Saturday, December 21, 2024
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45. संकरी घाटी

विश्वभर के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जब सेवक ने अपने स्वामी से विद्रोह किया हो किंतु ऐसे उदाहरण एक-दो ही हैं जब स्वामी अपने सेवक के विरुद्ध विद्रोह करने पर विवश हुआ हो। खानखाना बैरामखाँ और अकबर अब इतिहास की उसी संकरी घाटी में आ खड़े हुए थे जहाँ अपने सेवक से भयभीत स्वामी को अपने सेवक से विद्रोह करना था।

एक तो सत्ता और सियासत के गलियारे वैसे ही निम्न कोटि के षड़यंत्रकारी जीवों से भरे रहते हैं। उस पर वह समय भी ऐसा ही था जब एक दूसरे के विरुद्ध षड़यंत्र रचकर ही अपनी तरक्की का मार्ग खोलना उचित समझा जाता था। इन दोनों बातों से भी बढ़कर तीसरी बात यह थी कि बैरामखाँ शिया मुसलमान था और वह अपने चारों ओर सुन्नी मतावलम्बियों से घिरा हुआ था। बैरामखाँ जब भी किसी शिया को उच्च पद पर नियुक्त करता तो सुन्नी लोग अकबर से यही कहकर शिकायत करते कि बैरामखाँ जानबूझ कर शियाओं को उच्च पद पर नियुक्त करता है तथा सुन्नियों को निम्न पद पर। जब अकबर ने बैरामखाँ के कहने पर शेख गदाई को सदर-ए-सुदूर पद पर नियुक्त किया तो बैरामखाँ के शत्रुओं को हल्ला मचाने का अवसर मिल गया। उनकी शिकायतों ने धीरे-धीरे अकबर के मन में जगह बना ली।

हालांकि बुर्जअली और मुसाहिब बेग की हत्या दुष्ट नासिरुल्मुल्क ने करवाई थी लेकिन उसने उन दोनों की हत्या का दोष यह कह कर बैरामखाँ के मत्थे मंढ़ दिया कि बुर्जअली और मुसाहिब बेग सुन्नी थे। शत्रुओं के निरंतर षड़यंत्र करते रहने से बैरामखाँ का स्वभाव क्रोधी और चिड़चिड़ा हो चला था जिससे अकबर को भी उससे बात करने में कठिनाई होने लगी थी।

जब अकबर के पाजी नौकर अपने आप को बादशाह का नौकर समझ कर बैरामखाँ से नित्य नई सुविधाओं की मांग करते और जब बैरामखाँ मना कर देता तो वे पाजी नौकर मुँहजोरी करने लगते। इस पर बैरामखाँ को क्रोध आ जाता और वह बिना बादशाह से अनुमति लिये नौकरों को दण्डित कर देता। यह बात अकबर को बुरी लगती और वह समझता कि बादशाह को अपमानित करने के लिये बैरामखाँ बादशाह के नौकरों को दण्डित करता है और अपने नौकरों को इनाम बांटता फिरता है।

अकबर अपने हाथियों के छिन जाने, तार्दीबेग, जलालुद्दीन महमूद व मसऊद की हत्या हो जाने, नासिरुलमुल्क का पतन हो जाने तथा बैरामखाँ द्वारा शम्सुद्दीन अत्तका से निरंतर स्प्ष्टीकरण मांगते रहने के कारण भी निराश हो चला था। दूसरी ओर अब वह तेरह वर्ष का अनाथ और असहाय बालक न रहा था। अब वह लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत का एकछत्र एवं युवा बादशाह था, उसके मित्रों और चाहने वालों की कमी न रह गयी थी।

इन सब बातों ने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया। अकबर अब बात-बात पर बैरामखाँ पर संदेह करने लगा था और उससे मन ही मन कुढ़ने और छुटकारा पाने की योजनायें बनाने लगा था।

एक दिन अकबर की नजर सलीमा बेगम पर पड़ी। इस अद्वितीय सुंदरी को देखकर अकबर को अपना लड़कपन याद आ गया। वो भी दिन थे जब वह इस लड़की पर जान छिड़का करता था! जाने किन क्षणों में हुमायूँ ने सलीमा का निकाह बैरामखाँ से करने का निश्चय किया था और अकबर ने दिल्ली का बादशाह घोषित किये जाने पर यह लड़की बैरामखाँ को सौंप दी थी। बैरामखाँ का ध्यान आते ही अकबर की नसों में गुस्से का लावा बहने लगा। उसे लगा कि बैरामखाँ उससे उसकी हर प्रिय वस्तु छीन रहा था।

ईर्श्या और क्रोध की अग्नि में झुलस कर अकबर उस क्षण बिल्कुल ही भूल गया कि बैरामखाँ कभी भी उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं रहा। वह तो अकबर का शिक्षक, मित्र और आश्रयदाता था। उसी ने अकबर को तलवार चलाने, घुड़सवारी करने, जंग की तैयारी करने तथा शासन व्यवस्था कायम करने का प्रशिक्षण दिया था।

अकबर भूल गया कि यदि बैरामखाँ न होता तो पाँच साल का अकबर कांधार में ही तोपों के सामने भुनगे की तरह भुन कर रह जाता। अकबर यह भी भूल गया कि यदि बैरामखाँ न होता तो हुमायूँ के मरने पर तेरह साल का अकबर या तो शत्रुओं द्वारा मार दिया जाता या फिर उसे दर-दर का भिखारी बन जाने को विवश होना पड़ता। अकबर यह भी भूल गया कि बैरामखाँ ने किस तरह हिन्दुओं को कुचल कर, उनका मान मर्दन करके और उनके खून की नदियाँ बहाकर भारत पर मुस्लिम शासन कायम किया था।

जब ईर्श्या की ज्वाला भड़कती है तो आदमी की विचार शक्ति को हर लेती है। तब वह जो भी चिंतन करता है, वह एकांगी ही होता है। उस पर क्षुद्र तात्कालिकता हावी हो जाती है और विस्तृत अतीत विस्मृत हो जाता है। ईर्श्या की इसी ज्वाला में झुलसकर अकबर भूल गया कि भले ही बैरामखाँ कितना ही स्वाभिमानी और कठोर क्यों न रहा हो किंतु स्वामिभक्ति की जो जीती जागती मिसाल बैरामखाँ के रूप में धरती पर मौजूद थी, वैसी मिसाल दुनिया के इतिहास में यदा-कदा ही देखने को मिलती है।

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