Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 38 – मुगल स्थापत्य कला (स)

अकबर कालीन स्थापत्य

अकबर ने लगभग 50 वर्ष भारत पर शासन किया। इस अवधि में उसका राज्य काफी विस्तृत हो गया था तथा मुगल सल्तनत की आय बहुत बढ़ गई थी। इसलिए उसने भारत के अनेक नगरों में भवनों का निर्माण करवाया। अकबर का शासन-काल शासन के प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के सम्मिश्रण और समन्वय का काल था।

इस कारण उसके समय में स्थापत्य एवं भवन निर्माण में भी सम्मिश्रण की नई शुरुआत हुई। अकबर द्वारा निर्मित भवनों में ईरानी तथा भारतीय तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं पर इनमें प्रधानता भारतीय तत्त्वों की ही है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि मुगल कला का आरम्भ अकबर से ही मानना चाहिये।

अबुल फजल का कथन है- ‘बादशाह सुन्दर इमारतों की योजना बनाता है और अपने मस्तिष्क एवं हृदय के विचार को पत्थर और गारे का रूप देता है।’

अकबर ने तत्कालीन शैलियों की बारीकी को समझा और अपने शिल्पकारों को इमारतें बनाने के लिए नये-नये विचार दिये। अकबर के काल में स्थापत्य कला की जो नई शैली विकसित हुई, वह वास्तव में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का समन्वय थी।

अकबरकालीन स्थापत्य की कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार थीं-

(1.) भवन निर्माण में अधिकांशतः लाल बलुआ पत्थर का उपयोग हुआ है, कहीं-कहीं पर सफेद संगमरमर का प्रयोग किया गया है।

(2.) अकबरी स्थापत्य शैली में मेहराबी और शहतीरी शैलियों का समान अनुपात में प्रयोग किया गया है।

(3.) आरम्भ में गुम्बद लोदी शैली में बनते रहे जो भीतर से खोखले होते थे किंतु तकनीकी दृष्टि से यह दोहरा गुम्बद नहीं था।

(4.) स्तम्भ का अग्रभाग बहुफलक युक्त था और इनके शीर्ष पर बै्रकेट या ताक होते थे।

(5.) भवनों का अलंकरण प्रायः नक्काशी या पच्चीकारी द्वारा होता था और उनमें चमकीले रंग भरे जाते थे।

अकबरी स्थापत्य का विकास दो चरणों में हुआ। प्रथम चरण में फतेहपुर सीकरी से पहले के स्थापत्य को रखा जाता है जिसमें आगरा, इलाहाबाद और लाहौर के किला शामिल हैं। दूसरे चरण में फतेहपुर सीकरी के निर्माण हैं।

दिल्ली में निर्मित भवन: अकबर के समय दिल्ली में बने प्रमुख भवनों में हुमायूं का मकबरा (ई.1562) सर्वप्रमुख है। इस मक़बरे की चारबाग शैली भारत में पहली बार प्रयुक्त हुई थी। इसके अनुकरण पर ही आगे चलकर ताजमहल तथा उसके चारों ओर के उद्यान का निर्माण हुआ। समकालीन इतिहासकार अब्द-अल-कादिर बदायूनीं के अनुसार इस भवन का मुख्य वास्तुकार मिराक मिर्जा घियास था जिसे अफगानिस्तान के हेरात शहर से इस मकबरे के निर्माण के लिए विशेष रूप से बुलवाया गया था।

उसने हेरात में कई भवन बनाए थे। मकबरे का निर्माण पूर्ण होने से पहले ही मिराक मिर्जा घियास की मृत्यु हो गई। अतः शेष कार्य उसके पुत्र सैयद मुहम्मद इब्न मिराक घियाथुद्दीन ने पूरा करवाया। मकबरे का मुख्य भवन ई.1571 में बनकर तैयार हुआ। यह मुगल सल्तनत की पहली इमारत थी जिसमें लाल बलुआ पत्थर का इतने बड़े स्तर पर प्रयोग हुआ था।

इस भवन-समूह में बादशाह हुमायूँ तथा शाही परिवार के सदस्यों की कब्रें हैं जिनमें हुमायूँ की बेगम हमीदा बानो, हुमायूँ की छोटी बेगम, शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह, मुगल बादशाह जहांदारशाह, फर्रूखशीयर, बादशाह रफीउद्दरजात, रफीउद्दौला एवं आलमगीर (द्वितीय) आदि की कब्रें शामिल हैं।

मकबरा निर्माण की यह शैली पूर्ववर्ती मंगोल शासक तैमूर लंग के समरकंद (उजबेकिस्तान) में बने मकबरे पर आधारित थी तथा यही मकबरा आगे चलकर भारत में मुगल स्थापत्य के मकबरों की प्रेरणा बना। ताजमहल के निर्माण के साथ ही मकबरा निर्माण की यह स्थापत्य शैली अपने चरम पर पहुँच गई।

हुमायूं के मकबरे के दक्षिण-पूर्वी कौने में ई.1590 में निर्मित शाही-नाई का गुम्बद है। यह मकबरा एक ऊँचे चबूतरे पर बना है जिस तक पहुँचने के लिये दक्षिणी ओर से सात सीढ़ियां बनी हुई हैं। यह वर्गाकार है और इसके अकेले कक्ष के ऊपर एक दोहरा गुम्बद बना हुआ है। भीतर स्थित दो कब्रों पर कुरआन की आयतें खुदी हुई हैं। इनमें से एक कब्र पर 999 अंकित है जिसका अर्थ हिजरी सन् 999 अर्थात् ई.1590-91 से है।

हुमायूँ के मकबरे की मुख्य चहारदीवारी के बाहर स्थित स्मारकों में ‘बूहलीमा का मकबरा’ प्रमुख है। इसका स्थापत्य एक आयताकार साधारण मकान के रूप में है जिस पर कोई गुम्बद, मीनार, बुर्ज, ईवान, मेहराब आदि फारसी संरचनाएं नहीं हैं। इस मकान को स्थानीय क्वार्टजाइट पत्थरों से बनाया गया है। बूहलीमा के मकबरे के निकट ‘अरब सराय’ स्थित है जिसे हुमायूं की विधवा हमीदा बेगम ने अरब से आए 300 कारीगरों के लिए बनवाया था।

इस सराय का मुख्य द्वारा एक बड़े ईवान के रूप में बनाया गया है जिसमें दो विशाल मेहराब बनाए गए हैं। इस द्वारा से प्रवेश करने पर सराय का मुख्य हिस्सा दो भागों में बंटा हुआ दिखाई देता है जिनमें एक जैसी मेहराबदार कोठरियां बनी हुई हैं तथा अब भग्न अवस्था में हैं। इस मेहंदी बाजार भी कहा जाता है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे जहाँगीर के मुख्य हींजड़े मिहर बानू ने बनाया था।

अरब सराय के निकट एक प्लेटफार्म पर अफसर वाला मकबरा तथा अफसरवाली मस्जिद निर्मित हैं तथा दोनों इमारतें स्थानीय क्वार्टजाईट पत्थर से बनी हैं। दोनों भवनों की बाहरी दीवारों पर लाल बलुआ पत्थर से सजावट की गई है। लाल बलुआ पत्थर में सफेद संगमरमर से पर्चिनकारी की गई है।

इन इमारतों के भीतर की बनावट फारसी शैली पर आधारित है तथा सादगी पूर्ण है। दोनों ही भवन अब जीर्ण अवस्था में हैं। मस्जिद का मुख्य कक्ष ‘थ्री बे’ बना हुआ है। बीच की ‘बे’ के चारों ओर मेहराब बने हुए हैं जिनके ऊपर एक गुम्बद स्थित है।

गुम्बद के भीतरी हिस्से में चित्रों का एक पूरा पैनल है। मस्जिद का ‘तिहरा ईवान’ फारसी शैली में निर्मित है। अफसरवाला मकबरे के भीतर एक ही कक्ष है जिसमें संगमरमर की कब्रें बनी हुई हैं जिनमें से एक कब्र पर कुरान की नौ सौ चौहत्तरवीं आयत लिखी गई है जो संभवतः हिजरी 974 की द्योतक है। अफसर वाला मकबरा के ऊपर दो गुम्बद बने हुए हैं। यह मकबरा बाहर से अष्टकोणीय है।

इनमें से चार तरफ की दीवारों में मेहराबदार चार प्रवेशद्वार बने हैं जो सीधे ही कब्र वाले कमरे में खुलते हैं। मेहराबों को लाल बलुआ पत्थरों के अलंकरणों से सजाया गया है। गुम्बद के ऊपर एक उलटा कमल लगा है जो कलश के लिए आधार बनाता है। इस आधार पर एक मंगल-कलश रखा हुआ है। अकबर कालीन भवन में इस प्रकार का कमल एवं कलश बहुत कम दिखाई देता है।

अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा के पुत्र आदम खाँ अथवा (अदहम खाँ) के लिए दिल्ली में एक मकबरा बनवाया। यह मक़बरा दक्षिणी दिल्ली के लालकोट की दीवार पर बने एक चबूतरे पर बना है। इस अष्टकोणीय इमारत के गुम्बद को 15-16वीं सदी के सैयद और लोदी शासन-काल में बनी इमारतों की शैली में बनाया गया है। मक़बरे में चारों तरफ मेहराबदार बरामदे बने हैं। प्रत्येक बरामदे में तीन दरवाजे हैं।

आगरा में निर्मित भवन: आगरा का किला एक प्राचीन हिन्दू दुर्ग था जिसमें लोदी शासकों ने कुछ निर्माण करवाए थे। बाबर ने भी इस दुर्ग में एक बावली बनवाई थी। अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने भी इस दुर्ग में कुछ महल बनवाए तथा पुराने महलों का जीर्णोद्धार किया। अबुल फजल ने लिखा है- ‘यह किला ईंटों से बना हुआ था और बादलगढ़ के नाम से जाना जाता था। यहाँ लगभग पाँच सौ सुंदर इमारतें, बंगाली व गुजराती शैली में बनी थीं।’

यह किला अत्यंत जीर्ण-शीर्ण स्थिति में था इसलिए अकबर ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया। उसने धौलपुर के निकट करौली से लाल पत्थर मंगवाकर ईंटों की दीवारों पर चढ़वा दिया और लगभग सम्पूर्ण दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया। 8 साल तक लगभग 4,000 कारीगर एवं श्रमिक इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करते रहे। ई.1573 में यह दुर्ग दुबारा से बनकर तैयार हुआ और अकबर अपने परिवार सहित इसमें निवास करने लगा। किले का मुख्य द्वार अर्थात् दिल्ली दरवाजा और जहाँगीरी महल अकबर के समय के ही निर्मित हैं।

आगरा दुर्ग का ई.1566 में निर्मित दिल्ली दरवाजा अकबर के प्रारम्भिक काल की स्थापत्य कला विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस किले का निर्माण तराशे हुए लाल बलुआ पत्थर से किया गया है। इन भवनों के मेहराब, दोनों ओर झुकी हुई अष्टकोणीय दीवारें, तोरणयुक्त छतें, मण्डप, कंगूरे, लाल बलुआ पत्थर पर सफेद पत्थर का अलंकरण प्रमुख हैं। अकबरी महल की स्थापत्य शैली, जहाँगीरी महल के स्थापत्य की तुलना में कम कलात्मक है एवं भद्दी सी दिखाई देती है। अकबरी महल में बंगाली शैली के बुर्ज बने हुए हैं तथा यह महल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है।

इलाहाबाद दुर्ग में निर्मित भवन: प्रयागराज (इलाहाबाद) का किला मूलतः किसी हिन्दू राजा ने बनवाया था जिसे अकबर ने नए सिरे से बनवाया। नदी की कटान से यहाँ की भौगोलिक स्थिति स्थिर न होने से इसका नक्शा अनियमित ढंग से तैयार किया गया। अनियमित नक्शे पर किले का निर्माण कराना ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। दुर्ग में जहाँगीर महल, तीन बड़ी गैलरी तथा ऊँची मीनारें हैं। मुगलों ने दुर्ग में कई फेरबदल कराये।

अजमेर दुर्ग में निर्मित भवन: अकबर पहाड़ी दुर्ग में रहने का अभ्यस्त नहीं था। वह आगरा, लाहौर, इलाहाबाद तथा फतहपुर सीकरी के मैदानी दुर्गों में रहना पसंद करता था जहाँ बड़े-बड़े बाग बनाए जा सकें। इसलिये उसने अजमेर में भी एक प्राचीन हिन्दू दुर्ग को मुस्लिम शैली में ढालकर उसका जीर्णोद्धार करवाया। इसके भीतर अकबर ने अपने लिये एक महल बनवाया। यह दुर्ग फतहपुर सीकरी के महल की अनुकृति है और विशाल चतुष्कोणीय आकृति में है। इसके चारों कोनों पर अष्टकोणीय मीनारें हैं। इसका द्वार नगर की तरफ मुंह किये हुए है। केन्द्रीय भाग में विशाल बैठक बनी है। दुर्ग के चारों कोनांे में एक-एक बुर्ज बनी हुई है। इसकी पश्चिमी दिशा में एक सुंदर दरवाजा है तथा इसके मध्य में भवन बना हुआ है। इस दुर्ग का दरवाजा 84 फुट ऊँचा तथा 43 फुट चौड़ा है।

फतहपुर सीकरी का स्थापत्य: फतेहपुर सीकरी, आगरा से 23 मील दक्षिण-पश्चिम में एक ढालू पहाड़ी पर स्थित है। इस नगर के तीन ओर दीवारें और एक ओर कृत्रिम झील थी। यह नगर ई.1571 में बनना आरम्भ हुआ और ई.1580 में बनकर तैयार हुआ। फतेहपुर सीकरी के भवनों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-

(1.) मजहबी इमारतें- जामा मस्जिद, शेख सलीम चिश्ती की दरगाह, बुलंद दरवाजा, इबादतखाना (केन्द्रीय कक्ष या दीवाने आम) आदि।

(2.) रिहाइशी इमारतें- ख्वाबगाह, जोधाबाई महल, बीरबल महल (जनाना महल), बीबी मरियम महल, तुर्की सुल्ताना महल, अबुल फजल एवं फैजी के महल आदि।

(3.) कार्यालयी इमारतें- खजाना, दीवाने आम, दीवाने खास (खास महल) आदि।

क्या फतेहपुर सीकरी की शैली राष्ट्रीय स्थापत्य शैली है?

फतेहपुर सीकरी की अकबर कालीन समस्त इमारतें हिंदू-मुस्लिम मिश्रित स्थापत्य शैली की हैं। इनमें हिन्दू स्थापत्य की प्रधानता है। इनमें से कुछ की सजावट, जैसे- दीवाने खास में लगे हुए स्तम्भों के तोड़े, पंचमहल और जोधाबाई के महल में लगे हुए उभरे घण्टे तथ जंजीर और मरियम के महल में पत्थर खोदकर बनाये गये पशु-पक्षियों के चित्र इत्यादि हिन्दू और जैन मन्दिरों की ही नकल हैं।

संगमरमर और बलुआ लाल पत्थर से बना हुआ बुलन्द दरवाजा स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘फतेहपुर सीकरी की स्थापत्य कला की शैली भारतीय प्राचीन संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों को समन्वित करने और मिलाने की अकबर की नीति को ही जैसे पाषाण रूप में प्रस्तुत करती हैं।’ 

डा. श्रीवास्तव ने अकबर की इस समन्वित स्थापत्य शैली को राष्ट्रीय स्थापत्य कला शैली कहा है। अकबर ने स्थापत्य की जो नई शैली विकसित की, उसका प्रभाव सारे देश पर और राजस्थान के राजपूत राजाओं पर पड़ा। अकबर के शासनकाल में अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, आम्बेर, ओरछा और दतिया में जो महल बने, उन पर मुगल कला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

हिन्दुओं के मन्दिर भी इस शैली के प्रभाव से नहीं बच सके। हिन्दू राजाओं के महलों के बारे में पर्सी ब्राउन ने लिखा है- ‘राजपूत भवनों को देखकर कोई भी कल्पना कर सकता है कि उनमें प्रारम्भिक मुगली कला, जैसे-कटोरेदार मेहराबें, काँच की पच्चीकारी, दरीखाना, पलस्तर की रँगाई किस प्रकार हिन्दू राजाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपना लिये गये थे।’

इन इतिहासकारों ने अकबर-कालीन इमारतों में हिन्दू-मुस्लिम एकता के तत्व ढूंढे हैं जबकि इस वास्तविकता को भी भुलाया नहीं जाना चाहिए कि फतेहपुर सीकरी के अधिकांश महलों का निर्माण सिकरवार राजपूतों ने करवाया था, अकबर ने तो केवल उनके बाहरी रूप को बदला था। अंग्रेजी इतिहासकार, लेखक एवं पुरातत्ववेत्ता इस बात को नहीं समझ पाए थे, इसलिए उन्होंने मुगल कालीन इमारतों में हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित शैली के दर्शन किए।

बाद के भारतीय लेखकों ने भी उन्हीं के लिखे हुए को सच मान लिया। बहुत से भारतीय लेखकों ने तो इन भवनों को अपनी आंखों से देखे बिना ही यूरोपीय लेखकों का अनुसरण किया। यहाँ तक कि कुछ इतिहासकारों ने फतेहपुर सीकरी के भवनों को राष्ट्रीय स्थापत्य शैली भी घोषित कर दिया। न तो फतहपुर सीकरी की शैली कोई अलग है और न फतहपुर सीकरी के स्थापत्य का देश के किसी भी हिस्से में अनुसरण हुआ, इसलिए इसे राष्ट्रीय स्थापत्य शैली नहीं कहा जा सकता।

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