Sunday, December 22, 2024
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अध्याय – 34 (अ) : मुगल शासन व्यवस्था एवं संस्थाएँ

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इतिहास में मुगलों के शासन को कुलीनों का शासन कहा जाता है। मुगलकालीन शासन व्यवस्था के मूल ढाँचे को खड़ा करने का श्रेय अकबर को है। उसने जिस शासन पद्धति को लागू किया, वह थोड़े-से परिवर्तनों के साथ औरंगजेब के समय तक तथा उसके भी बाद तक जारी रही। मंगोलों की शासन व्यवस्था में अरब तथा फारस की व्यवस्था के चिन्ह विद्यमान थे। इन विदेशी तत्त्वों के साथ भारतीय शासन व्यवस्था और भारतीय आदर्श भी घुलमिल गये थे। जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘मुगल शासन प्रणाली भारतीय और अभारतीय प्रणाली का एक मिला-जुला सम्मिश्रण था अथवा वास्तविक रूप में फारस और अरब की प्रणाली भारतीय परिस्थितियों में प्रयोग की गयी थी।’

मुगलों ने भारत के बाहर के किसी भी मुस्लिम शासक अथवा खलीफा की सत्ता के प्रति नाममात्र की अधीनता भी स्वीकार नहीं की थी। इस दृष्टि से उनका युग, सल्तनत काल से काफी भिन्न था। सल्तनत काल की ही तरह मुगलों की शासन व्यवस्था का मूलाधार सैनिक शासन ही था। दिल्ली सुल्तानों के विपरीत मुगल शासकों ने प्रजा के लिए अच्छी जीवन परिस्थितियों का निर्माण करना अपना कर्त्तव्य समझा।

बादशाह

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने इस्लामी कानूनों का पालन करने का प्रयास किया था परन्तु मुगल बादशाहों ने कुछ मामलों में इस्लामी परम्परा का पालन नहीं किया। मुगलों ने स्वयं को केवल मुसलमान प्रजा का शासक नहीं माना। अकबर और जहाँगीर ने स्वयं को अपनी समस्त प्रजा का बादशाह माना और समस्त प्रजा के साथ लगभग एक जैसा व्यवहार किया। मुगल बादशाहों ने इस्लामी परम्परा के विरुद्ध जाकर, हिन्दू राजाओं की भांति स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि घोषित किया। यह बात हिन्दू शासकों के राजत्व सिद्धान्त के अधिक निकट थी।

मुगलकाल में समस्त शक्तियाँ बादशाह में केन्द्रीभूत थीं। बादशाह शासन की धुरी था। इस दृष्टि से वे पूर्णतः निरंकुश शासक थे परन्तु उन्हें स्वेच्छाचारी अथवा अत्याचारी कहना उचित नहीं होगा। वे जन-कल्याण में रुचि रखते थे और इसके लिये प्रयास भी करते थे। अकबर से शाहजहाँ तक के मुगल बादशाहों में प्रजा हित की भावना सर्वोपरि रही। अतः यह कहना अधिक उचित होगा कि वे स्वेच्छाचारी उदार शासक थे। उनके अधिकारों पर किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी। वे कुछ विशेषाधिकारों का उपभोग भी करते थे। मुगलिया सल्तनत में प्रचलित समस्त उपाधियों एवं राजकीय सम्मान का दाता केवल बादशाह ही होता था। प्रजा को ‘झरोखा दर्शन’ देने का अधिकार भी उसी का था। इसी प्रकार तस्लीम और कोर्निश भी केवल उसी का अधिकार था। केवल बादशाह ही नक्कारों का प्रयोग कर सकता था। उसके अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति हाथियों के दंगल का आयोजन नहीं कर सकता था।

अधिकांश मुगल बादशाह अपने मन्त्रियों तथा अमीरों से सलाह लिया करते थे और उनके प्रभाव को ध्यान में रखकर कार्यवाही करते थे। दिल्ली सल्तनत के तुर्की एवं अफगानी सुल्तानों ने अपने अमीरों की शक्ति को कुचलकर अपनी शक्ति को बढ़ाने का प्रयास किया था परन्तु मुगल बादशाहों ने अमीरों का विश्वास तथा सहयोग प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ बनाया। जब कोई अमीर विद्रोह करता था तब मुगल बादशाह उसे दृढ़ता से कुचलते थे। यह परम्परा बैरमखाँ के दमन के साथ आरम्भ हुई थी जो अंत तक चलती रही।

शासन के विभाग

बाबर से अकबर तक के समय में शासन व्यवस्था के चार प्रमुख विभाग थे। अकबर के काल में दो वर्षो के लिए यह संख्या पाँच हो गई थी जब टोडरमल को मशरफे-दीवान अर्थात् अर्थमन्त्री बना दिया गया था किन्तु यह विशेष परिस्थिति में किया गया था। औरंगजेब के शासनकाल में इन मन्त्रियों की संख्या बढ़कर 6 हो गयी। इन मन्त्रिमण्डल विभागों के अतिरिक्त एक परामर्शदाता समिति का उल्लेख भी मिलता है। इसके सदस्यों की संख्या लगभग 20 थी। अकबर महत्त्वपूर्ण एवं जटिल विषयों पर इस समिति से परामर्श लेता था। समिति की बैठक रात्रि में होती थी।

मुगल शासन के मुख्य अधिकारी

मुगल बादशाह राजतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार मंत्री अथवा सलाहकार रखते थे। इस संस्था को प्रचलित भाषा में वजारत कहते थे। मंत्री बादशाह को केवल परामर्श दे सकते थे। उसे स्वीकार करना या न करना बादशाह की इच्छा पर निर्भर था। वास्तव में सब कुछ बादशाह तथा उसके मन्त्रियों के व्यक्तित्त्व पर निर्भर करता था। जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘वजीर और दीवान बादशाह से दूसरी श्रेणी के धनवान पुरुष होते थे किन्तु अन्य पदाधिकारी उनके किसी भी रूप में सहकारी नहीं थे। वे यथार्थ में उनसे कहीं नीचे थे। यदि उन्हें मन्त्री की अपेक्षा सचिव कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा।’

वकील-ए-मुतलक अथवा वजीर

सैद्धान्तिक रूप से वजीर शासन का प्रधान था। वह समस्त राजकीय कार्यवाहियों के प्रति उत्तरदायी थी। उसे प्रधानमंत्री, वकील-ए-मुतलक और दीवान भी कहते थे। शासन का सारा दायित्व उसी पर था। दीवान होने के नाते वह राजस्व विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था और राज्य की सम्पूर्ण आय-व्यय की देखभाल करता था। आइने अकबरी के अनुसार- ‘दीवान अर्थ सम्बन्धी बातों में बादशाह का नायब होता था, शाही राजकोषों की देखरेख करता था और हिसाब-किताब की जाँच करता था। उसी के पास मालगुजारी की रकम जमा रहती थी। वह अराजकता की स्थिति में व्यवस्था स्थापित करने वाला था। उसे बादशाह और जनता दोनों से ही सम्पर्क बनाये रखना होता था। सरकारी नौकरियों में नियुक्ति दीवान की सिफारिश पर होती थी। राजकार्यों से सम्बन्धित कई आदेशपत्रों पर दीवान के हस्ताक्षर होने आवश्यक थे, बख्शी के कार्यालय से सम्बन्धित प्रपत्र दीवान के हस्ताक्षरों के बिना मान्य नहीं थे। मनसबदारों की तनख्वाह, जागीरों के खर्च, प्रान्तों में भेजी जाने वाली रकम, मदद-ए-माश आदि पर उसके हस्ताक्षर होते थे। दीवान नवीन पद ग्रहण करने वालों को प्रमाण-पत्र जारी करता था। जनता की राजस्व सम्बन्धी शिकायतें दीवान के समक्ष प्रस्तुत की जाती थीं। उसके विभाग में लगभग समस्त आवश्यक दस्तावेज रहते थे। इस प्रकार दीवान का कार्यालय राज्य का प्रमुख अभिलेखागार था। उसके सहायक अधिकारियों में दीवान-ए-खालसा, दीवान-ए-तन, मुस्तौफी एवं दीवान-ए-बयूतात प्रमुख थे। इस प्रकार मुगल सल्तनत में दीवान का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। औरंगजेब के बाद हुए अयोग्य मुगल बादशाहों के शासनकाल में सल्तनत की वास्तविक शक्ति दीवान अथवा वजीर के हाथों में चली गई।

मीर बख्शी

सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी मीर बख्शी होता था परन्तु वह सेना का प्रधान सेनापति नहीं होता था। उसकी नियुक्ति बादशाह द्वारा सैनिक प्रबंधन के लिये की जाती थी। इस पद के कार्य समय के साथ बदलते रहे। प्रारम्भ में मीर बख्शी का प्रमुख कार्य सैनिकों की भर्ती करना, घोड़ों को दाग लगाना, सैनिकों का हुलिया लिखना एवं सेना के लिये आवास तथा रसद आदि की व्यवस्था करना था। बाद में उसे अन्य कई जिम्मेदारियाँ दे दी गईं। जिससे इस पद के अधिकारी के लिए सैन्य योग्यता के साथ-साथ प्रशासनिक योग्यता होनी भी आवश्यक हो गई। अकबर के समय में इस पद का समुचित उत्थान हुआ। बख्शी के कार्यक्षेत्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1.) कार्यालय सम्बन्धी कार्य और (2.) दरबार सम्बन्धी कार्य।

(1.) कार्यालय सम्बन्धी कार्य: सेना के कार्यालय सम्बन्धी कार्य के अन्तर्गत कई विभाग आते थे। प्रत्येक विभाग का कार्यक्षेत्र निश्चित था। मनसबदारों की नियुक्ति एवं उनके मनसबों के आधार पर उनके सैनिकों की संख्या, वेतन, जागीर आदि की जाँच बख्शी के कार्यालय में होती थी। मीर बख्शी के प्रमाणपत्र के बिना मनसबदारों के वेतन का भुगतान नहीं होता था।

(2.) दरबार सम्बन्धी कार्य: अबुल फजल लिखता है कि मीर बख्शी बाहर से आये समस्त नवीन सैनिकों के वेतन तय करवाकर उन्हें बादशाह के समक्ष उपस्थित करता था। बख्शी बादशाह की यात्राओं, बाहरी दौरों तथा आखेट में साथ रहता था। वह पड़ाव की देखरेख एवं मनसबदारों के ठहरने की व्यवस्था देखता था। वह कभी-कभी महत्त्वूपर्ण अभियानों में सेना के साथ भी भेजा जाता था। शाही महलों की सुरक्षा के लिए मनसबदारों की ड्यूटी लगाने का काम भी उसी का था। उसके विस्तृत एवं व्यापक काम में सहायता देने के लिये उसके अधीन अनेक अधिकारी एवं कर्मचारी रखे गये थे। जदुनाथ सरकार ने बख्शी को पे-मास्टर एवं ब्लाकमैन ने उसे पे-मास्टर एवं एड्जुटेण्ट कहा है किन्तु डॉ. आर. के. सक्सेना के अनुसार वास्तव में वेतन का भुगतान दीवान-ए-तन ही करता था न कि मीर बख्शी। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि यह एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पद था।

खानेसामां (खान-ए-सामान)

अकबर के शासनकाल तक खान-ए-सामान के पद को मन्त्री पद के समान नहीं माना जाता था परन्तु बाद में यह पद महत्त्वपूर्ण हो गया। वह घरेलू विभाग से सम्बन्धित था और बादशाह की दैनिक भोजन व्यवस्था, कपड़े, हीरे-जवाहरात, गोला-बारूद और शाही महलों के काम आने वाले पशुओं तक की देखरेख करता था। इस पद पर महत्त्वपूर्ण उमरावों की नियुक्ति की जाती थी। खानेसामां का प्रमुख कार्य राजकीय परिवार से सम्बन्धित सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति एवं देखरेख करना था। वह बादशाह के निजी सेवकों एवं गुलामों का प्रधान था। वह राजमहल में रहकर और यदि बादशाह बाहर दौरे पर हो तो वहाँ भी साथ रहकर दैनिक खर्चे, खान-पान, वस्त्र आदि की व्यवस्था देखता था। बादशाह के हरम की आवश्यकताओं को भी वहीं देखता था। मनूची ने लिखा है कि खान-ए-सामान बादशाह के समस्त प्रकार के व्यय के प्रति उत्तरदायी था। शाही कारखानों में जहाँ नाना प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन होता था, उनकी सम्पूर्ण देखभाल भी खानेसामां के नियंत्रण मंे थी। इस दृष्टि से खानेसामां का पद राज्य में नवीन वस्तुओं के निर्माण, कारीगरों को प्रोत्साहन देने एवं राजमहल के प्रबंधन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण पद था।

काजी-उल-कुजात (प्रधान काजी)

बादशाह के बाद न्याय विभाग का दूसरा महत्त्वपूर्ण पद काजी-उल-कुजात अर्थात् प्रधान काजी का होता था। मुगलों की न्याय व्यवस्था का प्रमुख आधार मुस्लिम कानून निर्माताओं द्वारा इस्लाम के आधार पर निर्मित सिद्धान्त एवं दिल्ली सुल्तानों द्वारा स्थापित न्याय व्यवस्था थी। बादशाह की अत्यधिक व्यस्त्ता के कारण यह सम्भव नहीं था कि  वह समस्त अपीलों की सुनवाई कर सके, इसलिए काजी-उल-कुजात की नियुक्ति की जाती थी जो अपीलों की सुनवाई करता था। काजी-उल-कुजात साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश था जो सल्तनत की सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था के लिये उत्तरदायी था। उसका मुख्य काम प्रान्तों, जिलों और नगरों में काजियों को नियुक्त करना तथा उनके निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनना था। उसकी सहायता के लिए मुफ्ती होते थे जो इस्लामी कानूनों की व्याख्या करते थे। मुगलकाल के अधिकांश काजी भ्रष्ट तथा घूसखोर थे। जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘मुगलकाल के लगभग समस्त काजी कुछ अपवादों को छोड़कर घूस लेने के लिए बदनाम थे।’ डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव और डॉ. इब्नहसन का मत है कि काजी-उल-कुजात (प्रधान काजी) और सद्र-उस-सुदूर (प्रधान सद्र) एक ही व्यक्ति होता था।

सद्र-उस-सुदूर (प्रधान सद्र)

मुस्लिम कानूनों के वे ज्ञाता जिन्हें शरा की पूरी जानकारी होती थी, उलेमा कहलाते थे। बादशाह शासन के कार्यों में उलेमाओं से परामर्श लेता था। एक ही साथ अनेक उलेमाओं से परामर्श लेना सम्भव नहीं था, इसलिये बादशाह किसी एक उलेमा को शेख-उल-इस्लाम के पद पर नियुक्त करता था जिसे काजी-उल-कुजात भी कहा जाता था। कठिन प्रश्नों पर विचार करने के लिए ‘शरा’ के अन्य ज्ञाताओं को भी बुलाया जाता था जिन्हें सुदूर कहा जाता था। जो सुदूर स्थाई रूप से परामर्श के लिए नियुक्त होता था उसे सद्र-उस-सुदूर कहा जाता था। इसका मुख्य काम धार्मिक मामलों पर बादशाह को सलाह देना होता था। सद्र-उस-सुदूर का काम राजकीय दान-पुण्य की व्यवस्था करना, धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करना, विद्वानों और साधु-संतों के लिए राजकीय अनुदान की व्यवस्था करना था। डॉ. इब्नहसन का मत है कि सद्र-उस-सुदूर का काम उलेमाओं को राज्य द्वारा जागीरें बख्शीश करवाने तथा निर्धनों को धन दान दिलवाने तक ही सीमित था। औरंगजेब ने सद्र-उस-सुदूर को पहली बार मंत्री स्तर प्रदान किया।

मुहतसिब

मुहतसिब का कार्य जनसाधारण के नैतिक चरित्र एवं आदर्श को उन्नत बनाना था। व्यावहारिक दृष्टि से इसका कार्यक्षेत्र मुसलमानों तक ही सीमित था। उसका मुख्य काम यह देखना था कि मुसलमान प्रजा, इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार जीवन यापन करती है या नहीं। मुसलमानों को इस्लाम के विरुद्ध आचरण करने से रोकना भी उसका उत्तरदायित्व था। औरंगजेब के शासनकाल में इस पदाधिकारी का महत्त्व काफी बढ़ गया था क्योंकि उसे सल्तनत में निर्मित होने वालेे हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने का काम दे दिया गया था। शराबखानों तथा जुए के अड्डों को समाप्त करना भी उसका काम था। इस कार्य के लिए वह सैनिकों के साथ नगर का दौरा करता था।

अन्य पदाधिकारी

उपर्युक्त प्रमुख पदाधिकारियों के अलावा अन्य कई महत्त्वपूर्ण अधिकारी शासन व्यवस्था से सम्बन्धित थे। इनमें बुयातात, मीर आतिश, दारोगा-ए-डाक-चौकी आदि मुख्य कहे जा सकते हैं। बुयातात का काम मृत पुरुषों की धन-सम्पत्ति का लेखा रखना तथा उस धन में से राजकीय कर को काटकर शेष धन मृत पुरुष के उत्तराधिकारियों को लौटाना था। मीर आतिश तोपखाने का अध्यक्ष होता था। वह मीर बख्शी के अधीन काम करता था। उसका मुख्य काम शाही महल एवं दुर्ग की सुरक्षा का प्रबन्ध करना था। दरोगा-ए-डाक-चौकी राजकीय-डाक-विभाग का अध्यक्ष होता था। शासकीय पत्रों को भिजवाने के साथ-साथ उसे गुप्तचर विभाग भी सौंपा गया था। इसलिए शासन में उसका प्रभाव काफी बढ़ा हुआ था। निष्कर्षतः कहा जाता सकता है कि मुगलों की केन्द्रीय शासन व्यवस्था काफी सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित थी।

प्रान्तीय शासन व्यवस्था

बाबर एवं हुमायूँ ने प्रान्तीय व्यवस्था स्थापित करने में कोई विशेष योगदान नहीं दिया। इसलिये सल्तनत कालीन व्यवस्था ही चलती रही। अकबर के शासनकाल मंे मुगल सल्तनत को सूबों (प्रान्तों) में बांटा गया। आइने अकबरी ने इनकी संख्या 12 बताई है। 1599 ई. तक बरार, खानदेश और अहमदनगर की विजय से तीन सूबे और बढ़ गये। इस प्रकार, अकबर के शासन के अन्त में मुगल साम्राज्य 15 सूबों में विभाजित था। जहाँगीर के समय में यही संख्या बनी रही परन्तु शाहजहाँ द्वारा थट्टा, उड़ीसा और काश्मीर को स्वतंत्र सूबे बना देने से सूबों की संख्या बढ़कर 18 हो गई। औरंगजेब द्वारा बीजापुर और गोलकुण्डा की विजय से दो सूबे और बढ़ गये। सूबों का क्षेत्रफल स्थायी नहीं होता था। केन्द्रीय सरकार की आवश्यकता के अनुसार इसमें परिवर्तन होते रहते थे। प्रान्तों की आय में भी कोई समानता नहीं थी। साधारणतः समस्त सूबे बराबर थे किन्तु सुरक्षा और सामरिक महत्त्व की दृष्टि से कुछ सूबों पर अन्यों की तुलना में अधिक ध्यान दिया जाता था।

सूबेदार

मुगलों की प्रान्तीय शासन व्यवस्था का ढाँचा उनकी केन्द्रीय शासन व्यवस्था से मिलता-जुलता था। जदुनाथ सरकार उसे केन्द्रीय व्यवस्था का लघु रूप ही मानते हैं। प्रान्त का सर्वोच्च अधिकारी सिपहसालार तथा सूबा-ए-साहिब कहलाता था। यह पदाधिकारी सूबे में बादशाह का ही प्रतिरूप था। उसकी नियुक्ति बादशाह द्वारा की जाती थी। सामान्यतः यह पद राजवंश के सदस्यों तथा उच्च मनसबदारों को दिया जाता था। सूबेदार की नियुक्ति और पदोन्नति के सम्बन्ध में निश्चित नियम नहीं थे। सूबेदार की नियुक्ति एक सूबे में कितने समय तक रहेगी, इसके भी स्पष्ट नियम नहीं थे। सामान्यतः तीन वर्ष की अवधि के बाद उनका स्थानान्तरण किया जाता था। मुगल बादशाह की भाँति सूबेदार का अपना दरबार होता था। वह एक विशाल सेना रखता था। सूबेदार के मुख्य कामों में प्रान्त में शान्ति एवं व्यवस्था को कायम रखना, शाही आदेशों का पालन करवाना, प्रान्त से राजस्व वसूली के कार्य में सहयोग देना, विद्रोहों का दमन करना, न्याय प्रदान करना और जन-सुविधा का ध्यान रखना शामिल था। सूबेदार के लिये ऐसे कार्य करने की मनाही थी जो बादशाह के विशेषाधिकार में थे, जैसे- चमड़ी उधड़वाना, हाथी के पैरों से कुचलवाना, झरोखा-दर्शन देना आदि। मृत्युदण्ड के मामलों में उसे शाही निर्देशों के अनुसार कार्य करना होता था। बादशाह की पूर्व स्वीकृति के बिना वह पड़ौसी राज्यों से युद्ध अथवा सन्धि नहीं कर सकता था। वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों- दीवान और सद्र को नियुक्त अथवा पदच्युत भी नहीं कर सकता था।

दीवान-ए-सूबा

प्रान्तीय शासन व्यवस्था का दूसरा महत्त्वपूर्ण अधिकारी दीवान-ए-सूबा था। प्रान्त में सूबेदार के पश्चात् दीवान का ही पद था। यह प्रान्त में केन्द्रीय राजस्व विभाग का प्रतिनिधि था और किसी भी तरह से सूबेदार के अधीन नहीं था। वह सूबेदार का प्रतिद्वन्द्वी था। दोनों ही एक-दूसरे पर निगरानी रखते थे। प्रान्तीय दीवान का चुनाव केन्द्रीय दीवान करता था और बादशाह उसकी नियुक्ति करता था। दीवान का मुख्य काम प्रान्त से राजस्व वसूल करना तथा राजस्व वसूली के लिए प्रान्तीय अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नियुक्त करना था। राजस्व सम्बन्धी विवादों को निपटाना तथा कृषि की उन्नति की तरफ ध्यान देना भी उसी का काम था। उसे अपने कामों के लिए सूबेदार की सहायता पर निर्भर रहना पड़ता था। क्योंकि दीवान के अधिकार में अलग से सैनिक नहीं होते थे। वह अपनी रिपोर्ट केन्द्रीय दीवान के पास भेजता था।

सद्र-ए-सूबा

दीवान के पश्चात न्याय और धार्मिक विभाग के अध्यक्ष का पद प्रमुख था। सद्र की नियुक्ति केन्द्र के सद्र-उस-सुदूर की सिफारिश पर बादशाह द्वारा की जाती थी। वह अपने क्षेत्र में इस्लाम के हितों के प्रति उत्तरदायी था।

काजी-ए-सूबा

काजी-ए-सूबा प्रान्तों में प्रमुख न्यायाधीश था जिसकी नियुक्ति बादशाह काजी-उल-कुजात की सिफारिश पर करता था। वह दीवानी और फौजदारी दोनों ही प्रकार के मुकदमों की सुनवाई करता था।

बख्शी-ए-सूबा

बख्शी-ए-सूबा अथवा बख्शी, प्रान्त का प्रमुख अधिकारी था। इसकी नियुक्ति मीर बख्शी की सिफारिश पर बादशाह द्वारा की जाती थी। वह सूबे के सैनिकों की देखभाल करता था। वह प्रान्त में मनसबदारों की सूची भी रखता था। प्रान्तीय बख्शी वाकियानवीस का भी कार्य करता था। उसे माह में दो बार प्रान्त की गतिविधियों की सूचना बादशाह को भेजनी पड़ती थी।

जिला शासन व्यवस्था

मुगल काल में भी प्रान्त जिलों में विभाजित थे, जो सरकार कहलाते थे। सरकार महाल या परगने में विभाजित थी। परगने का निर्माण कई गाँवों के मिलने से होता था। शाहजहाँ के समय में कुछ परगनों को मिलाकर एक अन्य इकाई का निर्माण किया गया जिसे चकला कहा जाता था। कितने परगनों को मिलाकर एक सरकार बनती थी और एक प्रान्त में कितनी सरकार होती थी, यह निश्चित नहीं था।

फौजदार

जिले के सर्वोच्च अधिकारी को फौजदार कहते थे। उसका पद और कार्य आजकल के जिला कलक्टर के समान था। वह प्रान्तीय सूबेदार के प्रति उत्तरदायी होता था। जिले में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए उसके अधीन एक सैनिक टुकड़ी रहती थी। जदुनाथ सरकार का मानना है कि फौजदार केवल प्रान्तीय सेना का एक सेनापति होता था और उसका कार्य छोटे-छोटे विद्रोहों का दमन करना, डाकुओं का उन्मूलन करना तथा राजस्व अधिकारियों को सहयोग प्रदान करना था। उसकी नियुक्ति प्रान्तीय सूबेदार की सिफारिश पर बादशाह द्वारा की जाती थी।

अमल गुजार

जिले की शासन व्यवस्था का दूसरा प्रमुख अधिकारी अमल गुजार होता था। यह मालगुजारी एकत्र करने से सम्बन्धित मुख्य अधिकारी था। इसकी नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती थी किन्तु वह प्रान्तीय दीवान के प्रति उत्तरदायी होता था। अमलदार को बेईमान और उपद्रवी किसानों के साथ कठोर व्यवहार करने के आदेश थे। सरकारी खजाने की देखभाल भी उस के अधीन थी।

बितिक्ची

अमल गुजार के अधीन बितिक्ची होता था जो भूमि और लगान सम्बन्धी कागज तैयार करता था। वह किसानोें को लगान वसूली की रसीद देता था। परगने की शासन व्यवस्था शिकदार, आमिल, पोतदार, कानूनगो और कारकून चलाते थे।

शिकदार

शिकदार परगने का मुख्य सैनिक अधिकारी होता था जो अपने क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था के लिए जिम्मेदार था। वह राजस्व वसूली के कार्य में भी सहयोग देता था।

आमिल

आमिल परगने का वित्त अधिकारी था। उसका मुख्य काम किसानों से लगान वसूल करना था।

पोतदार

पोतदार परगने का खजांची था। कानूनगो परगने के पटवारियों का अधिकारी था। उसका मुख्य काम लगान, भूमि और कृषि सम्बन्धी दस्तावेजों की देखभाल करना तथा उन्हें तैयार करना था।

कोतवाल

बड़े नगर की व्यवस्था के लिए एक कोतवाल होता था। उसके पास 100 पैदल सैनिक एवं 50 घुड़सवार सैनिक होते थे। कोतवाल मुख्य रूप से नगर पुलिस का अध्यक्ष होता था किन्तु साथ ही वह नगरपालिका का प्रशासन और फौजदारी के मुकदमों के लिए स्थानीय न्यायाधीश का काम भी करता था। वह नगर में शान्ति व्यवस्था बनाये रखना, मूल्यों, मापतौल के बाटों का निरीक्षण करना, अपराधों को रोकना, लावारिसों की सम्पत्ति की व्यवस्था करना, बूचड़खानों, कब्रगाहों और शमशानों पर निगरानी रखना आदि कार्य भी करता था।

ग्राम शासन

मुगलों के काल में गाँवों की शासन व्यवस्था पहले की भाँति परम्परागत ग्राम पंयाचतों के द्वारा की जाती रही। गाँवों के प्रमुख अधिकारियों में मुकद्दम, पटवारी, चौकीदार आदि मुख्य थे। डॉ. परमात्माशरण के अनुसार मुस्लिम शासकों ने अपनी दूरदृष्टि और राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए ग्राम बिरादरी के स्थानीय शासन के मामले में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा।

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