ई.1324 में जब सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक बंगाल विजय के लिये गया तब वह शहजादे जूना खाँ को राजधानी में छोड़ गया ताकि सुल्तान की अनुपस्थिति में कोई अमीर बगावत करके दिल्ली पर अधिकार नहीं कर ले। अब शहजादे जूना खाँ ने सुल्तान के विरुद्ध षड़यंत्र रचना आरम्भ किया।
कुछ महीने बाद जब सुल्तान गयासुद्दीन लखनौती तथा तिरहुत पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त दिल्ली लौटने लगा तो उसने अपने बड़े शहजादे जूना खाँ को आज्ञा भेजी कि राजधानी से बाहर एक महल बनाया जाये जिससे सुल्तान उसमें रात्रि व्यतीत करके दूसरे दिन समारोह के साथ राजधानी में प्रवेश कर सके।
इस पर जूना खाँ ने मीर-इमारत अहमद अयाज नामक एक अमीर को लकड़ी का एक महल बनाने की आज्ञा दी। जब सुल्तान वापस आया तब शहजादे ने तुगलकाबाद में बड़े समारोह के साथ उसका स्वागत किया। तुगलकाबाद से तीन-चार मील दूर अफगानपुर में सुल्तान को प्रीतिभोज देने के लिए एक शामियाना लगवाया गया।
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जब भोजन समाप्त हो गया तब समस्त आमन्त्रित अतिथि शामियाने के बाहर निकल गये। केवल सुल्तान तथा उसका एक छोटा पुत्र महमूद खाँ, जिसमें सुल्तान की विशेष अनुरक्ति थी, शामियाने के भीतर रह गये।
इसी समय शहजादे जूना खाँ ने सुल्तान से पूछा कि क्या जो हाथी बंगाल से लाये गये हैं, उनका संचालन किया जाये! सुल्तान इस प्रस्ताव से सहमत हो गया। जब हाथियों का संचालन हो रहा था तब अचानक शामियाना गिर पड़ा और सुल्तान तथा उसके अल्पवयस्क पुत्र महमूद खाँ की मृत्यु हो गई।
उसी रात को सुल्तान का शरीर तुगलकाबाद के मकबरे में दफन कर दिया गया। इब्नबतूता ने सुल्तान की मृत्यु का सारा दोष जूना खाँ पर डाला है। राजनीति वैसे भी किसी को सगा नहीं मानती किंतु चौदहवीं शताब्दी में भारत की राजनीति रक्त-रंजित षड़यन्त्रों से भरी हुई थी। इस युग में कोई किसी का कुछ नहीं लगता था। राज्य सत्ता, स्त्री, सम्पत्ति तथा भूमि के लिये लोग अपने भाई, बहिन, पुत्र, पिता, पत्नी तक के प्राण ले लेते थे। जूना खाँ ने भी यही किया था। उसने राज्य, धन और अधिकार हड़पने के लिये अपने पिता तथा भाई के प्राण ले लिये थे।
आखिर उसके पिता गयासुद्दीन ने भी इसी राज्य, धन और अधिकार पाने के लिये पूर्ववर्ती सुल्तान के प्राण हरे थे। सुल्तान की मृत्यु के तीन दिन बाद जूना खाँ, मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठ गया तथा चालीस दिन तक काले वस्त्र पहन कर अफगानपुरी में शोक मनाता रहा। जब मरहूम सुल्तान गयासुद्दीन के समस्त अन्तिम संस्कार सम्पन्न हो गये तब जूना खाँ ने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। मार्च 1325 में भव्य समारोह के साथ जूना खाँ का राज्याभिषेक हुआ।
वह मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। उसे अपने पिता से अत्यन्त संगठित तथा सुव्यवस्थित विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था। तत्कालीन लेखक मेहदी हुसैन के अनुसार इतना विशाल साम्राज्य तब तक किसी भी तुर्क सुल्तान को अपने पिता से नहीं मिला था। उसके पिता का राजकोष भी धन तथा रत्नों से परिपूर्ण था। मुहम्मद बिन तुगलक को सुल्तान बनते समय किसी भी प्रकार का आर्थिक संकट नहीं था। तख्त पर बैठते समय उसके तीन भाई जीवित थे किंतु किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। इस प्रकार उसे न बाह्य आक्रमणों का भय था और न आन्तरिक विद्रोह का। अगली कड़ी में देखिए- मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली की सड़कों पर सोने की अशर्फियां लुटा दीं!