दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनकर गियासुद्दीन बलबन ने ‘जिल्ले इलाही’ तथा ‘नियामत ए खुदाई’ जैसी भारी भरकम उपाधियां धारण कीं और बड़ी शानो-शौकत के साथ दिल्ली पर राज करने लगा। उससे पहले किसी भी सुल्तान ने ऐसे ऐश्वर्य का प्रदर्शन नहीं किया था। बलबन एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उस काल के मुस्लिम इतिहासकार बलबन को पैगम्बर मानते थे जिसे अल्लाह ने भारत में इस्लाम के प्रसार हेतु भेजा था। अतः स्वाभाविक ही था कि बलबन विद्रोही हिन्दू राजाओं का कठोरता से दमन करता।
बलबन ने रणथंभौर, ग्वालियर तथा चंदेरी के राजाओं का दमन करके उन्हें फिर से दिल्ली के अधीन बनाया। दो-आब के हिन्दू विद्रोहियों का भी दृढ़़ता से दमन किया। उस काल के इतिहासकारों ने लिखा है कि बलबन ने दो-आब के अधिकतर हिन्दू-पुरुषों का वध कर दिया तथा उनकी स्त्रियों और बच्चों को पकड़कर गुलाम बना लिया।
यद्यपि भारत में तुर्की साम्राज्य को स्थापित हुए लगभग 60 वर्ष हो चुके थे तथापि चारों दिशाओं से दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण होते रहे थे। इस कारण सल्तनत में तुर्की संस्थाएं गठित नहीं हो पाई थीं। केन्द्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के संगठन में कोई उन्नति नहीं की गई थी और न विजेता तथा विजित में सम्पर्क बनाने का प्रयत्न किया गया था।
विजेता अब भी विदेशी समझे जाते थे। भारत की जनता उन्हें घृणा से देखती थी और उनका आधिपत्य स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। जनसाधारण की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। सल्तनत के अमीरों की निष्ठा संदिग्ध रहती थी और वे षड़यंत्र तथा कुचक्र रचने में संलग्न रहते थे।
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चालीस गुलामों का मण्डल षड़यंत्रकारी एवं विघटनकारी शक्तियों का नेतृत्व करते थे। वे बलबन के सुल्तान बन जाने से असंतुष्ट थे। इसलिए उनका दमन करना आवश्यक था। बलबन ने न केवल अन्य तुर्की अमीरों का अपितु शम्सी अमीरों का भी दमन किया जो स्वयं को दूसरों से अधिक अभिजात्य मानते थे। बलबन ने कई अमीरों से उनकी जागीरें छीन लीं।
जब बलबन की कार्यवाहियां आगे भी जारी रहीं तो दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन ने बलबन के समक्ष उपस्थित होकर उससे अनुरोध किया कि वह अमीरों के विरुद्ध और अधिक कठोर कार्यवाही नहीं करे। इस पर बलबन ने अमीरों तथा सूबेदारों का पीछा छोड़ा।
खोखरों का दमन तो बलबन उसी समय कर चुका था, जब वह नासिरुद्दीन का प्रधानमंत्री था। उस काल में खोखरों एवं मंगोलों का एक गठजोड़ बन गया था। बलबन ने न केवल उस गठजोड़ को बिखेर दिया था अपितु भारत पर आक्रमण करने वाले मंगोलों का बड़ी क्रूरता से दमन किया था।
इस समय तक मंगोल गजनी तथा ट्रांसऑक्सियाना पर अधिकार कर चुके थे तथा बगदाद के खलीफा को मौत के घाट उतार चुके थे। मंगोल सेनाएं भारत के सिंध और पंजाब प्रांतों पर बार-बार आक्रमण करके निरंतर लूटमार मचा रहे थे। उनके आक्रमणों को रोकने के लिये बलबन ने पश्चिमोत्तर सीमा के लिये अलग सेना का गठन किया तथा उस सेना को स्थाई रूप से पश्चिमोत्तर सीमा पर तैनात कर दिया। बलबन ने वहाँ कई दुर्ग भी बनवाये जिनमें सेना को रखा जा सके।
जब बंगाल के सूबेदार तुगरिल खाँ ने दिल्ली से सम्बन्ध विच्छेद करके अवध पर आक्रमण किया तो जाजनगर के हिन्दू राजा ने तुगरिल खाँ का सामना किया तथा तुगरिल खाँ को परास्त कर दिया। इस पर तुगरिल खाँ ने बलबन से सहायता मांगी।
इस पर बलबन को बंगाल में कार्यवाही करने का अवसर मिल गया। बलबन ने तुगरिल खाँ पर आक्रमण करके उससे युद्ध का हरजाना मांगा। इस पर तुगरिल खाँ ने अवध की जागीर बलबन को दे दी तथा स्वयं दिल्ली के अधीन हो गया।
सल्तनत के विभिन्न भागों में विद्रोह होते रहने के कारण राजकोष का बहुत बड़ा अंश सेना के रख-रखाव पर व्यय करना पड़ता था। मंगोलों के आक्रमणों को रोकने तथा विद्रोहियों का दमन करने में काफी धन व्यय करना पड़ता था।
अनेक सरदार समय-समय पर कर देना बन्द करके उपद्रव करने लगते थे। इसका राज्य की आय पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता था। राज्य की आर्थिक दशा को सुधारे बिना अन्य समस्याओं को सुलझना असम्भव था।
बलबन ऐसे समय में तख्त पर बैठा था जब तुर्कों की सत्ता स्थायी रूप से भारत में स्थापित हो गई थी। अब राजनीतिक व्यवस्था एक निश्चित स्वरूप प्राप्त कर रही थी और बलबन का कार्य उसे निश्चित स्वरूप देने और उसे स्थायी बनाने का था।
दिल्ली सल्तनत में अब तक राजत्व के आदर्शों तथा उनके क्रियात्मक रूप में विभेद नहीं हो सका था। इल्तुतमिश के निर्बल उत्तराधिकारी जिनको सदैव अपनी जान के लाले पड़े रहते थे, इस कार्य को नहीं कर सके। न तो उन्हें इसका कोई अनुभव था और न उनमें इस कार्य को करने की योग्यता थी। बलबन अनुभवी, दूरदर्शी, विचारशील तथा दृढ़़-संकल्प का व्यक्ति था। अतः उसमें राजत्व के आदर्शों तथा उनके क्रियात्मक रूप में विभेद करने की क्षमता थी किंतु इन्हें लागू करने के लिये धैर्य, लगन, समय एवं योग्य कर्मचारियों की आवश्यकता थी।
इससे स्पष्ट है कि बलबन के लिये दिल्ली का ताज काँटों से भरा हुआ था परन्तु बलबन लम्बे समय से दिल्ली सल्तनत में विभिन्न प्रशासकीय कार्य कर चुका था तथा विगत 20 वर्षों से वह राज्य के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर रहा था इसलिये उसे इन समस्याओं से निबटने में विशेष कठिनाई नहीं होने वाली थी। बलबन ने अपने शासन को मजबूत करने के लिये कई कदम उठाए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता