जब खानखाना दक्षिण में पहुँचा तो दानियाल ने उसे सबसे पहले अहमदनगर पर ही घेरा डालने के आदेश दिये। शहजादे के आदेश से खानखाना ने अहमदनगर को घेर लिया। एक रात जब खानखाना अपने डेरे में बैठा हुआ कुछ लिखा-पढ़ी कर रहा था तो उनकी नजर अचानक एक काले साये पर पड़ी जो चोरी से खानखाना के डेरे में आ घुसा था।
खानखाना ने तुरंत तलवार खींच ली और नकाबपोश की तरफ झपटा। नकाबपोश को अनुमान नहीं था कि खानखाना उसे देख चुका है इसलिये पहले तो वह सहम कर पीछे हटा फिर अगले ही क्षण उसने अपने मुँह से नकाब हटा दिया। खानखाना की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं।
वह नकाबपोश और कोई नहीं अहमदनगर की सुल्ताना चाँद थी। खानखाना चाँद का यह दुस्साहस देखकर दंग रह गया।
– ‘तसलीम हुजूर!’ चाँद ने हँस कर कहा।
– ‘तुम इस तरह यहाँ! तुम्हें पता नहीं तुम्हारी जान को खतरा हो सकता है?’ खानखाना ने चिंतित होकर कहा।
चाँद फिर हँसी, उसने धीमी आवाज में कहा-
‘सदा नगारा कूच का बाजत आठों जाम।
रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम।’
– ‘क्या चाहती हो?’
-‘वाह हुजूर! यह भी ठीक रही। जब आप हमारी ड्योढ़ी पर पधारे थे तब हमनें तो पलक पांवड़े बिछाकर हुजूर का ख़ैरमक़दम किया था। आज जब हमारी बारी आयी है तो पूछते हैं कि क्या चाहती हो?’
– ‘लेकिन मैं दिन के उजाले में सबके सामने आया था और तुम इस रात में चोरों की तरह आयी हो।’
चाँद ने मुस्कुरा कर कहा-
‘रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप।
खरो दिवस किहि काम को, रहिबो आपुहि आप।’
चाँद की इस बात से खानखाना निरुत्तर हो गया और लज्जित होकर बोला- ‘आइये। तशरीफ रखिये।’
चाँद निःसंकोच उसी आसन पर जाकर बैठ गयी जिस आसन पर कुछ देर पहले खानखाना बैठा हुआ था।
– ‘कहिये क्या सेवा करूँ।’ खानखाना ने मुँह रूखा करके पूछा।
– ‘आप तो मुझे केवल इतना बता दें कि जब संधि की शर्तों के अनुसार मैं बराड़ पर अपना अधिकार त्याग चुकी हूँ, तब किस खुशी में आपकी सेनाओं ने फिर से अहमदनगर का रुख किया है?’
– ‘मैंने तो उसी समय तुम्हें चेता दिया था कि संधि का कोई अर्थ नहीं है, वह तो मुराद को उस समय अहमदनगर से दूर ले जाने की चेष्टा मात्र थी।’
– ‘तो अब दानियाल को किस तरह दूर ले जायेंगे?’
– ‘रहिमन चाक कुम्हार को मांगे, दिया न देइ। छेद में डंडा डारि कै, चहै नाँद लै लेइ।। ‘[1]
– ‘अर्थात्?’
– ‘इसका अर्थ ये कि तुम्हें फिर से युद्ध का मार्ग छोड़कर युक्ति का मार्ग पकड़ना होगा।’
– ‘कैसी युक्ति?’
– ‘संधि की युक्ति।’
– ‘क्या यह स्थायी समाधान होगा?’
– ‘रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात। बड़े-बड़े समरथ भए, तौ न कोउ मरि जात। ‘[2]
– ‘ठीक है। संधि का प्रस्ताव बताइये।’
– ‘यदि अहमदनगर को बचाना चाहती है तो बहादुर निजाम[3] को मेरे हवाले कर दे।’
– ‘खानखाना???’ चीख पड़ी चाँद। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि खानखाना अपने मुँह से ऐसी बात निकालेगा।
– ‘घबराओ मत सुलताना। मैं निजाम को बादशाह अकबर की सेवा में यह कहकर हाजिर करूंगा कि अहमद नगर का निजाम आपकी अधीनता स्वीकार करता है और इसके बदले में अपने राज्य की सुरक्षा चाहता है।’
– ‘उसके बाद!’
– ‘उसके बाद बहादुर निजाम शाह को मैं वापिस सुरक्षित अहमदनगर लाऊंगा और तुम्हें सौंप दूंगा।’
– ‘दगा़ हुई तो?’
– ‘मुगलिया राजनीति का तो आधार ही दगा़ है। तू चाहे तो मेरी बात मान, तू चाहे तो मत मान।’
– ‘लेकिन इसका अर्थ तो यही हुआ कि अहमदनगर मुगलों के अधीन हो जायेगा।’
– ‘जिस प्रकार उत्तर भारत के राजपूत राजाओं ने अपने राज्य और प्रजा की सुरक्षा के लिये मुगलिया सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर ली है, उसी प्रकार यदि दक्षिणी राज्यों के राजा और सुलतान भी मुगलिया सल्तनत का प्रभुत्व स्वीकार कर ले तो वे अपने राज्य और प्रजा दोनों की सुरक्षा कर सकते हैं। समय को पहचानो चाँद! इस समय मुगलिया आंधी चल रही है। इस आंधी में दक्षिण के राज्य तिनके की भी सामर्थ्य नहीं रखते। जो भी इस आंधी का मार्ग रोकने का साहस करेगा, वह तिनके की तरह उड़ जायेगा।’
– ‘और हमारी स्वतंत्रता! उसका कोई अर्थ नहीं होता।’
– ‘जब मौका लगेगा तो सारे के सारे राज्य फिर से अपनी-अपनी खोई हुई स्वतंत्रता प्राप्त कर ही लेंगे।’
– ‘एक शर्त पर मैं बहादुर निजाम शाह को आपके हवाले कर सकती हूँ।’
– ‘कैसी शर्त?’
– ‘आप बहादुर निजाम शाह को अपने साथ यह समझ कर ले जायेंगे कि आप किसी और को नहीं, चाँद को ले जा रहे हैं।’
– ‘मंजूर है।’
इसके बाद भी बड़ी देर तक दोनों में बातें होती रहीं। जब सारी बातें विस्तार से तय हो गयीं तो चाँद उठ खड़ी हुई।
– ‘हुजूर का हुक्म हो तो मैं अब जाऊँ?’
– ‘जो हुक्म से आया नहीं, वह हुक्म से जायेगा क्या?’ खानखाना ने हँस कर कहा।
– ‘मेरे आदमी आपके डेरे से एक फर्लांग दूर खड़े हैं। मुझे वहाँ तक पहुँचाने की जहमत उठाइये। उसके बाद मैं चली जाऊंगी।’
– ‘चलिये।’ खानखाना ने हँस कर कहा।
चाँद ने अपना नकाब फिर से मुँह पर लपेट लिया। खानखाना ने उसी समय दो घोड़े मंगवाये। थोड़ी ही देर में दोनों घोड़े अपने सवारों को लेकर गहन अंधकार में विलीन हो गये।
[1] यदि कुम्हार चाक से मांगे तो चाक उसे एक छोटा सा दीपक तक न दे किंतु कुम्हार यदि चाक की हलक में डण्डा डालकर घुमा दे तो चाक उसे बड़ी से बड़ी नांद दे देता है। अर्थात् दुष्ट व्यक्ति के सामने अनुनय का कोई अर्थ नहीं है। उसे तो दण्डित ही किया जाना चाहिये।
[2] यदि दवा और उपचार से मृत्यु को टाला जा सकता तो धरती पर बहुत से सामर्थ्यवान हुए हैं, वे कभी भी न मरते।
[3] बहादुर निजाम चाँद के भाई मरहूम निजाम का बेटा था। इससे चाँद उसकी बुआ लगती थी। चूंकि बहादुर निजाम बालक था इसलिये उसके स्थान पर चाँद ही शासन का काम देखती थी और इसी अधिकार से सुलताना कहलाती थी।