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पिछली कथा में हमने शापग्रस्त चंद्रवंशी राजा परीक्षित को शुकदेवजी द्वारा दिए गए उपदेशों की चर्चा की थी जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण में हुआ है।
इस वीडियो में हम महाभारत में आए वर्णन के अनुसार राजा परीक्षित की मृत्यु का वर्णन करेंगे। जब शमीक ऋषि के शिष्य गौमुख ने हस्तिनापुर के राजमहल में उपस्थित होकर राजा परीक्षित को सूचित किया कि शृंगी ऋषि ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन नागराज तक्षक आकर आपको अपने विष से जलाएगा तो राजा परीक्षित सावधान हो गया। जब सातवें दिन तक्षक आ रहा था तब उसने काश्यप नामक ब्राह्मण को देखा।
तक्षक ने पूछा- ‘ब्राह्मण देवता आप इतनी शीघ्रता से कहाँ जा रहे हैं? काश्यप ने कहा- ‘जहाँ आज राजा परीक्षित को तक्षक सांप जलाएगा, मैं वहीं जा रहा हूँ। मैं उन्हें तुरंत जीवित कर दूंगा। मेरे पहुंच जाने पर तो सर्प उन्हें जला भी नहीं सकेगा।’
तक्षक ने कहा- ‘मैं ही तक्षक हूँ। आप मेरे डंसने के बाद उस राजा को क्यों जीवित करना चाहते हैं?’ यह कहकर तक्षक ने एक वृक्ष को डंस लिया। उसी क्षण वह वृक्ष जलकर राख हो गया। काश्यप ब्राह्मण ने अपनी विद्या के बल से उस वृक्ष को उसी समय पुनः हरा-भरा कर दिया।
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जिस समय तक्षक ने उस वृक्ष को भस्म किया, उस समय एक लकड़हारा सूखी लकड़ी लेने के लिए उस वृक्ष पर चढ़ा हुआ था और वह उन दोनों की बातें सुन रहा था। जब तक्षक ने उस वृक्ष को भस्म किया तो वह लकड़हारा भी उस वृक्ष के साथ जलकर भस्म हो गया किंतु जब काश्यप ने उस वृक्ष को फिर से हरा-भरा किया तो वह लकड़हारा भी फिर से जीवित हो उठा तथा फिर से तक्षक एवं काश्यप की बातें सुनने लगा।
काश्यप की अद्भुत विद्या को देखकर तक्षक उसे प्रलोभन देने लगा। उसने कहा- ‘जो चाहो, मुझसे ले लो!’
ब्राह्मण ने कहा- ‘मैं तो धन के लिए राजा के पास जा रहा हूँ।’
तक्षक ने कहा- ‘तुम उस राजा से जितना धन लेना चाहते हो, उतना धन मुझसे ले लो और यहाँ से लौट जाओ।’
तक्षक के ऐसा कहने पर काश्यप नामक ब्राह्मण तक्षक से मुंहमांगा धन लेकर लौट गया। उसके बाद तक्षक छल से राजा परीक्षित के महल में घुसा। उसने महल में सावधान होकर बैठे राजा परीक्षित को अपने विष से जला दिया।
जब तक्षक वहाँ से चला गया तब वह लकड़हारा हस्तिनापुर के राजमहल में आया और उसने जंगल में तक्षक और काश्यप के बीच का समस्त वृत्तांत लोगों को बता दिया। उन लोगों ने यह घटना परीक्षित के पुत्र जनमेजय को बता दी।
देवी भागवत में लिखा है कि ऋषि द्वारा दिए गए श्राप का समाचार पाकर राजा परीक्षित ने सात मंजिल ऊँचा महल बनवाया और उसके चारों ओर सर्प-मंत्र जानने वाले व्यक्तियों एवं पहरेदारों को नियुक्त किया। तक्षक को जब परीक्षित के महल के सुरक्षा प्रबंधों के बारे में ज्ञात हुआ तब उसने एक सर्प को ब्राह्मण के वेश में राजा के महल में प्रवेश करने का आदेश दिया। तक्षक ने ब्राह्मण-रूप-धारी-सर्प को एक फल दिया तथा उससे कहा कि वह इस इस फल को भगवान के प्रसाद के रूप में राजा के महल में पहुंचाए। तक्षक एक छोटे कीड़े का रूप धरकर उस फल में बैठ गया। जब ब्राह्मण-रूप-धारी-सर्प ने राजा को फल दिया तो तक्षक उस फल में से बाहर निकल आया और उसने राजा को भयानक विष से जला दिया। राजा की उसी समय मृत्यु हो गई।
परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए तक्षक सहित संसार के समस्त सर्पों को मारने का निश्चय किया। राजा जनमेजय ने ऋषियों से कहा- ‘हे ब्राह्मणो! दुष्ट तक्षक को अग्नि में भस्म करने के लिए सर्पयज्ञ का आयोजन करो। मैं संसार-भर के समस्त सर्पों सहित तक्षक को भस्म करूंगा।’
राजा की प्रार्थना पर ऋषियों ने विशाल सर्पयज्ञ का आयोजन किया। जब यज्ञमण्डप बनकर पूर्ण हुआ तो एक ब्राह्मण ने भविष्यवाणी की कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा। इस पर राजा जनमेजय ने द्वारपालों को आज्ञा दी कि मेरी आज्ञा के बिना किसी भी व्यक्ति को यज्ञमण्डप में प्रवेश नहीं करने दिया जाए।
इसके बाद सर्पयज्ञ आरम्भ किया गया। ऋत्विजों ने काले वस्त्र पहनकर हवनकुण्ड में आहुतियां डालनी आरम्भ कीं तथा जोर-जोर से मंत्रोच्चारण करने लगे। उन मंत्रों के प्रभाव से छोटे-बड़े असंख्य सर्प आकाश मार्ग से आ-आकर यज्ञकुण्ड में गिरने लगे। बहुत से सर्प तड़पते, पुकारते, उछलते, लम्बे सांस लेते हुए, पूंछ और फनों से एक दूसरे को लपेटे हुए यज्ञकुण्ड की अग्नि में गिरने लगे। इन सर्पों में कुछ तो गाय के कान जितने छोटे थे और कुछ चार कोस तक लम्बे थे।
सफेद, काले, नीले, पीले, हरे, लाल, बच्चे, बूढ़े, सभी प्रकार के सांप टपाटप आकर आग में गिरने लगे। इस सर्पयज्ञ में ऋषि च्यवन के वंशज चण्ड भार्गव यज्ञ के होता थे। कौत्स उद्गाता, जैमिनी ब्रह्मा, शांर्गरव और पिंगल अध्वर्यु थे। अपनी शिष्य-मण्डली सहित स्वयं महर्षि वेदव्यास, उद्दालक, प्रमतक, श्वेतकेतु, असित तथा देवल नामक ऋषि भी इस यज्ञ में सदस्य के रूप में सम्मिलित हुए।
सर्पों के मेद एवं चर्बी के जलने से पूरा वातावरण दुर्गंध से भर गया तथा सर्पों की चीख-पुकार से आकाश गूंज उठा। यह समाचार तक्षक ने भी सुना, वह भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में पहुंचा। उसने कहा- ‘देवराज! मैं अपराधी हूँ। भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिए।’
इन्द्र ने कहा- मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए पहले ही ब्रह्माजी से अभयदान ले लिया है। तुम्हें सर्पयज्ञ से कोई भय नहीं।’ इन्द्र की बात सुनकर तक्षक निर्भय होकर इन्द्रभवन में ही रहने लगा। सर्पयज्ञ चलता रहा और संसार भर के नाग उसमें आ-आकर गिरते रहे। अब बहुत कम सर्प जीवित बचे थे फिर भी वासुकी और तक्षक जैसे बड़े सांप अब भी जनमेजय के यज्ञकुण्ड की पहुंच से दूर थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता