बादशाह का कोर्ट मार्शल चलता रहा। बहादुरशाह ने शुरु-शुरु में तो इसमें कुछ रुचि दिखाई किंतु बाद में ऊबने लगा। संभवतः उसे समझ में आ गया था कि कोर्ट मार्शल का निर्णय पहले ही हो चुका है। यह तो केवल खाना-पूर्ति हो रही है। अंततः मिलिट्री कोर्ट ने घोषित किया कि बहादुरशाह का निष्कासन करके उसे भारत से बर्मा भेज दिया जाए।
27 जनवरी 1858 को आरम्भ हुई बहादुरशाह जफर के मुकदमे की कार्यवाही दो माह तक चलती रही। इस पूरे दौरान तेज सर्दियां पड़ रही थीं जिनके कारण बादशाह जोर-जोर से खांसने एवं कराहने लगता था। जब बादशाह की तबियत बिगड़ जाती तो उस दिन की कार्यवाही बंद करके अगले दिन पर टाल दी जाती।
9 मार्च 1858 को कोर्ट मार्शल अंतिम बार बैठा। उसी दिन शाम को तीन बजे कोर्ट ने अपना निर्णय दे दिया। पांचों सैनिक न्यायाधीशों ने एक स्वर से बहादुरशाह जफर को अपराधी ठहराया। कोर्ट मार्शल के अध्यक्ष ने कहा कि ऐसे अपराध की सजा मौत होती है किंतु चूंकि विलियम हडसन ने बादशाह को गारण्टी दी थी कि उसे मारा नहीं जाएगा, इसलिए उसे पूरी जिंदगी भारत से बाहर अण्डमान निकोबार या किसी अन्य स्थान पर भेज दिया जाए जिसका निर्णय स्वयं गवर्नर जनरल करेंगे।
इसके अगले दिन अर्थात् 10 मार्च 1858 को अत्याचारी विलियम हडसन लखनऊ में क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा मारा गया। कहा नहीं जा सकता कि विलियम हॉडसन तक इस निर्णय की जानकारी पहुंच पाई थी अथवा नहीं!
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बहादुरशाह जफर के अभियोग का निर्णय सुनाने के बाद सात महीने तक कम्पनी सरकार यह सोचती रही कि बादशाह को भारत की मुख्य भूमि से दूर कहाँ भेजा जाए! गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग बादशाह को अण्डमान भेजकर बदनामी मोल नहीं लेना चाहता था। अंततः सितम्बर 1858 में बर्मा की राजधानी रंगून को बहादुरशाह जफर के निर्वासन के लिए चुना गया। इस प्रकार बहादुरशाह का निष्कासन होना निश्चित हो गया।
चूंकि भारत के पूर्वी हिस्सों में क्रांति की आंच अभी पूरी तरह ठण्डी नहीं हुई थी, इसलिए अंग्रेजों को भय था कि कहीं क्रांतिकारी बहादुरशाह जफर को अंग्रेजों की जेल से छुड़ाने का प्रयास न करें। इसलिए अनुभवी लेफ्टिनेंट एडवर्ड ओमेनी को यह दायित्व सौंपा गया कि वह स्वयं बादशाह को दिल्ली से लेकर जाए और अपने हाथों से उसे रंगून की जेल में बंद करके आए।
बादशाह को दिल्ली से निकालने की योजना को पूरी तरह गुप्त रखा गया। बहुत कम अंग्रेज अधिकारियों को बताया गया कि कम्पनी के गवर्नर जनरल ने लाल किले के बादशाह को रंगून भेजने का निर्णय किया है। 7 अक्टूबर 1858 की प्रातः तीन बजे लेफ्टिनेंट ओमेनी ने लाल किले की गंदी कोठरियों में जाकर बहादुरशाह जफर को जगाया और उससे कहा कि वह तैयार होकर बाहर खड़ी बैलगाड़ी में बैठ जाए। लेफ्टिनेंट ओमेनी अपने साथ और भी बहुत सारी बैलगाड़ियां और पालकियां लाया था। उसके पास पूरी सूची थी कि कौन-कौन व्यक्ति इन बैलगाड़ियों और पालकियों में बैठेगा।
बादशाह के साथ अब भी उसके दो जीवित शहजादे रहते थे। इनमें से पंद्रहवें नम्बर का शहजादा जवां बख्त बेगम जीनत महल का बेटा था जिसे जीनत महल ने भारत का बादशाह बनाने के सपने देखे थे। सोलहवें नम्बर का शहजादा मिर्जा शाह अब्बास भी इस समय बादशाह के पास था। वह जफर की एक रखैल मुबारकुन्निसा की अवैध संतान था। इस समय वह 13 साल का था।
इन दोनों शहजादों को भी अनिवार्य रूप से अपने पिता के साथ निर्वासन में जाने का आदेश हुआ। बादशाह की दो बेगमें भी उसके साथ बैलगाड़ियों में बैठाई गईं। कुछ नौकर, रखैलें और ख्वाजासरा भी शाही परिवार के साथ बैलगाड़ियों में बैठाए गए। जब जफर के परिवार के कुछ अन्य लोगों को ज्ञात हुआ कि शाही परिवार को दिल्ली से बाहर ले जाया जा रहा है तो वे स्वयं अपनी इच्छा से बादशाह के साथ चलने को तैयार हो गए। इस प्रकार शाही काफिले में कुल 31 व्यक्ति हो गए। इन सभी को एक घण्टे के अंदर तैयार करके गाड़ियों में बैठा दिया गया।
शाही काफिले को नौवीं लांसर्स ने घेर लिया। इस सैनिक टुकड़ी में एक घुड़सवार तोपखाना, दो पालकियां और तीन पालकी गाड़ियों का दस्ता था। यह पूरा प्रबंध पूरी तरह से गुप्त रूप से किया गया था। यहाँ तक कि स्वयं बहादुरशाह को भी नहीं बताया गया कि रात के अंधेरे में उन्हें दिल्ली से कहाँ ले जाया जा रहा है!
दिल्ली के कमिश्नर चार्ल्स साण्डर्स की पत्नी ने अपनी सास को लिखे एक पत्र में लिखा- ‘उन्हें जितनी शीघ्रता से रवाना किया जाना संभव था, उतनी शीघ्रता से दिल्ली से रवाना कर दिया गया। स्वयं चार्ल्स साण्डर्स ने इस शाही यात्रा के लिए बैलगाड़ियों, ढंकी हुई पालकियों और मार्ग में लगाए जाने वाले तम्बुओं का गुप्त प्रबंध किया था।’
कमिश्नर स्वयं भी प्रातः तीन बजे उठकर ओमेनी के साथ लाल किले में पहुंच गया था। उसने न केवल यह सुनिश्चत किया कि प्रातः चार बजे तक शाही काफिला लाल किले से रवाना हो जाए अपितु वह स्वयं घोड़े पर बैठकर इस काफिले के साथ यमुनाजी पर नावों को जोड़कर बनाए गए पुल तक गया ताकि वह यह भी सुनिश्चित कर सके कि दिल्ली का कोई व्यक्ति इस शाही काफिले को दिल्ली से जाते हुए तो नहीं देख रहा है!
इस प्रकार 332 साल बाद बाबर के बेटों की भारत से अंतिम विदाई हो गई। बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब ने भारत के लगभग समस्त राजाओं के महलों को लूटकर विपुल सोना, चांदी, हीरे, जवाहर यहाँ तक कि संसार का सबसे बड़ा हीरा भी आगरा और दिल्ली के लाल किलों में जमा कर लिया था किंतु आज वे दोनों ही लाल किले खाली पड़े थे। न उनमें सोना-चांदी बचा था और न उनमें रहने के लिए बाबर का कोई बेटा!
जहाँ तक भारतवासियों का प्रश्न था, उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता था कि बहादुरशाह का निष्कासन हो या उसके साथ कुछ और हो!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता