कांचलिया पंथ की तंत्रसाधना अघोरियों तथा भैरवी साधकों से ली गई है ! मानव देह में सहजानन्द का विस्फोट करना ही इसका उद्देश्य जान पड़ता है जिसकी ऊर्जा से मानव सहस्रदल का भेदन करता है।
वाम साधना या अघोर साधना में संसार की प्रत्येक वस्तु को ईश्वरीय रचना मानकर उन्हें समान भाव से देखा जाता है। इस परम्परा के साधकों के लिए बुरा, त्याज्य या घृणित कुछ भी नहीं है।
अघोरियों के के लिए यज्ञकुण्ड से निकल रही सुवासित अग्नि और चिता से उठ रही लपटें एक समान पवित्र हैं। इसलिए वे चिता की अग्नि में भोजन बनाते हैं। चिता में से मुर्दा देह को निकालकर उसका मांस वैसे ही खाते हैं, जैसे इंसान अपने घर में अनाज की रोटियां बनाकर खाता है।
अघोरी साधक अपनी साधना को पक्की करने के लिए शमशान में निवास करते हैं, मृत शरीर पर बैठकर साधना करते हैं, मृत मनुष्य के कपाल में भोजन करते हैं, चिता की भस्म शरीर पर लपेटते हैं और मृत शरीर के साथ सहवास करते हैं।
अघोर पंथ की यही चिंतन पद्धति, शाक्त मत के बहुत से पंथों में प्रवेश कर गई है। यही कारण है कि शाक्त मत के कुछ पंथों में स्त्री और पुरुष के भोग के समय बहने वाला तरल इन पंथों के साधकों के लिए उतना ही पवित्र है जितनी कि संसार की अन्य कोई वस्तु।
कांचलिया पंथ के साधक इस तरल को वाणी कहते हैं तथा उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इस पंथ की स्थापना, कूण्डा पंथ के साधकों द्वारा अरावली की पहाड़ियों में की गई।
कूण्डा पंथ की स्थापना चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र के शासक राव मल्लीनाथ ने की थी। हालांकि इस पंथ की साधना विधियां पहले से ही रेगिस्तानी क्षेत्र में मौजूद थीं।
कांचलिया पंथ की स्थापना निश्चित रूप से चौदहवीं शताब्दी के बाद की है।
अरावली की पहाड़ियों में गोगूंदा के पास एक स्थान है जरगाजी, यहाँ कांचलिया पंथ की खास धूणी है। जरगाजी रूणीचे के शासक बाबा रामदेव के सेवक थे। मान्यता है कि एक बार लोकदेवता रामदेवजी अपने सेवक जरगाजी पर बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने जरगाजी को आशीर्वाद दिया कि मेरे साथ तेरा नाम भी अमर रहेगा। बाबा रामदेव भी राव मल्लीनाथ के समकालीन थे तथा उन्होंने कामड़ पंथ की स्थापना की थी।
कूण्डा तथा कामड़, दोनों ही पंथों के अनुयाई बलाई, रेगर, चमार, मेघवाल तथा मोग्या आदि जातियों के लोग होते हैं। इन लोगों की महिलाएं रामदेवजी के भजनों के साथ तेरह ताली नृत्य करती हैं। शिवरात्रि के दिन जरगाजी में एक विशाल मेला लगता है जिसमें कामड़ पंथ के अनुयाई बड़ी संख्या में भाग लेते हैं। ये लोग तंदूरे की तान पर बहुत मधुर भजन गाते हैं। रात्रि में रात्रिजगा होता है। बहुत से श्रद्धालु, कामड़ पंथ के लोगों से झमा दिलवाते हैं।
संभवतः कामड़ पंथ के कुछ लोग कूण्डा पंथ में सम्मिलित हो गए थे तथा उन्हीं में से कुछ साधकों ने अरावली की पहाड़ियों में कांचलिया पंथ की स्थापना की। अकेला पुरुष या अकेली स्त्री कांचलिया पंथ के सदस्य नहीं हो सकते। पति-पत्नि संयुक्त रूप से ही कांचलिया पंथ ग्रहण कर सकते हैं। इस पंथ का एक गुरु होता है तथा उसका एक कोटवाल होता है। यह गुरु, किसी भी सदस्य के निवेदन पर संगत का आयोजन करता है।
आयोजक की ओर से इस संगत का सारा खर्च वहन किया जाता है। उसकी ओर से साधकों के लिए चूरमा-बाटी का प्रबन्ध किया जाता है तथा साधकों के लिए पाट पूरा जाता है।
गुरु के आदेश से कोटवाल, संगत के आयोजन की सूचना, गुप्त रूप से साधकों तक पहुंचाता है। रात को लगभग 10 बजे साधक गण एक निश्चित एकांत स्थान पर एकत्रित होने लगते हैं।
संगत आरम्भ करने से पहले, साधक लोग मिलकर दाल-बाटी-चूरमा तैयार करते हैं और सामहिक रूप से धूप-ध्यान करके भोजन करते हैं।
आयोजन स्थल पर पाट पूरा जाता है। इसके लिए धरती पर सवा हाथ लम्बा सफेद कपड़ा बिछाया जाता है। इसके ऊपर लाल कपड़ा बिछाया जाता है तथा इसके चारों किनारों पर पंचमेवा- खारक, बादाम, किशमिश, पिश्ता एवं मिश्री रखी जाती है।
कपड़े के बीच में सतिया बनाया जाता है। इसके ऊपर चंद्रमा तथा सूरज बनाए जाते हैं। इन दोनों के बीच में रामदेवजी का घोड़ा बनाया जाता है। इसके नीचे रामदेवजी के पगल्ये बनाये जाते हैं जिसके दोनों ओर पांच-पांच टोपे बनाए जाते हैं।
सतिए पर कलश स्थापित किया जाता है। इस कलश पर जोत रखी जाती है। पाट पूजने की इस प्रक्रिया में सवा सेर चावल लिए जाते हैं। इसी पाट के पास मिट्टी के एक चौड़े बर्तन या केवेलू में चूरमे तथा खोपरे की धूप लगाई जाती है।
रात्रि के लगभग दो बजे तक भजनभाव होते हैं। भजन समाप्ति के बाद गुरु के निर्देशानुसार सभी साधक स्त्रियां अपनी कांचलियां खोलकर कोटवाल को देती हैं। कोटवाल इन कांचलियों को कलश के पास रखे मिट्टी के कूंडे में डाल देता है।
पाट पर रखे चावलों में से गुरु अपने हाथ में चावल के कुछ दाने लेता है जिसे सादके धारना कहते हैं।
पांच की संख्या वाले सादके ‘मोती’ कहलाते हैं। पांच से कम-ज्यादा की संख्या में आने वाले सादके ‘जोड़’ कहलाते हैं। यदि सादके पांच से कम आते हैं तो उन्हें फिर से पाट पर रख दिया जाता है तथा नए सादके लिए जाते हैं। मोती प्राप्त होने पर ही साधक को कांचली दी जाती है।
जब मोती प्राप्त हो जाता है तो गुरु, मन में धारे हुए व्यक्ति को कूंडे में पड़ी हुई कांचलियों में से एक कांचली निकालकर देता है। गुरु के हाथ में जिस साधिका की कांचली आती है, साधक को उसी साधिका के साथ भोग करने का आदेश दिया जाता है।
साधक तथा साधिका कलश के पास लटकाए गए एक पर्दे के पीछे जाकर भोग करते हैं। भोग स्वरूप पुरुष शरीर से जो तरल बहता है, साधिका उस तरल को हाथ में लेकर पर्दे की ओट से बाहर आती है। इस तरल को वाणी कहते हैं।
गुरु के पास एक पात्र रखा होता है जिसमें उस वाणी को एकत्रित किया जाता है। इस प्रकार गुरु बारी-बारी से सादके धारता रहता है और कांचली उठाकर-उठाकर पुरुष साधकों को देता रहता है।
जब सबकी बारी पूरी हो जाती है तो जितनी भी वाणी एकत्रित होती है उसमें मिश्री मिला दी जाती है और सभी स्त्री-पुरुष साधकों को प्रसाद के रूप में वितरित की जाती है। कोटवाल द्वारा प्रसार वितरण करने की इस क्रिया को वाणी फेरना कहते हैं।
वाणी के साथ-साथ चूरमे तथा पंचमेवे के प्रसाद भी होते हैं। चूरमे का प्रसाद ‘कोली’ तथा पंचमेवे का प्रसाद ‘भाव’ कहलाता है।
प्रसाद वितरण करने वाला व्यक्ति, साधक से कुछ सवाल पूछता है जो इस प्रकार होते हैं-
कोटवाल पूछता है- हुकम?
साधक जवाब देता है- हड़ूमान को।
कोटवाल पूछता है- आग्या?
जवाब मिलता है- ईश्वर की।
प्रश्न होता है- दुवो?
जवाब मिलता है- चारी, चारी जुग में हुवो।
प्रश्न होता है- चौकी?
जवाब मिलता है- हिंगलाज की।
प्रश्न होता है- परमाण?
जवाब मिलता है- संत चढ़ै निरवाण।
प्रश्न होता है- थेगो?
जवाब मिलता है- अलख रा घर देखो।
सभी साधकों से बारी-बारी से यही प्रश्न पूछे जाते हैं और सभी साधक यही जवाब देकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस प्रक्रिया के पूर्ण होने तक प्रातः हो जाती है और संगत बिखेर दी जाती है।
जब यह गुरु किसी साधक के घर जाता है तो साधक अपनी पत्नी को गुरु के समक्ष समर्पित करता है। गुरु, अपनी इस साधिका शिष्या के साथ भोग करता है तथा इस क्रिया से प्राप्त वाणी को घर के सदस्यों में प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। अरावली पर्वत में जन्म लेने वाले बीसनामी पंथियों में भी यह परम्परा कुछ अंतर के साथ प्रचलित थी।
इस साधना का चरम क्या है, तथा इस साधना को प्राप्त करने से किस सिद्धि की प्राप्ति होती है, यह ज्ञात नहीं है। काल के प्रवाह में बहुत कुछ बह गया है और बहुत कुछ बदल रहा है। अब ये परम्पराएं शनैः-शनैः समाप्त हो रही हैं। यदि कहीं हैं भी तो अत्यंत गोपनीय हैं, उनके बारे में शेष मानव समाज को कुछ ज्ञात नहीं होता।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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