Sunday, December 22, 2024
spot_img

मुगलों की दुर्दशा

जो मुगल भारत के स्वामी होने का दावा करते थे, अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के बाद उन मुगलों की दुर्दशा अपने चरम पर पहुंच गई। उनमें से बहुत से तांगा चलाने लगे, जूतियां गांठने लगे और कुछ तो केवल भीख मांगकर खाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सके।

जब अंग्रेजों ने अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति को पूरी तरह कुचल दिया तब लाल किले की चांद सी सूरत वाली औरतें फटे पाजामे पहनकर सड़कों पर घूम रही थीं!

जब विलियम हॉडसन, जॉन निकल्सन तथा जनरल विल्सन दिल्ली को फिर से अपने अधिकार में ले रहे थे तब दिल्ली के हजारों हिन्दू और मुस्लिम परिवार दिल्ली छोड़कर निकटवर्ती जंगलों एवं गांवों में भाग गए थे। जब हॉडसन ने बादशाह को गिरफ्तार कर लिया तथा शहजादों को गोली मार दी तो 22 सितम्बर 1857 को अंग्रेजों ने दिल्ली पर अपना पूर्ण अधिकार होने की घोषणा कर दी।

इस घटना के कुछ महीनों बाद दिल्ली के परकोटे से बाहर रह रहे हिन्दू परिवारों को अनुमति दे दी गई कि वे फिर से दिल्ली में आकर रह सकते हैं किंतु मुस्लिम परिवारों को दिल्ली में आने की अनुमति नहीं दी गई। अंग्रेजों को अब भी उनसे खतरा अनुभव होता था। इस कारण दिल्ली के मुसलमान परिवार दिल्ली के परकोटे के बाहर झौंपड़ियां डालकर रहते रहे। ये झौंपड़ियां मुगलों की दुर्दशा का जीता-जागता प्रमाण थीं।

मिर्जा गालिब ने लिखा है- ‘पूरे शहर में एक हजार मुसलमान मिलने भी कठिन हैं। और उनमें से एक मैं हूँ। कुछ तो नगर से इतने दूर चले गए हैं कि लगता ही नहीं कि वे कभी यहाँ के निवासी थे। कुछ बहुत अहम लोग नगर के बाहर टीलों पर, छप्परों की झौंपड़ियों में या गड्ढों में निवास करते हैं। उन सुनसान स्थानों में रहने वालों में से अधिकतर वापस आना चाहते है।’

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के विदेश राजनीतिक विभाग की एक पत्रावली में 31 दिसम्बर 1859 का एक एब्सट्रैक्ट ट्रांसलेशन लगा हुआ है जिसमें ‘ए पिटीशन फ्रॉम द मुसलमान्स ऑफ डेल्ही’ का अंग्रेजी भाषा में संक्षिप्त अनुवाद दिया गया है। इसमें कहा गया है कि-

‘ईस्वी 1859 में मुसलमानों ने ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया को पत्र भेजकर अनुरोध किया कि मुसलमानों को दिल्ली शहर में अपने घरों में वापस आने दिया जाए। वे बहुत संकट में हैं। उन्हें बलपूर्वक शहर से निकाल दिया गया है। उनके पास न रहने को स्थान है और न जीवन निर्वाह के लिए कोई साधन। सर्दियां आने वाली हैं। दिल्ली के मुसलमानों की मलिका विक्टोरिया से यह इल्तजा है कि हमें इस तकलीफदेह और दयनीय हालत में बेतहाशा सर्दी सहन न करनी पड़े। हमें आशा है कि महारानी विक्टोरिया अन्य दयालु शासकों की तरह दिल्ली के मुसलमानों की गलतियां क्षमा करेंगी तथा उन्हें उनके पुराने घरों में लौटने देंगी। अन्यथा उनके पास भिक्षा मांगने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं होगा।’

लाल किले की दर्दभरी दास्तान - bharatkaitihas.com
TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

ईस्वी 1860 में महारानी विक्टोरिया की सरकार ने इन मुसलमानों को इस शर्त पर दिल्ली में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की कि वे ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी का कोई लिखित प्रमाण या साक्ष्य प्रस्तुत करें। बहुत कम मुसलमान ऐसे थे जिनके पास कम्पनी सरकार के ब्रिटिश अधिकारियों के हाथ से लिखे हुए कोई पत्र, प्रमाणपत्र आदि उपलब्ध थे। अतः बहुत कम मुसलमानों को दिल्ली में प्रवेश करने की अनुमति मिल सकी। जो मुसलमान दिल्ली में नहीं आ सके, उनके घर सरकार ने नीलाम कर दिए।

विलियम डैलरिम्पल ने लिखा है- ‘ई.1860 में दिल्ली से गुजरने वाला एक पर्यटक उन मुरझाए हुए और खानाबदोशों जैसे दिखने वाले वृद्ध मुगलों को देखकर अचंभित रह गया जो अभी तक कुतुब मीनार के बाहर डेरे जमाए हुए थे। दिल्ली के पूर्व चीफ कमिश्नर चार्ल्स साण्डर्स की घमण्डी पत्नी मैटिल्डा साण्डर्स ने लिखा है कि बड़ी संख्या में लोग प्रतिदिन भूख या शरण न होने के कारण मर रहे हैं।’

मुफस्सिलाइट नामक एक समाचार पत्र ने जून 1860 के अंक में लिखा- ‘मुसलामनों के दिल्ली से बाहर रहने का कोई कारण नहीं है, लोग संकट में हैं क्योंकि वे भूखे मर रहे हैं। उन्हें नगर के बाहर निकाल दिया गया है और उनका सब कुछ लूट लिया गया है। हजारों मुसलमान बेघर और बेसरो-सामान घूम रहे हैं। हिन्दू अपनी फर्जी वफादारी पर फूले हुए सड़कों पर अकड़ते घूम रहे हैं। लोगों को अब यह नहीं सोचना चाहिए कि दिल्ली को पर्याप्त सजा नहीं मिली है। जरा उन खाली सड़कों पर जाकर देखें, जहाँ घास उग आई है। ढहा दिए गए घरों पर दृष्टिपात करें और गोलियों के निशानों से छिदे हुए महलों को देखें।’

मिर्जा गालिब ने जनवरी 1862 में अपने एक मित्र को पत्र लिखा- ‘दिल्ली में जो थोड़े बहुत मुसलमान बच गए हैं वे अब या तो कारीगर बन गए हैं, या फिर अंग्रेजों के नौकर। बहादुरशाह जफर की औलादें जो तलवारों के नीचे आने से बच गई हैं, पांच-पांच रुपया महीना पाती हैं। औरतों में जो बूढ़ी हैं, वे कुटनियां हैं और जो जवान हैं, वे तवायफ बन गई हैं।’

दिल्ली की मुगल औरतों के पतन का एक बड़ा कारण यह भी था कि अंग्रेजों को पक्का विश्वास था कि दिल्ली के मुगलों ने विद्रोह के दौरान अंग्रेज औरतों से बलात्कार किए थे। इसलिए जब दिल्ली उनके हाथ में आ गई तो उन्होंने मुगल औरतों को अपने बलात्कार की शिकार बनाया।

हालांकि चार्ल्स साण्डर्स ने जब इस आरोप की जांच की तो अपनी जांच रिपोर्ट में कहा- ‘मुगलों ने किसी भी अंग्रेज औरत के साथ बलात्कार नहीं किया था।’

अतः समझा जा सकता है कि अंग्रेजों की ओर से मुगलों पर यह निराधारा आरोप लगाया गया था किंतु इस मानसिकता के चलते अंग्रेज सिपाही दिल्ली पर कब्जा करने के बाद शाही हरम की तीन सौ बेगमों को उठाकर सैनिक शिविरों में ले गए और उनके साथ बलात्कार किए। बहुत सी औरतें पेट की आग बुझाने के लिए स्वयं ही वेश्यावृत्ति करने के लिए विवश हुई थीं।

जो अंग्रेज स्वयं को न्यायप्रिय एवं सभ्य कहते थे, उन्होंने मुगलों की दुर्दशा करने में मानवता की समस्त सीमाओं को लांघ दिया। गालिब ने अपने एक मित्र को लिखा- ‘आप यहाँ होते तो किले की औरतों को शहर में घूमते-फिरते देखते। चांद की सी उजली सूरतें और मैले कुचैले कपड़े, पाजामों के फटे पांयचे और टूटी-फूटी जूतियां। यही अब उनकी जिंदगी में शेष बचा है!’ मुगलों की दुर्दशा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source