मुगल बादशाहें में वसीयत लिखने की परम्परा नहीं थी किंतु औरंगजेब की वसीयत मुगलों के इतिहास की उस काली सच्चाई से परिचय करवाती है जो मुगल शहजादों का खून पीने के लिए आतुर थी।
औरंगजेब के पांच पुत्र थे जिनमें से दो उसके जीवन काल में ही मर गए थे। उसके जीवित बचे पुत्रों में से हालांकि मुअज्जमशाह सबसे बड़ा था किंतु औरंगजेब उसे पसंद नहीं करता था क्योंकि मुअज्जमशाह ने ई.1787 में जोधपुर नरेश जसवंतसिंह, मराठों के राजा शिवाजी और उसके पुत्र शंभाजी के साथ मिलकर औरंगजेब के विरुद्ध बगावत की थी। इसलिए औरंगजेब ने ई.1787 से लेकर ई.1794 तक मुअज्जमशाह एवं उसके परिवार को दिल्ली की जेल में बंद रखा था।
हालांकि ई.1794 में मुअज्जमशाह को जेल से निकालकर लाहौर एवं काबुल का सूबेदार बना दिया गया था तथापि उसे कभी भी किसी सैनिक अभियान पर नहीं भेजा गया। क्योंकि सैनिक अभियान पर भेजने के लिए मुअज्जमशाह को बड़ी सेना देनी पड़ती तथा औरंगजेब को भय था कि मुअज्जमशाह उसी सेना के बल पर औरंगजेब को पकड़ लेगा या मार डालेगा।
जिस समय औरंगजेब की मृत्यु हुई, उसने आजमशाह एवं कामबक्श को अलग-अलग पत्र लिखे जिनसे यह ज्ञात होता है कि अपनी मृत्यु के समय औरंगजेब अपने सबसे छोटे पुत्र कामबक्श से सर्वाधिक प्रेम करता था तथा उसके जीवन को लेकर चिंतित था।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में झगड़ा न हो इसके लिए औरंगजेब बहुत सतर्क रहता था। वह यह दिखाने का प्रयत्न करता था कि उसके लिए तीनों पुत्र एक जैसे प्रिय हैं। इसलिए उसने किसी भी शहजादे को वली-ए-अहद घोषित नहीं किया था। वली-ए-अहद बादशाह के जीवन काल में शासन व्यवस्था में दूसरे नम्बर पर होता था तथा वही सल्तनत का उत्तराधिकारी समझा जाता था।
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अपने पुत्रों के भावी संघर्ष को रोकने के लिए औरंगजेब ने अपनी मृत्यु से पहले एक वसीयत भी लिखी जो औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके तकिये के नीचे से मिली थी। औरंगजेब की वसीयत में मुगल शहजादों को सलाह दी गई थी कि वे भारत के समस्त प्रांतों को तीन भागों में बांट लें। इनमें से दक्षिण भारत के प्रांत कामबक्श को दे दें जिनमें खानदेश, बरार, औरंगाबाद, बीदर तथा इस क्षेत्र के समस्त बंदरगाहों को सम्बद्ध किया जाए।
औरंगजेब की वसीयत में मुगल सल्तनत के उत्तरी भारत के प्रांतों को दिल्ली एवं आगरा नामक दो भागों में विभक्त करके अपने शेष दो पुत्रों को आपस में बांट लेने की सलाह दी थी। उसने आगरा के साथ मालवा, गुजरात और अजमेर को सम्बद्ध करने की सलाह दी तथा दिल्ली के साथ पंजाब, काबुल, मुलतान, थट्टा काश्मीर बंगाल, उड़ीसा बिहार, इलाहाबाद और अवध नामक ग्यारह सूबों को सम्बद्ध किए जाने की सलाह दी।
औरंगजेब की वसीयत में भले ही कुछ भी क्यों न लिखा गया हो, औरंगजेब के पुत्रों ने सल्तनत के बंटवारे के विचार को स्वीकार नहीं किया। औरंगजेब के तीनों बेटे अपने बाप-दादों द्वारा शासित सम्पूर्ण क्षेत्र पर अपना-अपना अधिकार चाहते थे। मुअज्जमशाह नवाबबाई का बेटा था। उसे औरंगजेब ने शाहआलम की उपाधि दी थी इस कारण अनेक पुस्तकों में उसे शाहआलम कहा गया है। औरंगजेब की मृत्यु के समय मुअज्जम शाह पेशावर के निकट जमरूद में तथा कामबख्श बीजापुर में था। औरंगजेब ने आजमशाह को मालवा जाने के निर्देश दिए थे किंतु आजमशाह कोई बहाना बनाकर अहमदनगर से कुछ दूर जाकर रुक गया था और अपने पिता की मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था।
आजमशाह का पुत्र बेदारबख्त जो कि औरंगजेब को अत्यधिक प्रिय था, गुजरात के मोर्चे पर था। जैसे ही आजमशाह को बादशाह के मरने की सूचना मिली, वह अहमदनगर पहुंच गया और औरंगजेब को दौलताबाद के निकट एक गांव में दफनाने के बाद उसने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। इसके बाद वह अपने पुत्र अली तबर, बेदारबख्त तथा मिर्जा वालाजहा के साथ आगरा की तरफ चल पड़ा।
बीजापुर में मुकाम कर रहे शहजादे कामबक्श ने भी स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया तथा अपने नाम के सिक्के ढलवाए। औरंगजेब का सबसे बड़ा जीवित शहजादा मुअज्जमशाह उस समय पेशावर के निकट जमरूद में था। आगरा से जमरूद 700 मील तथा आगरा से अहमदनगर 715 मील की दूरी पर हैं।
इस दृष्टि से मुअज्जमशाह तथा आजमशाह को आगरा पहुंचने में बराबर का समय लगने वाला था किंतु मुअज्जमशाह ने औरंगजेब की मृत्यु से पहले ही उत्तराधिकार की लड़ाई के लिए तैयारियां शुरु कर दी थीं। उसने लाहौर के नायब-सूबेदार मुनीम खाँ की सहायता से व्यास और सतलज के क्षेत्रों से स्थानीय शासकों की सेनाएं प्राप्त कर ली थीं।
मुअज्जमशाह ने पेशावर से लाहौर तक सड़क की मरम्मत करवा ली तथा पेशावर से आगरा की तरफ पड़ने वाली नदियों पर अस्थाई पुलों का निर्माण करवा लिया ताकि वह अपनी सेना को तेज गति से आगरा तक ले जा सके। उसने अपने पुत्र अजीमुश्शान को एक बड़ी सेना लेकर बंगाल से आगरा की तरफ आने के निर्देश भिजवाए तथा बूंदी नरेश बुधसिंह हाड़ा और आम्बेर नरेश विजयसिंह से दोस्ती करके उनसे भी सहायता प्राप्त कर ली।
3 मई 1707 को मुअज्जमशाह जमरूद से चलकर लाहौर पहुंचा। वहीं पर उसने स्वयं को बादशाह घोषित किया। इस समय लाहौर के शाही खजाने में 28 लाख रुपए मौजूद थे। मुअज्जमशाह इस खजाने को लेकर 5 मई 1707 को आगरा के लिए चल पड़ा। 1 जून को वह दिल्ली पहुंच गया। वहाँ उसने निजामुद्दीन औलिया तथा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर हाजिरी दी। उस समय दिल्ली के लाल किले में स्थित शाही खजाने में 30 लाख रुपए थे। मुअज्जमशाह ने वे रुपए भी ले लिए।
3 जून 1707 को मुअज्जमशाह आगरा के लिए रवाना हो गया। वह आगरा शहर के बाहर पोयाह घाट पर ठहरा तथा उसने आगरा दुर्ग के किलेदार बाक़ी खान कुल को निर्देश भिजवाए कि वह आगरा का दुर्ग मुनीम खाँ को सौंप दे। किलेदार बाक़ी खान कुल ने मुअज्जमशाह का मुकाबला करना बेकार समझा तथा मुनीम खाँ को दुर्ग सौंप दिया।
मुनीम खाँ ने आगरा के दुर्ग में घुस कर शाही खजाने को सील कर दिया। अब मुअज्जमशाह ने अपने भाई आजम खाँ को पत्र लिखकर निर्देशित किया-
‘वह दक्षिण भारत के प्रांतों पर संतोष करे जैसा कि उसके पिता ने अपनी वसीयत में लिखा है। यदि वह दक्षिण भारत के हिस्से से संतुष्ट नहीं है तो उसे गुजरात तथा अजमेर के सूबे भी दिए जा सकते हैं। यदि इस पर भी आजमशाह संतुष्ट नहीं हो तो फिर सल्तनत का निर्णय तलवार के द्वारा होगा।’
मुअज्जमशाह के पत्र के जवाब में आजमशाह ने लिखा-
‘मकान में मेरा हिस्सा फर्श से छत तक है जबकि तेरा हिस्सा छत से आकाश तक है।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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