर्माण कार्य भी करवाया।
बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि लगातार अफरा तफरी के माहौल के कारण लोगों ने ख्वाजा की दरगाह को भुला दिया। दरगाह उपेक्षित हो गई और आगरा में अकबर का शासन होने तक लोग ख्वाजा मोइनुद्दीन को भूले रहे। जबकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार शेख हुसैन नागौरी का शिष्य (खलीफा) शेख अहमद माज्द अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद अजमेर आ गया तथा 70 वर्ष तक ख्वाजा की दरगाह पर रहा। उसके पास अजमेर दरगाह के मुफ्ती का पद भी रहा।
कहा जाता है कि वह रात्रि में ख्वाजा की दरगाह पर पहुँचता। उसके लिये दरगाह के दरवाजे स्वतः खुल जाते। वह दरगाह में प्रवेश करके तहज्जुद (देर रात्रि की प्रार्थना) करता था तथा चश्त (मध्य प्रातः की प्रार्थना) तक किसी से कुछ नहीं बोलता था। उसके बाद वह वहीं बैठकर लोगों को धार्मिक निर्देश देता था।
ई.1516 में उसने अजमेर के लोगों से कहा कि राणा सांगा का आक्रमण होने वाला है इसलिये वे शहर छोड़कर चले जायें। शेख द्वारा यह बात कहने के एक सप्ताह बाद सांगा का आक्रमण हो गया। वह स्वयं भी अजमेर छोड़कर नारनौल चला गया। उस समय उसकी आयु 90 वर्ष थी।
सोलहवीं शताब्दी में गुजरात के शहजादे बहादुरशाह ने अजमेर दरगाह की यात्रा की। जब वह दरगाह पहुँचा तो बबन (बयीन मज्जूब) नामक सूफी फकीर दरगाह के दरवाजे पर बैठा हुआ था। बबन ने अपनी दासी से कहा कि वह शहजादे के लिये तख्त लेकर आये। शहजादा उन दिनों अपने पिता से चिढ़ा हुआ था।
इसलिये उसने फकीर के शब्दों को अपने लिये अच्छी भविष्यवाणी समझा। उसने दरगाह पर प्रतिज्ञा की कि यदि वह गुजरात का बादशाह बन जायेगा तो वह अजमेर पर कब्जा करके दरगाह परिसर में रखी समस्त मूर्तियों को तोड़ डालेगा। ये मूर्तियां ई.1515 से ई.1525 के बीच के समय में दरगाह परिसर में रखी गई थीं।
जब बहादुरशाह गुजरात का बादशाह बना तो उसने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिये अपने सेनापति शमशीरूल मुल्क को अजमेर पर अधिकार करने के लिये भेजा। शमशीरुल मुल्क ने सरलता से अजमेर पर अधिकार कर लिया तथा दरगाह में जियारत की।
दरगाह के मण्डप की उत्तरी दीवार पर सोने के अक्षरों में एक कविता लिखी है जिसमें कहा गया है कि दरगाह का गुम्बज ई.1532 में संवारा गया। वस्तुतः यह कार्य शमशीरुलमुल्क ने किया। बहादुरशाह अजमेर पर बहुत कम समय के लिये अधिकार रख सका। मेड़ता के वीरमदेव ने बहादुरशाह की सेनाओं को अजमेर से बाहर निकालकर अजमेर पर अधिकार कर लिया। शीघ्र ही जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव को अजमेर से बाहर निकालकर अजमेर पर अधिकार कर लिया।
पाण्डुआ (बंगाल) के निवासी नूर कुतुब ए आलम के शिष्य सयैद शम्सुद्दीन ताहिर ने 150 वर्ष की उम्र पाई। उसने भी अजमेर दरगाह की यात्रा की। वह दरगाह में काफी समय तक रहा। कहा जाता है कि उसने हमीदुद्दीन नागौरी के वंशज शेख रफीउद्दीन बयाजिद से अजमेर दरगाह में भेंट की जो स्थायी रूप से दरगाह में ही बस गये थे।
ई.1450 में मुलतान के शेख हुसैन ने अजमेर दरगाह की यात्रा की। वह 12 वर्ष तक दरगाह के निकट एक कोठरी में ध्यान एवं प्रार्थनाएं करता रहा। वह मालवा के शासक महमूद खिलजी तथा उसके पुत्र गयासुद्दीन का समकालीन था। नागोरे (तमिलनाडु) निवासी शेख शाह उल हमीद अपने समय का जानामाना सूफी था।
उसने भी अजमेर में ख्वाजा की दरगाह की यात्रा की। कहा जाता है कि ख्वाजा अजमेरी ने मुजाविरन (खुद्दाम) को पहले ही बता दिया कि संत शाह उल हमीद आ रहे हैं, इसलिये खुद्दाम ने शहर से बाहर जाकर संत का स्वागत किया।
गयासुद्दीन खिलजी के समय में मकबरे का गुम्बद बनाया गया। पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों अथवा सोलहवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में प्रसिद्ध कवि शेख जमाली ने अजमेर की यात्रा की। उसने अजमेर दरगाह की स्थापना की।
मुगलों से पहले, दिल्ली के शासकों में से सुल्तान बहलोल लोदी (ई.1451-88) एवं शेरशाह सूरी (ई.1544) ने भी अजमेर दरगाह की यात्रा की। ग्वालियर के ख्वाजा खानुन ने अजमेर दरगाह पर काफी समय व्यतीत किया। मौलाना शेख अब्दुल फतह नागौरी शट्टारी, शेख मुहम्मद गौस ग्वालियरी का उत्तराधिकारी था। वह भी अजमेर की दरगाह पर काफी समय रहा।
अहमदाबाद का रहने वाला शेख बुरहान अजमेर आया और उसका निधन अजमेर में ही हो गया। उसे दरगाह के निकट ही दफनाया गया। सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में सयैद सालार अजमेरी, ख्वाजा की दरगाह में रहता था। उसके उपदेश सुनने के लिये बड़ी संख्या में लोग जुटते थे। उसने भारत से बाहर भी बहुत से देशों का भ्रमण किया।
वह अपने समय का विद्वान सूफी था। उसके अनुयायियों में खिजर का पुत्र शेख मुबारक (अबुल फजल तथा फैजी) का पिता भी था। शेख सालार के प्रसिद्ध मुरीदों में सयैद अली घावास भी था जो पीर बाबा के नाम से प्रसिद्ध था। पीर बाबा का पिता हमायूं की सेवा में था। भारत आने के बाद पीर बाबा दरवेशी बन गया। पानीपत की यात्रा करने के बाद वह अजमेर आया तथा सैयद सालार अजमेरी का मुरीद बन गया।
अपने पीर के कहने पर वह अजमेर से उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश में जाकर चिश्ती सम्प्रदाय का प्रचार करने लगा, वहीं पर ई.1593 में उसकी मृत्यु हुई।
उसके खलीफा अखुम दरवेज तथा उसका पुत्र अब्दुल करीम थे। अखुंद दरवेज एक महान अफगान पीर था, उसने अपनी समस्त शक्तियों के साथ रोशनियां आंदोलन के बढ़ते हुए प्रभाव तथा उसके जनक शेख बैयाजिद पीर ए तारिक का विरोध किया। रोशनयिां मत का विरोध करने के लिये अखुंद ने चिश्ती सिलसिलाह की स्थापना की। इस क्षेत्र में नक्शबंदी तथा सुहरावर्दी सिलसिलाह प्रभावशाली होकर उभरे।
उमर चिश्ती खादिम के पुत्र शेख मांझू और शेख चवन ने भी अजमेर की यात्रा की। शेख मांझू ने अपने पैरों को लोहे की जंजीरों से बांध लिया तथा प्रतिज्ञा की कि वह उसी को अपना पीर मानेगा जो उसके पैरों की जंजीरों को अपनी आध्यात्मिक शक्ति से तोड़ दे। वह हज पर भी गया।
अंत में मंदसौर में शेख दान ने उसके पैरों की जंजीरें अपनी आध्यात्मिक शक्ति से तोड़ीं। शेख चवन ई.1543 में माण्डू चला गया तथा माण्डू दुर्ग की तलहटी में स्थित नालचा में बस गया। खानदेश के एक वजीर के पुत्र मलिक महमूद बयाराह ने हज की यात्रा करने के बाद अजमेर दरगाह की यात्रा की। उसने दरगाह में मुल्तव्वली का दायित्व निभाया तथा ई.1576-77 में अजमेर शहर छोड़कर अहमदाबाद चला गया।
ई.1556 में मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर, आगरा एवं दिल्ली के तख्त पर बैठा। ई.1562 में अकबर शिकार खेलने के लिये गया एवं फतहपुर सीकरी के निकट मिधाकुर गांव से होकर गुजरा। वहाँ कुछ औरतें महान ख्वाजा की प्रशंसा में एक लोक भजन गा रही थीं।
अकबर उस भजन को सुनकर प्रभावित हुआ एवं अजमेर की यात्रा पर चल पड़ा। इसके बाद ख्वाजा की दरगाह के एक नये इतिहास की शुरुआत हुई तथा मुगलों एवं ख्वाजा की दरगाह का पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला सम्बन्ध आरम्भ हुआ। इस सम्बन्ध ने भारत के इतिहास को बहुत प्रभावित किया।
जनवरी 1562 में अकबर पहली बार अजमेर आया तथा उसने मोइनुद्दीन की मजार के बारे में पता लगाया। उस समय अजमेर उपेक्षित और बहुत छोटा कस्बा था अकबर ने ख्वाजा की दरगाह की तीन बार ई.1562, ई.1568 और ई.1570 में जियारत की।
ई.1570 में शहजादे सलीम के जन्म के उपरांत उसने आगरा से दरगाह तक की यात्रा पैदल चल कर की। इसके बाद अकबर ई.1579 तक लगातार प्रतिवर्ष अजमेर आया। उसने ख्वाजा की दरगाह के प्रबंध के लिये शेख मुहम्मद बुखारी को नियुक्त किया जिसने अकबर की इच्छानुसार एक बड़ी मस्जिद का निर्माण करवाया।
अकबर द्वारा दरगाह को भेंट किये गये बर्तन एवं अन्य सामग्री आज भी रखी हैं। जहाँगीर और शाहजहाँ ने ख्वाजा की दरगाह के रख रखाव के लिये उदारता पूर्वक अनुदान दिया। संगीत के विरोधी औरंगजेब ने ख्वाजा के प्रति श्रद्धा के कारण दरगाह पर संगीत सभाओं को जारी रखा और अनुदान दिया।
दरगाह पर मुस्लिम कलैण्डर के रजब माह की पहली से छठी तिथि तक विशाल उर्स का आयोजन किया जाता है। उर्स का आयोजन मोइनुद्दीन चिश्ती के निधन की बरसी के रूप में किया जाता है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता